Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 307
________________ २५२ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन - ज्ञान के विषय नहीं होते हैं । इससे ज्ञात होता है कि उक्त सूत्र में आदि शब्द से अदृष्ट का ग्रहण किया गया है । यहाँ यह बतलाया गया है कि इन्द्रिय की तरह अदृष्ट भी ज्ञान का कारण होता है । किन्तु यह समझ में नहीं आ रहा है कि अदृष्ट ज्ञान का कारण कैसे होता है ? अदृष्ट का अर्थ तो कर्म है और कर्म ज्ञान का कारण कैसे हो सकता है ? कर्म तो ज्ञानादि गुणों का प्रतिबन्धक होता है। ६. तर्क और ऊह___ तृतीय परिच्छेद के सूत्र संख्या २ में परोक्ष प्रमाण के ५ भेद बतलाये गये हैं । इनमें एक तर्क प्रमाण का नाम है, किन्तु स्मृति और प्रत्यभिज्ञान के बाद तर्क का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है । ___उपलंभानुलंभनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ॥११॥ इस सूत्र में तर्क का एक अप्रसिद्ध नाम ऊह लिख दिया । यहाँ विचारणीय यह है कि जब परोक्ष प्रमाण के भेदों में तर्क का नाम दिया है तब तर्क के स्वरूप को बतलाते समय भी तर्क का नाम ही देना चाहिए था । तर्क शब्द प्रसिद्ध है और ऊह शब्द अप्रसिद्ध है । कोई अल्पज्ञ व्यक्ति सोच सकता है कि परोक्ष के भेदों में परिगणित तर्क गायब क्यों हो गया और अप्रसिद्ध ऊह कहाँ से आ गया ? अतः तर्क के लक्षण में तर्क शब्द का ही प्रयोग करना चाहिए था । इसी प्रकरण में न्यायदीपिका में कितना अच्छा लिखा है व्याप्तिज्ञानं तर्कः । ऊह इति तर्कस्यैव नामान्तरम् । अर्थात् व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं । ऊह तर्क का ही दूसरा नाम ७. अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत 'तृतीय परिच्छेद के सूत्र संख्या ९९ में आगम-प्रमाण का लक्षण बतलाया गया है । इस सूत्र की व्याख्या में अक्षरश्रुत और अनक्षर श्रुत-ये दो शब्द आये हैं और इनका अन्तर्भाव आगम-प्रमाण में किया गया है । प्रमेयकमलमार्तण्ड में केवल इतना ही लिखा है अनेनाक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतं च सगृहीतं भवति । अक्षरश्रुत क्या है और अनक्षरश्रुत क्या है, इस विषय में

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