Book Title: Prachin Madhyakalin Sahitya Sangraha
Author(s): Jayant Kothari
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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सं.१५३५मां लखायेला प्राचीन काव्यो
६५३ नवाणवइ कोडि कनक तजी जंबुकुमरू आठ नारि, वीरजिणंद मुद्रा लई, विरतउ इणि संसारि, अनुदिनु चतुर्विध सयल संघ मुनि अणुदिन सीहा स्वामि. १९ - इति श्री जंबुस्वामि वेलि समाप्त:. छ.
२. सीहाकृत रहनेमि वेल प्रिय-वंदण परबति चडी, वरिसइ गहिर गंभीर, भीनउ कंबल कंचूउ, मुख गोमटुं सरीर, देखी गजगामिनि गयवर गहिगहिउ, जिम कमलिणि मधुकार. वेलि पराली. नेमिनाथ केरी आण, चलण न पामीइ, सीअल सबल रखिवाल, वन अति रूअडु, मदमत जइ गज होइं, सुंडि संभालीइ, रहनेमि भूलि म भूलि, नयणडे चाहीइ. आंचली बहुत दिवस दुक्कर करी, राणी, तम्ह लगइ रेस, तीण फलि हूउ मेलावडु, ऊतर अव म देसि. २ वेलि परा० इसे वचनि तपसंजम दहेस ऋषि, नरगि पीआणउं देसि, वेलि रे करहा मन आलि करि, संजमभार वहेसि, देखी पीआरां राम वन मन पसरंत म मेल्हि. (मेल्हिसि) ३ वेलि. धरि तोष मनि पंच इंद्रिय वसि करि, अवघड मारगि म चालि, सरसव तुल्ली हुं जि, मुनि, तुं गिरि मेरु समान, गजारूढ कांइ खरि चडइ, गंजं अप्पाण. ४ वेलि. म पडि म पडि म-न दुगय-गमन करि, चारितरयण मत हारि, परस्त्री देखि विराग मुख, ते वरला संसारि; घणा विगू(ता) सांभल्या, जे रत्ता परनारि. ५ वेलि. ईआ देखी कुर खइ गइ, भीमसेन झूझारि, रूप सरिधियुं देखि करि, कीचक मनि अभिलाष, पवननंद तस मार करि, जगत्रि रहावी रेख. ६ वेलि. शत बंधवि सिउं अगनि प्रजाली नलइ स्त्रीकारणि म-न भूलि, सुंद्र सखाई लंक गढ, रावण धणी निसंक, परस्त्री कारणि गंजिउ, त्रिभुवन माहि ज वंक. ७ वेलि.
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