Book Title: Prameykamalmarttand Parishilan
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharati

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Page 296
________________ षष्ठ परिच्छेद: सूत्र ७४ २४१ सप्तभंगी के सात भंगों का प्रयोग सकलादेश और विकलादेश इन दो दृष्टियों से होता है । सकलादेश को प्रमाण और विकलादेश को नय कहते हैं । कहा भी है सकलादेशः प्रमाणाधीनः विकलादेशः नयाधीनः । सकलादेश एक धर्म के द्वारा समस्त वस्तु को अखण्डरूप से ग्रहण करता है और विकलादेश एक धर्म को प्रधान तथा शेष धर्मों को गौण करके वस्तु का ग्रहण करता है । 'स्याज्जीव एव' यह वाक्य अनन्तधर्मात्मक जीव का अखण्डरूप से बोध कराता है । अतः यह सकलादेशात्मक प्रमाण वाक्य है । 'स्यादस्त्येव जीव:' इस वाक्य में जीव के अस्तित्व धर्म का मुख्य रूप से कथन होता है । अतः यह विकलादेशात्मक ऩय वाक्य है । सकलादेश में धर्मिवाचक जीव शब्द के साथ 'एव' शब्द का प्रयोग होता है और विकलादेश में धर्मवाचक 'अस्ति' शब्द के साथ 'एव' शब्द का प्रयोग होता है । उक्त सातों ही भंग जब सकलादेशी होते हैं तब प्रमाण और जब विकलादेशी होते हैं तब नय कहे जाते हैं । इस प्रकार सप्तभंगी प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी के रूप में दो प्रकार की होती है । पुत्रविचार : अब यहाँ नय आदि की तरह पत्र भी एक विचारणीय विषय है । पत्र का लक्षण 'पत्र परीक्षा' नामक ग्रन्थ में इस प्रकार बतलाया गया है प्रसिद्धावयवं वाक्यं स्वेष्टार्थस्य प्रसाधकम् । साधुगूढपदप्रा पत्रमाहुरनाकुलम् ॥ पत्र ऐसे वाक्य को कहते हैं जिसमें अनुमान के प्रसिद्ध पाँचों अवयव षाये जावें, जो अपने अभीष्ट अर्थ का साधक हो, जो निर्दोष गूढ रहस्यों से प्रायः भरा हुआ हो और जो अनाकुल ( अबाधित ) हो । यहाँ पत्र के लक्षण को बतलाने का प्रयोजन यह है कि प्राचीन काल में शास्त्रार्थ मौखिक रूप में तथा कभी कभी लिखित रूप में भी हुआ करते । थे । मौखिक रूप में जो शास्त्रार्थ होता है उसे वाद कहते हैं और लिखित रूप में जो शास्त्रार्थ होता है उसे पत्र कहते हैं । जब शास्त्रार्थ लिखित रूप में होता है तब वादी और प्रतिवादी अपने मन्तव्यों को पत्र में लिखकर परस्पर में उन पत्रों का आदान-प्रदान करते हैं । लिखित शास्त्रार्थ में प्रयोग

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