Book Title: Pat Darshan
Author(s): Kalpana K Sheth, Nalini Balbir
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 124
________________ (3) शत्रुजय तीर्थोद्धार कारयन्ति मरुदगेहं - ख्यात्यर्थ केचनात्मनः। केचित्रवस्यैव पुण्याय, स्वश्रेयोऽर्थं च केचन।। प्रासादोद्धारकरणे, भूरि पुण्यं निगद्यने। उद्धारान्न परं पुण्यं विद्यते जिनशासने।। अर्थ- कुछ आत्माएं अपनी निजी प्रशंसा पाने के लिए जिनमन्दिर का निर्माण करते हैं, कुछ पुण्य प्राप्ति के लिए करते हैं और कुछ अपने कल्याणार्थ देवमन्दिर का निर्माण करवाते हैं। प्रासाद-तीर्थ प्रासाद का जीर्णोद्धार करने से विशेष पुण्योपार्जन | होता है। तीर्थोद्धार से श्रेष्ठ पुण्यकार्य जिनशासन में और कोई नहीं है। शत्रुजय तीर्थ अनादि अनंत है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में काल के प्रभाव से उसमें वृद्धि-हानि होती रहती है, कहीं उनका सत्त्व क्षीण होता रहता है मगर वह कभी सर्वथा क्षय नहीं होता। इसलिए उनका जीर्णोद्धार करना आवश्यक है। नया मंदिर निर्माण कराने की बजाय पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार करने से दुगुने पुण्य की प्राप्ति होती है। शत्रुजयतीर्थ के अनेक छोटे-बड़े उद्धार देव और मनुष्य द्वारा किये गए हैं। पंचम आरा के अंत तक ऐसे उद्धार होने वाले ही हैं। उनमें से कुछ 17 उद्धार विशेष है। अवसर्पिणी काल के चौथे आरे (कालचक्र) में बारह जीर्णोद्धार हुए हैं। महावीर के शासनकाल के बाद पाँच जीर्णोद्धार हुए हैं, जो निम्नलिखित हैं अस्मिंस्तीर्थवरे भूताः श्री तीर्थोद्धारकारकाः। एतस्याण्वसर्पिण्यां; पूर्वो भरतचक्रय भूत।। इस अवसिर्पणी काल में इस शत्रुजय तीर्थ के 17 प्रमुख उद्धार हुए हैं और अन्य भी होंगे। उसमें से प्रथम उद्धार भरत चक्रवर्ती ने किया है। द्वितीयो भारते वंशे, दंडवीर्यो नृपो यतः। ईशानेन्द्रस्तृतीयो हि, माहेन्द्रश्च चतुर्थकः।। इस तीर्थ का दूसरा उद्धार भरत चक्रवर्ती के वंशज दंडवीर्यनृप ने किया है। तीसरा उद्धार ईशानेन्द्र ने करवाया है। चौथा उद्धार माहेन्द्र ने करवाया है। पंचमो ब्रह्म कल्पेन्द्रश्चमरेन्द्रस्तु षष्ठकः। अजित जिन काले हि सगरराट् च सप्तमः।। पांचवां उद्धार पांचवे देवलोक के इन्द्र ब्रह्मेन्द्र ने करवाया था। ब्रह्मेन्द्र के बाद छट्ठा उद्धार भवनपति के इन्द्र चमरेन्द्र ने करवाया था। सातवां उद्धार द्वितीय तीर्थंकर के शासनकाल में सगर चक्रवर्ती ने करवाया था। अष्टमो व्यन्तरेन्द्रो हि - तीर्थोद्धारकः खलु। चन्द्रप्रभप्रभोस्तीर्थे चन्द्रयशा नृपस्तथा।। पटदर्शन - 117

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