Book Title: Pat Darshan
Author(s): Kalpana K Sheth, Nalini Balbir
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 35
________________ शत्रुजय दर्शन के बाद ही वे चारों प्रकार के आहार ग्रहण करेंगे। रास्ता बहुत लंबा था। क्रमशः चलते काश्मीर के अटवी प्रदेश में पहुंचे। लंबे दिनों तक चलने से और आहार नहीं ग्रहण करने से राजा के स्वास्थ्य पर विपरीत असर हुआ। समस्त संघ ने राजा को अभिग्रह पूर्ण करके आहार ग्रहण करने के लिए समझाया। उन्होंने जिनमत के दोनों स्वरूप उत्सर्ग और अपवाद मार्ग से भी समझाये, फिर भी राजा तो अपनी प्रतिज्ञा-अभिग्रह पर दृढ़-अडिग थे। समग्र संघ चिंतित था। अपने ज्ञान से कर्पटयक्ष भी इस परिस्थिति को जाना। रात्रि का समय हो गया था। आधी रात समग्र संघ निद्राधीन था। कर्पटयक्ष ने आचार्य, राजा, प्रधान आदि चार प्रमुख पुरुषों को रात्रि में स्वप्न में आकर आश्वासन दिया कि राजा सहित समग्र संघ को कल ही वे शत्रुजय दर्शन करवाएंगे। कर्पटयक्ष ने काश्मीर प्रदेश की सीमा में एक नया सिद्धाचलजी प्रगट किया। राजा सहित समग्र संघ ने दर्शन किए। वहां हर्षोत्सव, महोत्सव मनाया गया। चारों तरफ प्रभुभक्ति-अटूट श्रद्धा और दृढ़ सम्यक्त्व का वातावरण फैला हुआ था। राजा की प्रसन्नता-हर्ष की कोई सीमा न थी। खुशी के मारे वे सात-आठ बार मंदिर में गये, बाहर आये। प्रधान ने राजा के मन को माप लिया कि अभी भी राजा शत्रुजय दर्शन से तृप्त नहीं हुए हैं। प्रधान ने राजन् को वहां रुकने की विनती की। राजा स्वयं भी वहां रुकना चाहते थे। उन्होंने प्रधान की बात स्वीकार कर ली और अपनी दोनों पत्नियां हंसी और सारसी के साथ वहीं अपना निवास स्थान बना लिया। वहां विमलपुर नगर की स्थापना की। एक दिन बड़ा सुन्दर, आकर्षक शुक वहां आ पहुंचा। उसे देखते ही राजा लालायित हो गये। हंसी और सारसी दोनों सात्विक, धर्मप्रेमी, भक्तिवती सुश्राविकाएं थीं। दोनों धर्मकार्य में प्रवृत्त रहती थीं। क्रमशः राजा का आयु पूर्ण होने वाला था। देह पौद्गलिक है तो मरना, उत्पन्न होना उसका स्वभाव है -स्वाभाविक क्रम है। राजा की अंतिम घड़ियां थीं। दोनों पत्नियां उन्हें धर्मकार्य में प्रवृत्त करती थीं, फिर भी राजा का मन, समग्र चेतना मानो शुक में अवस्थित थी और उन्होंने तिर्यंच आयुबंध प्राप्त किया। राजा का जीव शुक रूप उत्पन्न हुए। हंसी और सारसी ने भी राजा के मृत्यु पश्चात् चारित्र धर्म ग्रहण किया। उत्तम प्रकार की चारित्राराधना, तपाराधना करते दोनों ने स्वर्गलोक-देवलोक प्राप्त किया। अपने ज्ञान से पूर्व पति का शुक रूप जानकर उन्हें प्रतिबोधित किया। शुक ने भी प्रतिबोधित होकर आमरणांत अनशन व्रत किया और सौधर्म देवलोक में देवत्व प्राप्त किया। वहां से शुकदेव मृगध्वज नृप के वहां शुकराज रूप में उत्पन्न हुए। उन्होंने बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार के दुश्मनों पर विजय प्राप्त की। अपने प्रतिस्पर्धी राजा को अपने बल-शौर्य और द्रव्य की शक्ति से पराजित किया। अंतःशत्रु राग-द्वेषमोह-माया-लोभ रूप कषाय पर धर्माराधना-तपाराधना से विजय प्राप्त किया और सिद्धपद प्राप्त किया, तभी से यह तीर्थ शत्रुजय (शत्रु पर विजय दिलाने वाला) तीर्थ माना जाता है। चंद्रशेखर नृप ने तीर्थदर्शन-यात्रा की। अपने कर्मों की आलोचना-प्रायश्चित करके चारित्रधर्म अंगीकार किया। आमरणांत अनशन व्रत ग्रहण किया और सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त किया। आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में वज्रनाभ प्रमुख 116 गणधर, 3,00,000 साधु, अजितश्री प्रमुख 6,36,000 साध्वियाँ, 2,28,000 श्रावक, 5,27,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 350 धनुष था। आपका वर्ण कंचन था। आपका लांछन कपि है। आपकी कुल आयु पचास लाख पूर्व की थी। 1000 मुनिराजों के साथ आपने सिद्धाचलजी पर अनशन व्रत ग्रहण किये और सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। श्री शत्रुजय तीर्थ को भावपूर्वक वंदन। चौथें तीर्थंकर श्री अभिनंदनजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। 28 पटदर्शन

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