Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 324
________________ परिशिष्ट-२ : पारिभाषिक शब्द २६९ ३५. क्षायोपशमिक ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं । क्योंकि ये चारों ज्ञान क्रमश: मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं । ३६. औदारिक शरीर-मनुष्यों और तिर्यञ्चों के शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं । यह शरीर अन्य सब शरीरों में स्थूल होता है। ३७. परमौदारिक शरीर-तीर्थंकरों के तथा तद्भवमोक्षगामी पुरुषों के परमौौदारिक शरीर होता है । यह शरीर अन्य सब औदारिक शरीरों में परम ( उत्कृष्ट ) होता है । इसलिए इसे परमौदारिक शरीर कहते हैं । ३८. केवली-ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाने पर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप अनन्तचतुष्टय से सम्पन्न परमात्मा को केवली कहते हैं । केवली को अर्हन्त तथा सर्वज्ञ भी कहते हैं । ३९. सयोगकेवली-तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली को सयोगकेवली कहते हैं । क्योंकि इनके काय योग का सद्भाव पाया जाता है । ४०. अयोगकेवली-चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली को अयोगकेवली कहते हैं । क्योंकि यहाँ काययोंग का भी निरोध हो जाता है । ४१. शुक्लध्यान-चार ध्यानों में शुक्लध्यान अत्यन्त निर्मल और वीतरागतापूर्ण उत्कृष्ट ध्यान है । तथा यह ध्यान मोक्ष का साक्षात् कारण होता है । शुक्लध्यान चौदह पूर्वो के ज्ञाता पूर्वधरों के तथा सयोगकेवली और अयोगकेवली के होता है । ४२. विग्रहगति-आयु की समाप्ति होने पर नवीन शरीर को धारण करने के लिए जीव की जो विग्रहवाली ( मोड़ेवाली ) गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं । विग्रहगति को वक्रगति भी कहते हैं । यह गति अधिक से अधिक तीन समय तक होती है और चौथे समय में जीव शरीर धारण कर लेता है । इस गति में जीव एक, दो अथवा तीन समय तक • अनाहारक रहता है। ४३. आर्यिका-उपचार से पञ्च महाव्रतों का पालन करने वाली पञ्चम गुणस्थानवर्ती माताओं को आर्यिका कहते हैं ! आर्यिकाएँ बैठकर दिन में

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