Book Title: Prachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Author(s): Jayant Kothari
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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प्राचीन मध्यकालीन साहित्यसंग्रह धर्मवती बेटी भली, काह अधम्मी पूत; छालि के गलि दोय थणां, तामैं दूध न मूत.
आसण केरूं गूबड़े खिण खिण खटकें धर्मकथामा वात करै, तेहळू वाहलूं
जेह; तेह.
तेजी न खमें ताजणो, खिति न सहइ खगधार; सुरा मरण ज आगमैं, पण न सहइ तुंकार.
रूपें रूडा मोर, प्रीतें पारेवां भला; धान विणासण ढोर, पाघडियाला पालउत. वांझि न जाणे वेदना, पूत्र प्रसवतां; प्रीत न जाणे पालीयां, जूगतिं जालवतां. या तो घर हे प्रेमका खलांका[खालाका] घर नांहि; सीस सटोसटि साटवई, तव पेसें घरमांहिं.
तरूवर कबहु न फल भखइं, नदी न पीवइं नीर; परमारथके कारणइ, सज्जन धर्या सरीर. विरला जाणंति गुणा, विरला पालंति निद्धणा नेहा; विरला परकज्ज-करा, परदुखिए दुखिआ विरला. धन उपगारी माणसां, परनी पीड हरंत; सांइ तेहनि राखस्, हाथे छांह करंत.
कवित लज्जावंत दयावंत प्रशांत प्रतीतवंत, परदोषके ढकैया परऊपगारी हे; सोमदृष्टी गुनग्राही गरिष्ट सबको ईष्ट शिष्टपक्षी मिष्टवादि[दीरघविचारी] हे; विशेषग्य रसग्य कृतग्य धर्मग्य न दीन न अभिमानी मध्यमधारी [मध्यविवहारी] हे, सहज विनीत पापक्रियासो अतीत, एसो श्रावक पुनीत इकईस गुनधारी हे.
धन योवन ठकुराइयां, सदा काल न होय, ज्युं रूंखा त्युं मानवी, छाह फिरंती जोय.
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