Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

Previous | Next

Page 310
________________ परिशिष्ट-१ : कुछ विचारणीय बिन्दु २५५ जैसे मेरु आदि हैं । आप्तवचन के द्वारा मेरु आदि पदार्थों का ज्ञान होता है । अतः यह आगम प्रमाण का उदाहरण है । यहाँ आदि शब्द से जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि का ग्रहण करना चाहिए । आगम में बताया गया है कि जम्बूद्वीप के मध्य में एक लाख योजन ऊँचा मेरु पर्वत है । यह केवल जैनागम की ही बात नहीं है, बौद्ध आदि अन्य दर्शनों के शास्त्रों में भी मेरु पर्वत की ऐसी ही कल्पना की गई है । अब यहाँ विचारणीय बात यह है कि जैनागम में जैसा मेरु पर्वत बतलाया गया है वैसा मेरु पर्वत वर्तमान विश्व में कहीं भी उपलब्ध नहीं है । आज विश्व में सबसे ऊँचा पर्वत माउन्ट एवरेस्ट ( हिमालय की एक चोटी ) ही है । यह संभव है कि एक लाख योजन ऊँचा मेरु पर्वत विश्व के किसी कोने में छिपा हो । यह भी संभव है कि किसी अन्य पर्वत विशेष के लिए मेरु शब्द का प्रयोग किया गया हो । इस विषय में डॉ० गोकुलप्रसाद जी जैन दिल्ली ने 'श्रमण संस्कृति का विश्वव्यापी प्रसार' शीर्षक लेख में लिखा "प्राचीन भूगोल और प्राच्यविद्याशास्त्रियों ने सुमेरु या मेरु पर्वत का विस्तार से वर्णन किया है । यह मेरु पर्वत ही आज का 'पामीर' पर्वत है । चीनी भाषा में 'पा' का अर्थ होता है पर्वत तथा मेरु से 'मीर' बन गया । इस प्रकार यह 'पामीर' शब्द बना । इससे पूर्व में तत्कालीन विदेह अर्थात् चीन है।" - डॉ० गोकुलप्रसाद जी के अनुसार अनुसार अष्टापद' पर्वत के आठ पर्वतों में से पामीर (मेरु ) प्रमुख पर्वत है । उनका यह लेख Ahimsa Voice के जनवरी-मार्च 1992 के अंक में प्रकाशित है । .. ' इस विषय में डॉ० पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य का मन्तव्य भी उल्लेखनीय है । उन्होंने तत्त्वार्थवृत्ति की प्रस्तावना में लिखा है "जैन शास्त्रों में भूगोल और खगोल का जो वर्णन मिलता है उसकी परम्परा करीब तीन हजार वर्ष पुरानी है । आज से ढाई तीन हजार वर्ष पहिले सभी सम्प्रदायों में भूगोल और खगोल के विषय में यही परम्परा प्रचलित थी जो जैन परम्परा में निबद्ध है । बौद्ध, वैदिक और जैन-इन तीनों परम्परा के भूगोल और खगोल सम्बन्धी वर्णन करीब-करीब एक जैसे हैं । वही जम्बूद्वीप, विदेह, सुमेरु, देवकुरु, उत्तरकुरु, हिमवान् आदि

Loading...

Page Navigation
1 ... 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340