Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 306
________________ परिशिष्ट-१ : कुछ विचारणीय बिन्दु २५१ अर्थात् अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, क्योंकि वह अनधिगत अर्थ को जानता है । इसके विपरीत अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के सूत्र संख्या १२ की व्याख्या में लिखा है अपूर्वाधिगमलक्षणानुपपत्तिश्च सर्वस्य ज्ञानस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः । प्रदीपवत् ज्ञानमपि उत्पत्यनन्तरं घटादीनामवभासकं भूत्वा प्रमाणत्वमनुभूय न तं व्यपदेशं त्यजति तदर्थत्वात् । . अर्थात् प्रमाण में अपूर्व अर्थ को जाननेरूप लक्षण नहीं बन सकता है । क्योंकि सभी ज्ञान प्रमाण होते हैं । जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति के बाद घटादि पदार्थों का अवभासक होकर अपने में प्रमाणत्व का अनुभव करता है, वही ज्ञान उत्तरकाल में भी प्रमाण ही रहता है, प्रमाण के व्यपदेश ( नाम ) को छोड़ नहीं देता है । जिस प्रकार दीपक प्रथम क्षण में घटादि पदार्थों का प्रकाशक होता है तो आगे द्वितीय आदि क्षणों में भी उनका प्रकाशक बना रहता है, उसी प्रकार ज्ञान के विषय में भी समझना चाहिए । जब ज्ञान प्रथम क्षण में प्रमाण होता है तो वह द्वितीय आदि क्षणों में भी प्रमाण ही रहेगा। : इत्यादि प्रकार से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि धारावाहिक ज्ञान प्रमाण है , अप्रमाण नहीं। ५. क्या अदृष्ट ज्ञान का कारण है ? कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः॥१०॥ द्वितीय परिच्छेद के इस सूत्र में बतलाया गया है कि जो ज्ञान का कारण है उसे ज्ञान का विषय मानने में करण ( इन्द्रिय ) आदि के द्वारा व्यभिचार आता है । व्यभिचार यह है कि इन्द्रिय ज्ञान का कारण तो है, किन्तु वह ज्ञान का विषय नहीं होता है । - यहाँ विचारणीय बात यह है कि उक्त सूत्र में प्रयुक्त आदि शब्द से किसका ग्रहण किया गया है । प्रमेयकमलमार्तण्ड में उक्त सूत्र की व्याख्या में लिखा है न हीन्द्रियमदृष्टादिकं वा विज्ञानकारणमप्यनेन परिच्छेद्यते । अर्थात् इन्द्रिय और अदृष्ट आदि विज्ञान के कारण तो हैं, किन्तु वे

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