Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 302
________________ परिशिष्ट-१ : कुछ विचारणीय बिन्दु २४७ केशोण्डुक एक चीज है अथवा केश और उण्डुक दो चीजें हैं । यदि दो चीजें हैं तो इनका आपस में कोई सम्बन्ध है या दोनों पृथक्-पृथक् हैं । किन्तु इस जिज्ञासा का कोई युक्तिसंगत समाधान दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है । क्योंकि किसी भी संस्कृत टीकाकार ने केशोण्डुक शब्द का कोई स्पष्ट अर्थ नहीं लिखा है । 'केशेषु उण्डुकज्ञानं केशोण्डुकज्ञानम्' ऐसा भी किसी ने नहीं लिखा है । यदि ऐसा लिख देते तो केश और उण्डुक का आपस में सम्बन्ध सिद्ध हो जाता । फिर भी उपरिलिखित विवेचन से इतना तो स्पष्ट हो ही गया है कि केशोण्डुकज्ञान केशोण्डुकरूप अर्थ के अभाव में ही होता है। न्यायदीपिका में भी यही लिखा है"अर्थोऽपि न ज्ञानकारणं तदभावेऽपि केशमशकादिज्ञानोत्पत्तेः ।" अर्थात् अर्थ ज्ञान का कारण नहीं है, क्योंकि अर्थ के अभाव में भी केश, मशक आदि का ज्ञान हो जाता है । .. केशोण्डुकज्ञानविषयक प्रकरण का उपसंहार करते हुए आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकम्मलमार्तण्ड में लिखा है तत्कथमर्थकार्यता ज्ञानस्य अनेन व्यभिचारात् संशयज्ञानेन च ? . इसलिए ज्ञान में अर्थकार्यता कैसे हो सकती है ? अर्थात् ज्ञान अर्थ का कार्य नहीं हैं । क्योंकि इसमें केशोण्डुकज्ञान के द्वारा व्यभिचार आता है । केशोण्डुकज्ञान अर्थ के अभाव में भी उत्पन्न हो जाता है । यहाँ संशयज्ञान के द्वारा भी व्यभिचार आता है । २. संशयज्ञान.. ' आचार्य प्रभाचन्द्र ने संशयज्ञान के द्वारा ज्ञान में अर्थकार्यता का व्यभिचार इस प्रकार बतलाया है_ न हि तदर्थे सत्येव भवति, अभ्रान्तत्वानुषङ्गात्, तद्विषयभूतस्य स्थाणुपुरुषलक्षणार्थद्वयस्यैकत्र सद्भावासंभवाच्च । सद्भावे वारेका न स्यात् । ........ततः संशयादिज्ञानस्यार्थाभावेप्युपलंभात् कथं तदभावे ज्ञानाभावसिद्धिर्यतोऽर्थकार्यतास्य स्यात् । -प्रमेयकमलमार्तण्ड सूत्र २/७ की व्याख्या पृ० २३४ । अर्थात् संशयज्ञान अर्थ के होने पर नहीं होता है । यदि ऐसा होता तो

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