Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 315
________________ २६० प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन सामग्री की विशेषता ( समग्रता ) से दूर हो गये हैं समस्त आवरण जिसके .. ऐसे अतीन्द्रिय और पूर्णरूप से विशद ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं । ... १४. प्रत्यक्षाभास-अविशद ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना प्रत्यक्षाभास है । जैसे बौद्धाभिमत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रत्यक्षाभास है । १५. वैशद्य-अन्य ज्ञान के व्यवधान से रहित प्रतिभास को अथवा वर्ण, संस्थान ( आकार ) आदि की विशेषता को लिए हुए प्रतिभास को वैशद्य कहते हैं। १६. योग्यता-अपने आवरण ( ज्ञानावरण ) के क्षयोपशम को योग्यता कहते हैं । इसी योग्यता के द्वारा ज्ञान प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था करता है । अर्थात् घटादि पदार्थों को जानता है । १७. केशोण्डुक-केशोण्डुकरूप अर्थ के अभाव में होने वाले केशोण्डुकरूप अर्थ के ज्ञान को केशोण्डुकज्ञान कहते हैं । १८. परोक्ष-अविशद ज्ञान को परोक्ष कहते हैं । यह ज्ञान प्रत्यक्ष से भिन्न अर्थात् अविशद होता है। १९. परोक्षाभास-विशद ज्ञान को परोक्ष मानना परोक्षाभास है । मीमांसक करणज्ञान (प्रमिति का साधकतम ज्ञान ) को परोक्ष मानते हैं । उनका वैसा मानना परोक्षाभास है । क्योंकि करणज्ञान विशद होता है । २०. स्मृति-धारणारूप संस्कार के उद्बोध ( प्रकट होना ) से होने वाले तथा तत् ( वह ) इस प्रकार के आकार वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं । जैसे वह देवदत्त । २१. स्मरणाभास-जिसका कभी अनुभव ( प्रत्यक्ष ) नहीं हुआ है उसमें 'वह' इस प्रकार के ज्ञान के होने को स्मरणाभास कहते हैं । जैसे जिनदत्त में वह देवदत्त ऐसा स्मरण करना स्मरणाभास है । २२. प्रत्यभिज्ञान-वर्तमान पर्याय का प्रत्यक्ष और पूर्व पर्याय का स्मरण होने से दोनों पर्यायों ( अवस्थाओं ) का संकलन रूप ( एकत्व, सादृश्य आदि के ग्रहणरूप ) जो ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे यह वही देवदत्त है जिसे एक वर्ष पहले देखा था । २३. प्रत्यभिज्ञानाभास-सदृश पदार्थ में 'यह वही है' ऐसा कहना तथा उसी पदार्थ में 'यह उसके सदृश है' ऐसा कहना प्रत्यभिज्ञानाभास है ।

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