Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 323
________________ २६८ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन २४. अर्थापत्ति प्रमाण-किसी ज्ञात अर्थ के द्वारा अज्ञात अर्थ का ज्ञान करना अर्थापत्ति है । जैसे 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुंक्ते', मोटा देवदत्त दिन में नहीं खाता है, इस वाक्य को सुनने वाला व्यक्ति यह जान लेता है कि देवदत्त रात्रि में खाता है । इसी का नाम अर्थापत्ति है । २५. अभाव प्रमाण-किसी वस्तु की असत्ता ( अभाव ) का ज्ञान अभाव प्रमाण से होता है । अर्थात् भूतल में घटाभाव अभाव प्रमाण से जाना जाता है । यही अभाव प्रमाण है । मीमांसक अभाव को पृथक् प्रमाण मानते हैं । २६. द्रव्येन्द्रिय-चक्षु आदि इन्द्रियाकार पुद्गल परमाणुओं की और आत्मप्रदेशों की जो रचना होती है वह द्रव्येन्द्रिय कहलाती है। २७. भावेन्द्रिय-जब चक्षु आदि इन्द्रियाँ अपने विषय में देखने आदि रूप प्रवृत्ति करती हैं तब उनको भावेन्द्रिय कहते हैं । २८. मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से घटादि पदार्थों का जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । २९. श्रुतज्ञान-मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ में या अन्य पदार्थ में मतिज्ञान पूर्वक जो विशेष ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है । ३०. अवधिज्ञान-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाब की मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मामात्र से जो रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। ३१. मनःपर्ययज्ञान-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मामात्र से जो दसरे के मन की अवस्थाओं का ज्ञान होता है वह मनःपर्ययज्ञान है । ३५. ५. वलज्ञान-जो ज्ञान त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को और उनकी समस्त पर्यायों को चुगपत् जानता है वह केवलज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान केवलज्ञानावरण कर्म के पूर्ण क्षय हो जाने पर प्रकट होता है । ३३. धारावाहिक ज्ञान-किसी एक ही अर्थ में लगातार अनेक बार होने वाले ज्ञान को धारावाहिक ज्ञान कहते हैं । नैयायिक, मीमांसक आदि दार्शनिक धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। . ३४. क्षायिक ज्ञान-केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है । क्योंकि वह केवलज्ञानावरण कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर उत्पन्न होता है ।

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