Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 332
________________ परिशिष्ट-२ : पारिभाषिक शब्द २७७ १०४. पर्यायार्थिक नय-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत-ये चार नय पर्याय को विषय करने के कारण पर्यायार्थिक नय कहलाते हैं । १०५. नैगमनय-जो नय अनिष्पन्न अर्थ में संकल्पमात्र को ग्रहण करता है वह नैगमनय है । कोई पुरुष कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने के लिए जंगल को जा रहा है । किसी ने उससे पूछा कि कहाँ जा रहे हो ? तब वह कहता है कि प्रस्थ लेने जा रहा हूँ । ऐसा कथन नैगमनय की दृष्टि से ठीक है । यह नय विवक्षानुसार गुण-गुणी आदि में भेद और अभेद-इन दोनों को ही विषय करता है । १०६. नैगमनयाभास-गुण-गुणी, अवयव-अवयवी आदि में सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है। १०७. संग्रहनय-अपनी जाति के समस्त पदार्थों को सत्रूप से अथवा द्रव्यादिरूप से ग्रहण करने वाले नय को संग्रहनय कहते हैं । १०८. संग्रहनयाभास-केवल ब्रह्मरूप ही तत्त्व है । इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । इस प्रकार सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करके केवल सत्तासामान्य को ही सत्य मानना संग्रहनयाभास है । १०९. व्यवहारनय-संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करने वाले नय को व्यवहारनय कहते हैं । जैसे जो सत् है वह द्रव्य और पर्यायरूप है, इत्यादि प्रकार से भेद करना व्यवहारनय है । ११०. व्यवहारनयाभास-द्रव्य-पर्याय आदि के भेदव्यवहार को काल्पनिक मानना व्यवहारनयाभास है । १११. ऋजुसूत्रनय-जो नय केवल वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है । ११२. ऋजुसूत्रनयाभास-बौद्धों के द्वारा माना गया सर्वथा क्षणभंगवाद ऋजुसूत्रनयाभास है। ११३. शब्दनय-काल, कारक, लिंग आदि के भेद से अर्थभेद का कथन . करना शब्दनय है । यह नय एक अर्थ के वाचक अनेक शब्दों का लिंगादि के भेद से भिन्न भिन्न अर्थ करता है । ११४. शब्दनयाभास-लिंगादि का भेद होने पर भी उन शब्दों में अर्थभेद नहीं मानना शब्दनयाभास है ।

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