Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 321
________________ २६६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ८. प्रसिद्धार्थख्यातिवाद - सांख्य का मत है कि विपर्ययज्ञान प्रसिद्ध अर्थ की ख्यातिरूप होता है । अर्थात् मरीचिका में प्रतिभासित जलरूप अर्थ घट की तरह सत्यभूत है । यही प्रसिद्धार्थख्यातिवाद है । ९. आत्मख्यातिवाद - विज्ञानाद्वैतवादी का मत है कि विपर्ययज्ञान आत्मख्यातिरूप होता है । अर्थात् विपर्ययज्ञान में जिस अर्थका प्रतिभास होता है वह ज्ञान का ही आकार है, बाह्यार्थ का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है । यही आत्मख्यातिवाद है । १०. अनिर्वचनीयार्थख्यातिवाद - ब्रह्माद्वैतवादी विपर्ययज्ञानको अनिर्वचनीय अर्थ की ख्यातिरूप मानते हैं। उनके अनुसार विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित अर्थ न सत्रूप है और न असत्रूप है, किन्तु वह अनिर्वचनीय है । यही अनिर्वचनीयार्थख्यातिवाद है । ११. स्मृतिप्रमोषवाद – मीमांसक मतानुयायी प्राभाकरों का मत है कि विपर्ययज्ञान स्मृतिप्रमोषरूप होता है । अर्थात् शुक्तिकामें जो रजत का ज्ञान होता है उस ज्ञान में पूर्व दृष्ट रजत की स्मृति न होकर स्मृति का प्रमोष होता है । वहाँ स्मृति चुरा ली जाती है । यही स्मृतिप्रमोषवाद है । I १२. विपरीतार्थख्यातिवाद - नैयायिक, वैशिषिक तथा जैन मानते हैं कि विपर्ययज्ञान विपरीत अर्थ की ख्यातिरूप होता है । शुक्तिका में जो रजत का ज्ञान होता है वह विपरीत अर्थ की ख्यातिरूप है । यही विपरीतार्थख्यातिवाद है । - १३. शब्दाद्वैतवाद – प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि आदि शब्दाद्वैतवादी मानते हैं कि इस संसार में शब्दरूप ब्रह्म की ही सत्ता है । यह सब वाच्य - वाचक तत्त्व शब्दब्रह्म का ही विवर्त ( पर्याय ) है । यही शब्दाद्वैतवाद हैं । १४. ब्रह्माद्वैतवाद – वेदान्तदर्शन के अनुयायी वेदान्ती मानते हैं कि इस संसार में एकमात्र ब्रह्म की ही सत्ता है । जो कुछ प्रतिभासित होता है वह सब ब्रह्मरूप ( अभेदरूप ) है, किन्तु माया ( अविद्या ) के कारण भेद का प्रतिभास होता है । यही ब्रह्माद्वैतवाद है । १५. विज्ञानाद्वैतवाद – योगाचारमतानुयायी विज्ञानाद्वैतवादियों का मत है कि विज्ञानमात्र ही वास्तविक तत्त्व है । विज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी बाह्य अर्थ की सत्ता नहीं है । यही विज्ञानाद्वैतवाद है ।

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