Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 301
________________ २४६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .. माताजी ने भी इसी मत का समर्थन किया है । अब जो विद्वान् केशों में उण्डुक के ज्ञान को केशोण्डुकज्ञान मानते हैं उनके मत से तो केशरूप अर्थ के होने पर ही उण्डुक ज्ञान हुआ । तब यह कैसे कहा जा सकता है कि केशोण्डुकज्ञान अर्थ के अभाव में होता है । सूत्रकार को तो यही सिद्ध करना है कि अर्थ के अभाव में ज्ञान होता है, जैसे कि आलोक के अभावमें ज्ञान होता है । ऐसा बतला करके ही ज्ञान का अर्थ और आलोक के साथ व्यतिरेक का अभाव सिद्ध किया जा सकता है। ___ यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि केशोण्डुक शब्द का प्रामाणिक अर्थ क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है । यहाँ एक संभावना यह भी है कि केश और उण्डुक दोनों शब्द पृथक्-पृथक् हैं और एक का दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं है । इसका मतलब यह है कि केश के अभाव में केश का ज्ञान हो जाता है और उण्डुक के अभाव में उण्डुक का ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार अन्य चीजों के विषय में भी कहा जा सकता है। अष्टशती तथा न्यायदीपिका में 'केशमशकादिज्ञानं' लिखा भी है । अर्थात् केश, मशक आदि के अतिरिक्त अन्य चीजों का ज्ञान भी अर्थ के अभाव में हो जाता है । इसकी पुष्टि भी प्रमेयकमलमार्तण्ड के निम्नलिखित वाक्य से होती है अथ कामलादय एव तज्ज्ञानस्य हेतवः । तेभ्यश्चोत्पन्नं तदसदेव केशादिकं प्रतिपद्यते । -प्रमेयकमलमार्तण्ड, सूत्र २/७ की व्याख्या । यदि ऐसा माना जाय कि कामलादि रोग ही केशोण्डुकज्ञान के हेतु हैं और उनसे उत्पन्न ज्ञान असत् केश आदि को जानता है, तो इससे यही सिद्ध होता है कि केशोण्डुकज्ञान असत् केश को, असत् उण्डुक को तथा आदि शब्द से अन्य असत् चीजों को जानता है । केश के साथ आदि शब्दके प्रयोगसे उण्डुक आदि अन्य अनेक असत् चीजों के ग्रहण करने में कोई बाधा नहीं है । यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त संस्कृत वाक्य में असत् केशोण्डुक न लिखकर असत् केशादिकं लिखा है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि केश और उण्डुक अलग अलग हैं और इनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। इतना विचार करने के बाद भी यह जिज्ञासा बनी ही रहती है कि

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