Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 322
________________ परिशिष्ट-२ : पारिभाषिक शब्द २६७ १६. चित्राद्वैतवाद-विज्ञानाद्वैतवाद के अन्तर्गत एक मत चित्राद्वैतवादियों का है । ये लोग ज्ञान के नील, पीत आदि अनेक आकार मानकर भी ज्ञान को एक ही मानते हैं, अनेक नहीं । यही चित्राद्वैतवाद है । १७. शून्याद्वैतवाद- बौद्धदार्शनिकों में एक मत माध्यमिकों का है । वे मानते हैं कि इस संसार में एकमात्र शून्य ही तत्त्व है । यहाँ न तो बाह्यार्थ घटादि की सत्ता है और न अन्तरंग अर्थ ज्ञान की सत्ता है । यही शृन्याद्वैतवाद है। १८. अचेतनज्ञानवाद-सांख्य ज्ञानको अचेतन मानते हैं । ज्ञान की उत्पत्ति अचेतन प्रकृति से होने के कारण ज्ञान भी अचेतन है । ज्ञान पुरुष का धर्म न होकर प्रकृति का धर्म है । यही अचेतनज्ञानवाद है । १९. साकारज्ञानवाद-बौद्ध ज्ञान को साकार मानते हैं । अर्थात् ज्ञान जिस अर्थ से उत्पन्न होता है वह उस अर्थ के आकार होता है । घट का ज्ञान घटाकार होता है । यही साकारज्ञानवाद है । २०. भूतचैतन्यवाद-चार्वाक मानते हैं कि शरीर से पृथक् कोई आत्मा नहीं है । पृथिवी, जल, अग्नि और वायु-इन चार भूतों से शरीर की उत्पत्ति होती है और चैतन्य आत्मा का धर्म न होकर शरीर का ही धर्म है । यही भूतचैतन्यवाद है। २१. स्वसंवेदनज्ञानवाद-जैनदर्शन की मान्यता है कि जिस प्रकार ज्ञान घटादि प्रमेय का संवेदन ( प्रत्यक्ष ) करता है उसी प्रकार वह अपना भी संवेदन करता है । यही स्वसंवेदनज्ञानवाद है । २२. ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद-नैयायिक-वैशेषिकों का मत है कि ज्ञान का प्रत्यक्ष तो होता है, किन्तु वह प्रत्यक्ष स्वतः न होकर अन्य ज्ञान से होता है । यही ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद है । २३. उपमान प्रमाण-'गोसदृशो गवयः', गवय ( नीलगाय ) गाय के सदृश होता है, इस वाक्य को सुनकर जंगल में गया हुआ व्यक्ति गाय के सदृश प्राणी को देखकर यह जान लेता है कि यह गवय है । इसी का नाम उपमानं प्रमाण है । यौग और मीमांसक उपमान को एक पृथक् प्रमाण मानते हैं । किन्तु यथार्थ में जैनदर्शन द्वारा माने गये सादृश्य प्रत्यभिज्ञान को ही इन लोगों ने उपमान प्रमाण माना है ।

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