Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 333
________________ २७८ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ११५. समभिरूढनय – जो नय पर्याय के भेद से एक ही पदार्थ में नानात्व को बतलाता है वह समभिरूढनय है । यह नय इन्द्र, शक्र और पुरन्दरइन तीनों शब्दों का अर्थ पर्याय के भेद से भिन्न-भिन्न मानता है । ११६. समभिरूढनयाभास - शब्दों में पर्यायभेद मानकर भी अर्थभेद नहीं मानना समभिरूढनयाभास है । ११७. एवंभूतनय - जो नय क्रिया के आश्रय से अर्थ में भेद का निरूपण करता है वह एवंभूतनय है । इस नय की दृष्टि से राम को अध्यापन करते समय अध्यापक और पूजा करते समय पुजारी कहना चाहिए । ११८. एवंभूतनयाभास - किसी क्रिया के काल में उस शब्द का प्रयोग न करना अथवा अन्य क्रिया के काल में उस शब्द का प्रयोग करना एवंभूतनयाभास है । जैसे किसी व्यक्ति को पूजन करते समय पुजारी न कहकर अध्यापक कहना अथवा अध्यापन करते समय उसे पुजारी कहना एवंभूतनयाभास है । ११९. सप्तभंगी - प्रश्न के वश से एक वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध की कल्पना करना सप्तभंगी है। सप्तभंगी में सात भंग होते हैं और उनका प्रयोग सकलादेश और विकलादेश इन दो दृष्टियों से किया जाता है। १२०. प्रमाणसप्तभंगी – सकलादेश एक धर्म के द्वारा, सम्पूर्ण वस्तु को अखण्डरूप से ग्रहण करता है । संकलादेश को प्रमाण कहते हैं 'स्याज्जीव एव' यह वाक्य अनन्तधर्मात्मक जीवका अखण्डरूप से बोध कराता है । अतः यह प्रमाणसप्तभंगी है । १२१. नयसप्तभंगी–विकलादेश एक धर्म को प्रधान तथा शेष धर्मों को गौण करके वस्तु का ग्रहण करता है । विकलादेश को नय कहते हैं । ‘स्यादस्त्येव जीवः' इस वाक्य में जीव के अस्तित्व धर्म का मुख्यरूप से कथन किया गया है । अतः यह नयसप्तभंगी है । १२२. पत्र – पत्र ऐसे वाक्य को कहते हैं जिसमें अनुमान के पाँचों अवयव पाये जावें, जो अपने इष्ट अर्थ का साधक हो, जो निर्दोष गूढ रहस्यों से भरा हो तथा अबाधित हो । ऐसे पत्र का प्रयोग लिखित शास्त्रार्थ में किया जाता है ।

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