Book Title: Prakruti Parichaya
Author(s): Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Digambar Sahitya Prakashan

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Page 7
________________ वर्गणायें जीव के ज्ञान गुण को आच्छादित करती है वे "ज्ञानावरण" कारण में कार्य के उपचार से कही जाती है इस प्रकार जो जीव के दर्शन गुण का घात करे वे दर्शनावरण । जो सुख-दुख का वेदन कराये वे वेदनीय तथा जो हिताहित का विवेक नाश करदें वे मोहनीय, जो जीव को प्राप्त पर्यायों में रोककर रखे वे आयु, जो जीव को नाना शरीर प्राप्त कराने में कारण हों वे नाम, जो उच्च-नीच कुल की प्राप्ति में कारण हों वे गोत्र, तथा जो इच्छित दान, भोग आदि में विघ्न उत्पन्न करें वे अन्तराय कर्म से संज्ञित की जाती हैं । ये कर्मों की प्रकृतियों के मूलभेद हैं । उत्तर भेद मतिज्ञानादि रूप में प्राप्त होते हैं - मूल प्रकृतियों का मुख्य कार्य क्या है ? मूल प्रकृतियों के स्वरूप का स्पष्टीकरण प्रायः सिद्धान्त ग्रंथों में दृष्टिगोचर होता है । दर्शन और गोत्र कर्म के विषय में जो स्पष्टीकरण आगम में उपलब्ध होता है उससे प्रायः लोगों को इन दोनों के विषय में संशय ना ही रहता है । इसी प्रकार कुछ उत्तर प्रकृतियों के विषय में भी संशय बना ही रहता है यथा - यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, आदेय, अनादेय, सुभग, दुर्भग इत्यादि । प्रस्तुत ग्रंथ में यह प्रयास ही किया गया है कि जहाँ भी मूल प्रकृतियाँ और उत्तर प्रकृतियाँ के लक्षण प्राप्त होते हैं और उनमें कुछ विशेषताएँ हैं तो सभी को आचार्य वीरसेन महाराज की धवला टीकाके अनुसार क्रमशः संकलित किया गया है । अध्येता कर्म प्रकृतियों के विषय को एक ही स्थल पर विभिन्न विभिन्न आचार्यों की परिभाषायें प्राप्त करने में सक्षम होंगे। जहाँ आचार्यों द्वारा प्रतिपादित लक्षण समान हों तो वहाँ उसही परिभाषा का संकलन किया है जो परिभाषा विवक्षित विषय का पूर्णतः स्पष्टीकरण प्रस्तुत करती है और शब्द संयोजना की अपेक्षा विशेषता प्रकट करती है । ग्रन्थ में सर्वप्रथम धवला टीका में आगत परिभाषायें, पश्चात् कर्म प्रकृति आचार्य अभयचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती कृत, तदनन्तर सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड इत्यादि ग्रंथों से परिभाषायें संकलित की गई हैं । ग्रंथ में प्रकृतियों के अस्तित्व को यदि स्वीकार नहीं किया जाय तो कौन-सा दोष उत्पन्न होता है इसका भी धवला पुस्तक 6 के अनुसार स्पष्टीकरण करने का प्रयास किया है । मूल प्रकृतियों के बंध के योग्य परिणामों का भी संकलन राजवार्तिक, स्वार्थसार, तिल्लोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों के आधार पर किया गया है । आशा है यह कृतिं विद्वज्जन के साथ-साथ जनमानस के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी । दीपमालिका 19.10.98 Jain Education International For Private & Personal Use Only विनोद जैन अनिल जैन www.jainelibrary.org

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