Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 292
________________ षष्ठ परिच्छेद : सूत्र ७४ २३७ इसके दो भेद हैं-परसंग्रह और अपरसंग्रह । सत्ता या सत्त्व की अपेक्षा से संसार के समस्त पदार्थों को सत् रूप में ग्रहण करना परसंग्रह है । 'सर्वं सत्' ऐसा कहने से समस्त पदार्थों का संग्रह हो जाता है । इसी प्रकार द्रव्यरूप से समस्त द्रव्यों का, गुण रूप से समस्त गुणों का और पर्याय रूप से समस्त पर्यायों का ग्रहण करना अपरसंग्रह है । केवल ब्रह्मरूप ही तत्त्व है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । इस प्रकार सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करके केवल सत्तासामान्य को ही तत्त्व मानना संग्रहाभास है । नैगमनय विधि और निषेध दोनों को विषय करता है, किन्तु संग्रह नय केवल विधि को ही विषय करता है । व्यवहारनय-संग्रह नय से गृहीत पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करने वाले नय को व्यवहार नय कहते हैं । जैसे जो सत् है वह द्रव्य और पर्याय रूप है । जो द्रव्य है वह चेतन और अचेतन के भेद से दो प्रकार का है । इस प्रकार जहाँ तक भेद संभव है वहाँ तक यह नय भेद करता जाता है । यही व्यवहार नय है । द्रव्य-पर्याय आदि के भेदव्यवहार को काल्पनिक मानना व्यवहारनयाभास है । ऋजुसूत्रनय-ऋजु प्राञ्जलं वर्तमानक्षणमात्रं सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः । ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमानक्षणवर्ती एक पर्याय को ग्रहण करता है । अतीत और अनागत कालवर्ती पर्यायों को वह विषय नहीं करता है । इस नय की यही विशेषता है । बौद्धों के द्वारा माना गया सर्वथा क्षणभंगवाद ऋजुसूत्रनयाभास है। शब्दनय-काल, कारक, लिंग आदि के भेद से अर्थभेद का कथन करना शब्द.नय है । यह नय एक अर्थ के वाचक अनेक शब्दों का लिंगादि के भेद से भिन्न भिन्न अर्थ स्वीकार करता है । जैसे पुष्य, नक्षत्र और तारा ये तीनों शब्द नक्षत्र के पर्यायवाची होते हुए भी लिंग के भेद से भिन्न भिन्न अर्थ के वाचक होते हैं । इसी प्रकार कारक और काल के भेद से भी यह नय भिन्न भिन्न अर्थ को विषय करता है । लिंगादि का भेद होने पर भी उन शब्दों में अर्थभेद नहीं मानना शब्दनयाभास है। समभिरूढनय-पर्याय के भेद से एक ही पदार्थ में जो नानात्व को बतलाता है वह समभिरूढ नय है । यह नय एक कालवाचक, एक संख्यावाले और

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