Book Title: Pat Darshan
Author(s): Kalpana K Sheth, Nalini Balbir
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटदर्शन (तीर्थंकर प्रणीत धर्मदेशना अन्तर्गत शत्रुजय माहात्म्य) The glory of Shatrunjaya as depected in a 19th Century Jain Scroll શ્રી શત્રુંજય મહાતીર્થ ABOAD THEHOICICIA 000000 gaye An ISO 9001:2000 Certified University and Accredited by NAAC-B+ JAIN VISHVA BHARATI UNIVERSITY LADNUN - 341 306 (RAJASTHAN) INDIA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटदर्शन (तीर्थंकर प्रणीत धर्मदशना अन्तर्गत शत्रुजय माहात्म्य) The glory of Shatrunjaya as depicted in a 19th century Jain scroll Edition, analysis and translation by Dr. Kalpana K. Sheth and Prof. Nalini Balbir माणस्स JAIN VISHVA BHARATI UNIVERSITY LADNUN - 341 306 (RAJASTHAN) INDIA Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by: Jain Vishva Bharati University Ladnun - 341 306 (Rajasthan) ISBN No. : 978-81-910633-0-1 Edited by : Dr. Kalpana K. Sheth Prof. Nalini Balbir Copies 500 First Edition : 2010 Price Rs. 450/US $ 25 Printed by : Nagar Printing Press 55-Tilak Nagar (Kotri), Kota (Rajasthan) INDIA Ph.: 0744-2363333, 2361333 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE Among the treasures housed at the Jain Vishva Bharati University, Ladnun, is a Siddhacalapata (shelfmark: Aa 97). This is a unique scroll dating back to the beginning of the 19th century. It has a long text in Gujarati and bright paintings of each of the 24 Tirthankars. Its purpose is to celebrate the sacred place of Siddhacala, also known as Shatrunjaya (Gujarat), where so many persons have attained and will attain moksa. It does so by giving particulars of each of the 24 Tirthankars as well as by narrating many stories which show the power of Siddhacala, undoubtedly the most loved tirtha of the Jains. We are grateful to Dr. Kalpana K. Sheth and Prof. Dr. Nalini Balbir for having spent time and energy to prepare the present book which brings to light this important document in a scholarly way, both in Hindi and in English. The readers will be able to admire the paintings and read the original text through the photographs reproduced in this volume. They will also be able to read the original text in Devanagari and in transliteration. All tools necessary for the understanding of the text and of the numerous narratives it contains have also been provided (in Hindi and in English, in different ways) by the two active and competent editors of this book, which we are proud and happy to publish today. Samani Mangalprajna Vice-Chancellor Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैन तीर्थों में सिद्धाचल अर्थात् शत्रुजय का एक उत्तम स्थान है। बहुत पुराना भी है। सैकड़ों शताब्दियों से शत्रुजय के ऊपर विविध ग्रन्थ लिखे हुए हैं और 15वीं शताब्दी से शत्रुजय पट की परम्परा भी विकसित हो गई है। सिद्धाचल का नाम इस कारण के लिये दिया गया है कि इस स्थान में असंख्येय लोगों ने मोक्ष (सिद्धि) प्राप्त किया है। सिद्धाचल के पर्वत की हर जगह पवित्र है और इसके बारे में मनोरंजन तथा उपदेशात्मक कथाएं कही गई हैं। इस पुस्तक का विषय है एक सिद्धाचलपट जो जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं के पुस्तकालय में रखा हुआ है। उसका नम्बर है "Aa97" | यह कागज का है। उसकी लम्बाई 12 मीटर और चौड़ाई 24 सेण्टीमीटर है। इसमें सिद्धाचल के माहात्म्य का वर्णन दिया गया है। लिपि देवनागरी है और भाषा गुजराती। पट के 24 विभाग हैं, प्रत्येक तीर्थंकर के लिए एक विभाग। पट का महत्त्व यह भी है कि इस में 24 तीर्थंकरों के अलग-अलग चित्र मिलते हैं। ये चित्र कितने सुन्दर हैं और कितने प्रेरक हैं यह यहाँ प्रकाशित किये गये फोटो के आधार पर पाठकों को अपने आप देखने का मौका मिलेगा। यह पट दूसरे शत्रुजय-पटों के जैसा नहीं है। इस मे शत्रुजय के क्षेत्र, कुण्ड, तालाब इत्यादि के चित्र बिलकुल नहीं मिलते हैं। प्रशस्ति से पता चलता है कि यह पट विक्रम संवत् 1859 में बन गया था। इस पुस्तक के पहले भाग में हमने मूलपाठ को देवनागरी और रोमनाइजेशन में दिया है। बीच में हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। दूसरे भाग के अन्तर्गत कथाओं का विवरण, शत्रुजय के जीर्णोद्धार और इस तीर्थ के विविध नामों के विषय पर हमने हिन्दी में कुछ जानकारी भी दी है और तीसरे भाग में ऐसा विवरण अंग्रेजी भाषा में दिया गया है। हम दोनों जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय की कुलपति डॉ. समणी मंगलप्रज्ञाजी के प्रति कृतज्ञ हैं जिनकी प्रेरणा से यह अध्ययन प्रकाश में आ सका है। जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय ने हमको सुविधायें उपलब्ध कराईं। इस के लिये भी हम आभारी हैं। जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय के टेक्नीकल टीम ने भी प्रकाशन के काम में हमको पूरा सहयोग दिया है। उन सब लोगों को भी हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं। डॉ. कल्पना क. शेठ प्रो. नलिनी बलवीर (iv) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Preliminary note to the Devanagari text and to the transliteration The first part of this book is presented as follows: for each of the 24 sections we give 1) the photographs of the original document (painting of the Jina and corresponding text), 2) the Devanagari text, 3) the Hindi translation, 4) the transliteration of the original text. In the Devanagari text and in the transliteration we have done our Western punctuations. We use inverted commas for dialogues. In the transliteration, hyphens have been used for compounds (although we are aware that it is difficult to be totally consistent given the state of the language, which remains influenced by Sanskrit and Prakrit, but has, definitely, the structure of a modern Indo-aryan language). Dandas are used profusely in the original document, but they do not systematically function as punctuation marks. The sign "." (identical to the visarga) is, however, a punctuation mark, indicating the end of a sentence. We have kept it as such in the transliteration. We have made no attempt to harmonize the inconsistencies of orthography whether they concern ordinary words or proper names, as this can be considered as a linguistic feature and should not be seen in a normative perspective as "mistakes". The Nagari script is clear and neat. In a few cases, the scribe or a person who read the document afterwards have noted superfluous syllables which have to be erased. In a few cases, he has written a syllable twice. The scribe has used red ink for colophons, beginnings, and occasionally for verses or other passages. < > indicates superfluous syllables written on the document and marked as such or considered as such by us. () indicates a syllable omitted in the document and restored by us. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CONTENTS Preface by Samani Mangalprajna, Vice Chancellor प्रकाशकीय Preliminary note to the Devanagari text and to the transliteration 1. ORIGINAL TEXT 1-98 Reproduction of the original scroll - Text in Devanagari - Hindi translation - Transliteration 1. Rsabhanatha 2. Ajitanatha 3. Sambhavanatha 4. Abhinandanasvami 5. Sumatinatha Padmaprabhu 7. Suparsvanatha 8. Candraprabhu 9. Suvidhinatha 10. Sitalanatha 11. Sreyamsanatha 12. Vasupujya 13. Vimalanatha 14. Anantanatha 15. Dharmanatha 16. Santinatha 17. Kuntunatha 18. Aranatha 19. Mallinatha 20. Munisuvrata 21. Naminatha 22. Neminatha 23. Parsvanatha 24. Mahavirasvami II. HINDI SECTION 98-123 1. पट अन्तर्गत उल्लेखित कथाएं 2. Tauty Aft 113 3. शत्रुजय तीर्थोद्धार 117 4. Tauty fafat 1 120 5. for 9tacter 123 III. ENGLISH SECTION 124-143 1. Contents of the text 124 The Jinas identity cards: analysis and charts The narrative material: miracles, names and landscapes Analysis of the stories in sections 1, 2, 4, 16, 20, 22 and 24 2. The colophon 140 3. The paintings 141 References 143 Index of proper names 145 87 (vi) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. श्री ऋषभदेवजी 1. Sri Rsabhadevaji पटदर्शन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mupनीरुपनदेवजीनमानमा नीशारदायानम शानीपुमरिकगयाधरायनमश्रिीविमलायानतिनिधि घोअनितकालीअनंता अनंत जेन्नव्यजीबातेाधकर्मक यकरीनिरावर्सरल जेकेवलकालाकेवलदनि कायकसम्मकिताबकायअनेकगुग प्रमरकरी नानीमिछाडीयarफरसीनानीसिघ्यदाअनंताजित चाम्पाबापामेछाअनेवनिपामस्पे।। अव्या बानुषप्त पिस्वगातोवनमानचोवीसीमाानीकापनदेवस्वामि इंजयगारमाणिनोनयमावोनोग्नीसिहाचालजीनोमन पायाकरायुनीषन्नदेवस्वामि-असरासरणाल वनयहरणनव्यजीवोनारखाायोसमामाअामरुपी तमरारानवानेअमर्कसमानानवरुप सियार मानिसाथसमानाकर्मरोगटानवानेाधनेवैद्य समानाकषायसअग्नीमाटालवानेश्वरावमिघसमान पथवीयावनकरवानव्यजिधरूपकमलविकवरकरता। जवाजीवोनोधर्मवारीप्रकासकरतानाप्नेएकराधानग रपचरायविहारकरमााचोरासीगाधरचोरासीरजा रमनिराजासमथचीधसंघपरिवारसहिताश्रीचिमन चलपवतासमोसस्थानातिबारेशानिकायनादेवताः चासाशासवेन्नलामालाश्रीकृषनदेव स्वामटेस नाधिोनीधिमलाचलपर्वसनीमाहातमस्वरुपयु श्रीसिावलीमाहातमालेघणाजीवनसान्नानी मापरमानदयामता परमेश्वरजीनबमजानकः सायिोनानी-आसमानीकार्यसिधिस्वरूपापुछता याप्रसंपजीवपरमेस्वरमानामुषाकमनिवाणि सामनाजेउमाशंप्रात्मानीकानिपनिाकीसिकाचल वीर्यमगतयारिमानिमितानाजीम उपरथीमुचाउतारीने संसारथीधिमुथ्थरीच्यारही बाफियाअगसकरीसकलकर्मक्ष्यकरीमाजरामरच घनेवरताहयाशिवलिनीएसीधावलायतविधीअतित कानोश्रीकेवलझानी निवारणीयममाधोविसमरिहामरी स्वरसारकौशशाश्रीसिहावलजीनामानिनिविघवन्नम नकालेंनीझपनदेवनगवान्॥श्रीसिहावलेंपध्यास्या How पटदर्शन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेहाश्रीवीतरागेसियलयर्वतमाहातमाश्सस्तविमे सवर्णनेसान्नलिनीयुझरीकरजीईयूळाश्रीष दिवेककारहरीकगाधराजमाराआत्मानीकार्यनी: सिधी मात्रविबालिवारेंयुफरीकगाधरोपर श्वरमामुषधीयाएसोनालीएरवीश्रीपरमेश्वरजीनेयु तारेश्रीसिहाचलमीनमाहात्मासवानाषवर्याध्यमिवारंश्री नावंतनेयुबीनाश्रीयुफरीकजीशायाचकोकिमुनिसंघाने। मासणकशारकमासनीसलेषणाकरीसकलकर्मक्ष्यक धीमुनिमनादिवस विषानीकधनदेवनातीनिइंवि चिमाझंगया तदाकानथी।श्रीसिाचनजीमुनामापुरी तीर्थाविध्याथा३रात्रीसीधाचनतामहिमाला माटो जारणीनेत्रीभरतचक्रवशिसंघकादिश्रीसिधा घनलाइंआध्यानीसिक्षाचालजीउपरवडतोमानाचा साना प्रथामकेवनझानीना। परमेश्वरजीनीपादुका में ऊंझलेजरा निर्यादेषीमोनरलचकी महाराज नियुबाजेपाऽकामऊमामिणेकिमासिवासोश्वप्न उकजेएअतितावीसीधाईगानीकेवनहानि नामानिर्थकरथयारोहमायगलामेभरतराजाने ॐाएघणाकालथीमाजराजिरण्याशयाचें।इनाम विधीयवसानिलिभाऊंझनुनामनरन्थयुतिहाथीवनि मागलिंचाल्या श्रीसिधावलजीउपरेचमिउधारकराव्योाना बोयसाग्रीषमतातजीनोकराव्यो।।शमानहरी श्री श्रीयुमरिकगाधरनीथापनाकारायणादेवनेश्रीकृषमता मायाकाथायायदा करीनेबिजीमयासर्वजथोचितक रणीकातिवारपबीताश्रीगिरनारतिर्थजावानाअनि पायाभरतराजानाथयारहवेमनीमीविद्याधरमुनि। नरसयाआधीनमक ॐाजेअनमोक्षदाबीसि वाचाजीअपरेंकतिवारेनरौतमुनिका आन्मानीकार्यसिहीथालिमकरोतिवारविराज मंनिबेनासनीसलेषणाकरीताफागुणवदिदसम्म दिवसेंबेकोमिमुनिराजसंघातेंसिझवझवस्वावलिन्नर तराजासेंजीनदीईनाद्यानदिमें कोच्चारदीव चारदिसंधवनापुदिसेमर्यवनाशायबिनदिसे। ज्वनाथदणदिनदमिदनाशामझरदिसऊसमव नाधाएच्यारेखननीसोनाजोतागलेंच्यात्न्या लिहा मागलेंजांनाएकजटाधाशिवायसैबेंचो नेभरतरा पटदर्शन Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाईनबुजेउमेरहाकिमबेदागतिबारेतायसक।मुझने श्रीकृषन्नदेवजीककोजेश्रीवंशकाग्राउमातिर्थ सरनेवाशातिर्थ सिधपदवरिसातमाटेगवेरा बातेवातसन्निलिने तेथानकोश्नीचयनजानुकाद तरहरामाउंकोनि -प्रागसिंचानयाभारा चनमी विद्यारघरनीघोसपुत्रीचा आदेदेने अथास एकरीमागाइकिवानायकमाचार्यसकहेंजेदेवंग नाथहनीतिहाथापनानारतराजाउंकरानिवारंचचे जिरिएखंनामथकावलिप्रागनिवाला जोतीरमाग नेवि एकगिरिनासिषर-आध्यो सिधारेंसक्तिसिहएस्पेन मंतामसबैभरतरामानोन्नचिनो सक्तिसीहमें परम: राजामू जेआसिषरतेसं निवासक्तिसिहकोंक बगिरिमामायतोगारामिणप्रीसिहावानजीटकन तितचावीसीजबिजाविधकरनिर्वाणानामागचानाति मागधराधराकदंबरिषीएवेनामतेनेभगवाने इंमा काम घिसिक्षपद वाससानातिन कदंवरि बीपोलामायरिवारसहितानीसिघाचारपरे-माणसणकरी कर्मक्षयकरीमोवस्वादाकालथीएपर्वतमुनामाक दंबगिरिधयुवति-आगलिचाल्याप्तिहाराकटुक-आव्योः तिवारेसक्तिसिहनेवलिपुंजरनाकापर्यंत तिवार शक्तिसिहको एतानाइजनामिशिएपवाबाऊंबनिजी मामधास्वामिहानरत बाऊबलिनीनोएसादकराव्या तथाकालथी।बाबानककेवरायाानमोनियम यस्यामावलियागनिधान्या। एडवेयकपर्वसद तिदावोगनिहाभरतराजायुनरिवरसाधवाग यातातिहमलेबाजारोगमुक्वालिवारेमनूष्यघणामखर लागाएहवेअवसरेको कच्चारणामुशिविहांआध्यातमुनी इंजेआकामनूष्पसग्रामविनाकिमपरेसिवानर तरानाईकचं स्वाप्निकाइंघबरमतीनधी तिवारे, नीको टेलरतरामानामनेरामाईरोगमुक्योछतेका आनदिनाघाणीनासपरसथकीरोजासें एसकहा नधारणानिमयासोलिनामदीनापामगीथीसर्वना द्या सर्वसम्मनिरोगिथयो पियानाधिपचार नहीधी एकभरतराजानोष्टराधीहतोनेतिहाकालशास्तिय यो विहानरसरमाइंसाहस्तिनागपुरागामवसावुनिय नीषनदेवनापसादकरायोसिदाकालेंहस्तिकम्यमानि | पटदर्शन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थपवयुानमावथयस्स्पारणादायगारानारस्वता प्राध्यालिहाश्रीनेमनाथना विणकन्यागकरचारक तिहाप्रीमीश्वरजीनोपसादकराव्या तिवारेश्रीगीरनार तिथपवन्यध्यारदिसध्यारपर्चततेम्परेच्यारसादव राव्यानिहाथीबरझोनामापर्वतदेषातबरमतपर्वत नेविघबरसोनामाराम्सरदो तेसंघनें तथा जाप उपचघरोकरेंछेतिकोनेवस्थ-आवतोमधीतेवासा नलीनरसवराजाशासानामापोलानौसेनानीमा कन्यो सेनानीबरकाराकनेमिनिसक्तिसिहपगे लामोत्ररतराजाईबरमापदेसदेसम्मकिपमा: तिहाभरतराजाशंपतीनोपसारकराव्योगशिराबरको जीरावेनामिविपश्यालिराबरमाराकसने सो हदेसनो अविशयकथालिहाथीभरतराजाआवं आध्यातिहा परमेश्वरनोयसादकराच्या तिहाथीसमतसीमा २-आयामहापरमेश्वरतापरसादकराव्यासअनेकन्नर रामाईनिर्थथापनाकीधी पथमारनरतराजानोसान मासिवचलनमानमाशएश्रीसिाचलवसमिानबोधी सिई श्रीकृषन्ननोमश्वरजीमाबेमुघशनिवारिष बिऊनाराज्यनेप्रार्थ कलेसकरनाथकाचोमासंआ धुतिवार संयाममांसकोकिमाणसक्ष्यथा हंसरदरी प्राचीतियुगंगातिरेतापसमाजका तापसगुरूने पगलागवागयातापसमानुपथावाणीन्नलिम्पतिा वोधयामीबेनाश्तापसादसकोमिसंघातंययाविनने वाषावारणमनीबावीसमासस्वातिहरखामुनिना भुषथानीसवाचलजालुमिाहतमसानलीचारणामु नानामषधकी मीसिझाचलजीहूमहातमसाननिाचा रामनिसघालें। नीसिघालालजीईयाव्या।आनल मार्गमाघाइंस एकतालावनेका एकसाथटालिम एकरधहंसासक्तिमंतेतीहोरो बिजासर्वम यूषनोयगरबो सालिनेमगियां तेरछसालित स्ताइंआव्यो तेहमें मनिपालिमा तिहाथीससा थेलीधों तेहंसनेंसिछानजीउपरें।अणसाकराध्युम्न समाराधीनेमायदेवलोवताथयो तिहा थीअवधिज्ञानेजोमश्रिीसिधाधलजीनोमगारजासणी सिधाचलजाभवापसावरायोतिहाकालीसावताराय स्वनामविनतसीधाचलजीनोमहातमदेवीचारा पटदर्शन Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियाममारित्रलांसाधलजीउपराअासराकरीका परेमोझगयाानमोस्कानीसीधाचनाविमलाबला यनमा इतिश्रीकृषनदेवमोवनिसंयु। श्रीश्री मूल पाठ श्री ऋषभदेवजी नमोनमः। श्री शारदायै नमः। श्री पुंडरिक गणधराय नमः। श्री विमलाचल तिर्थने विषं अतिते काले अनंताअनंत जे भव्य जीव ते आठ कर्म क्षय करी निरावर्ण रत्नत्रै जे केवलज्ञाल छे, पामे , अने वलि पामस्ये। अव्याबाध सुख प्रतें पिण हवणां तो वर्तमान चोवीसीमां श्री ऋषभदेव स्वामिइं उपगार जाणिनें भव्यजीवोंने श्रीसिद्धाचलजीनो ओलखाण कराव्युं छे। श्री ऋषभदेव स्वामि असरण सरण, भवभयहरण, भव्यजीवों ने तारवा पोत समान छे, अज्ञान रूपी त(ति) मर टालवानें अर्थे अर्क समान, भव रूप अटीवि पार उतानि सार्थ समान, कर्मरोग टालवानें धनंतर वैद्य समान, कषाय रुप टालवाने पुष्फरावर्त्त मेघ समान, प्रथवी पावन करवा भव्य जिव रूप कमल विकस्वर करतां, भव्य जीवोंने धर्मवाणी प्रकास करता ग्रामे एकरायं, नगरे पंचरायं, विहार करतां चोरासी गणधर, चोरासी हजार मूनिराज, समथ चतुर्विध संघ परिवार सहित श्री विमलाचल पर्वते समोसरया।। तिवारें च्यरनिकायना देवता चोसट्ठि इंद्र सर्व भेला मलि श्री ऋषभदेव स्वामिइं धर्मदेशनाने विषे श्री विमलाचल पर्वतनूं करतां, पोतानी आतमानी कार्य सिद्धिनुं स्वरूप पुछतां घणा असंख्य जीव परमेस्वरजीना मुखा कम(ल)नी नि वाणी सांभली, जे तुमारां आत्मानी कार्यनिपत्ति श्री सिद्धचल तीर्थ उपरे छे, ते वांणि सांभलिने अनंता भव्य जीव सरीर उपरथी मुर्छा उतारीने, संसारथी विमुख थई, च्यार अर्हर छांडि अणसण करी, सकल कर्म क्षय करी अजरामर श्रुखनें वरता हवा / 1 / वलि श्री ए सीधाचल पर्वतने विर्षे अतित कालें श्री केवलज्ञानानि वाणी प्रमुख चोविस अरिहा परमेस्वर प्रगट कहे / 2 / श्री सिद्धाचलजी नामा तिर्थने विषे वर्तमानकाले श्री ऋषभदेव भगवान् श्री सिद्धाचलें पध्याऱ्या। सिंहा श्रीवीतरागें सिद्धाचल पर्वतनूं माहात्तम प्रसस्त विशेष वर्णवू, ते सांभलिने श्री पुडरिकजीइं पूछु, श्री ऋषभदेवे कह्यु, "हे पुंडरीक गणधर! तुमारा आत्मानी कार्यनी सिधी आ क्षेत्रने विषे छइ।" तिवारें पुडरीक गणधरें परमेश्वरना मुखथी वाणी सांभली एहवी श्री परमेश्वरजी ने पुछु, तारे श्री सिद्धाचलजीन माहात्म सवा लाख वर्णव्यु। तिवारे श्रीभगवंतने पुछीने, श्री पुंडरीकजीइं पांच कोडि मुनि संघाते अनशन करी, एक मासनी संलेखणा करी, सकल कर्म क्षय करी, चैत्री पुनिमना दिवस, विषइ श्री ऋषभदेवना तीर्थनई विषे मोक्षे गया। तदा कालथी श्री सिद्धाचलजीनु नाम पुडरीकतीर्थ एहवं विख्यात थयुं / 3 / ए श्री सिद्धाचलनो महिमा मोटो जाणीने श्री भरत चक्रवर्तिः संघ काढिने श्री सिद्धाचलजीइं आव्या। श्री सिद्धाचलजी उपर चढतां अनंत चौवीसी ना प्रथम केवलज्ञानी नामे परमेश्वरजीनी पादुका अने कुंड ते जरा जिण देखीने भरतचक्रीई इंद्रे महाराज ने पुछु, "जे पादुका अने कुंड जिर्ण किम छे?" तिवारें सौधर्म इंद्रे कहुं, "जेण अतित चोवीसी थई गई, श्री केवलज्ञानिः नामा तिर्थंकर थई गया, तेहना पगलां अने भरत राजानो कुंड छ। ए घणा कालथीः जराजिरण थई गया छः।" इंद्रना मुखथी एह साभलिः कुंडनु नाम भरत थयुं। 1. मूल पाठ में 1 से 3 नम्बर दिये गये हैं। बाद में मूलपाठ में नम्बर 7 से 11 दिये हैं। नम्बर 4 से 6 मूल पाठ में उपलब्ध नहीं हैं। पटदर्शन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहांथी वलि आगलिं चाल्या। श्री सिद्धाचलजी उपरे चडि उद्धार कराव्यो। नावो प्रसाद श्री ऋषभ तातजीनो कराव्यो। इंद्रमाला पेंहरी श्री श्रीपुंडरिक गणधरनी थापना करी। रायण हेठलें श्री ऋषभजीनी पादुका थापि प्रदक्षणा करीनें बिजी पण सर्व जथोचित करणी करी। तिवार पछी श्री गिरनार तिर्थे जावाना अभिप्राय भरत राजाना थया। एहवें नमी-वनमी विद्याधर मुनि भरत पासे आवीने इंम कहुं, "जे अमने मोक्ष पद श्री सिद्धाचलजी उपरे कह्यु छ।' तिवारें भरते ते मुनिने का, "जे आत्मानी कार्यसिद्धी थाई तिम करो।" तिवारे ते बिहं राजंद्र मुनिइं बे मासनी संलेखणा करीः फागुण श्रुदि दसमने दिवसे बे कोडि मुनिराज संघाते सिधवधु वस्या। वलि भरतराजा सेत्रुजी नदीइं नाह्यां। ते नदिने कांठे च्यार दीसें च्यार दिसें च्यार वन छे। पूर्व दिसे सुर्यवन / 1 / पछिम दिसें चंद्रवन / 2 / दक्षण दिसें लक्षमि वन / 3 / उत्तर दिसें कुसुम वन / 4 / ए च्यारें वननी सोभा जोतां आगले च्याल्या। तिहां आगलें जातां एक जटाधारि तापस बेठों छे। तेहने भरतराजाई पूर्छ, “जे तुमें इहां किम बेठों छे?" तिवारें तापस कहे, "मुझनें श्री ऋषभदेवजीइं कर्तुं छे, जे श्री चंद्रप्रभु आट्ठमा तिर्थेसर ने वारें आ तिर्थे तुं सिध पद वरिस। ते माटे हुं इहां बेठो छ।" ते वात सांभलिने ते थानकें श्री चंद्रपभुजीनुं प्रसाद भरतराजाई कराव्योः। वलि आगलि चाल्या। एहवें नमी-वनमी विद्याधरनी चोसट्ठ पुत्रीओ चर्चा आदे देइने अणसण करी मोक्ष गई। केतला एक चार्य इंम कहे छे, जे देवंगना थई तेहनी तिहां थापना भरत राजाइं करी। तिवारें चर्चगिरि एहवू नाम थयुं। वलि आगलि चाल्या। जाता-जातां मार्गने विषे एक गिरिनो सिखर आव्यो। तिवारे सक्तिसिंह एहवें नामे तापस छे / ते भरतराजानो भत्रिाजो छे। ते सक्तिसिंह ने भरत राजाई पूडूं, "जे आ सिखर ते सुं छे?" तिवारें सक्तिसिंह कहे छे, "कदंबगिरि नामा पर्वत छे। ए पिण श्री सिद्धाचलजी टुंक छ। अतित चोवीसीइं बिजा तिर्थंकर निर्वाण नामा भगवान, तेहना गणधर कदंबरिषी एहवें नामें तेहंने भगवानें इंम कडं, "जे तुमनें इणे खेत्रे सिधपद छे, ते वात सांभलिने कदंबरिषी पोताना परिवार सहित श्री सिधाचल उपरें अणसण करी, कर्म क्षय करी मोक्ष वरया। तदा कालथी ए पर्वतनूं नाम कदंबगिरि थयु।7। वलि आगलिं चाल्या तिहां एक टुंक आव्यो, तिवारें सक्तिसिंह ने वलि पुछु भरते, "आ कुण पर्वत छ?" तिवारें सक्तिसिंह कहे, "ए तलाध्वज नामें गिरि। ए पर्वते बाहुबलिजि मोक्ष पधाऱ्या छ, तिहां भरते बाहुबलिजी नो प्रसाद कराव्यो, तथा कालथी बाहुबलटुंक केवराणो। नमो तिथसयस्य।8। वलि आगलि चाल्या, एहवें एक पर्वत सतुदि तिहां दीठो। तिहां भरतराजा पूर्वे उत्तरि घंटखंड साधवा गया ता। तिहां मलेछ राजाई रोग मुक्या तिवारें मनूष्य घणा मरवा लागा। एहवें अवसरें कोइक चारण मुनि तिहां आव्या। ते मुनीइं पुछु, "जे आवडा म विना किम मरे छे?" तिवारे भरतराजाई कह्यु, "हे स्वामि! कांई खबर पडती नथी।" तिवारे मुनी कहे, "हे मलेछनें राजाइं रोग मुक्यो छे, ते कारणे। आ नदिना पाणीना सपरस थकी रोग जासें।" एतलूं कहीने चारण मुनि गया। ते सांमलिने ते नदीना पाणीथी सर्व नाह्या। सर्व सैन्य निरोगि थयो, पिण भावी प्रतें चाले नहीं। पीण एक भरत राजानो इष्ट हाथी हतो, ते तिहां काल प्राप्ति थयो। तिंहा भरतराजाई हस्तिनागपुर गाम वसावं। तिहां श्री ऋषभदेवनो प्रसाद कराव्यो। तदा काले हस्तिकल्प नामें तिर्थ प्रवत्रयु। नमोतिथयस्सय।। तिहांथी गीरीनारे प्रर्वते आव्या। तिहां श्रीनेमनाथना त्रिण कल्याणक छे, उद्धार करयो। तिहां श्रीनेमीश्वरजीनो प्रसाद कराव्यो। तिवारें श्री गीरनार तिर्थ प्रवत्त्यु। च्यार दिसे च्यार पर्वत छ। ते उपरें च्यार प्रसाद कराव्यां। तिहांथी बरडो नामां पर्वत देखाई छ। ते बरडा पर्वतने विषे बरडा नामा राक्षस्स रहें छे। ते संघने तथा प्रजा उपरें उपद्रव घणो करें छे। तें कोईनें वस्य आवतो नथी। ते वात सांभली भरतराजाइं सुषेण नामा पोतानोः सेनानी मोकल्योः / ते सेनानी बरडा राक्ष(स) ने जितिनें सक्तिसिंहनें पगें लगाड्यो। भरतराजाई बरडाने उपदेस देइनें समकित पमाडूं। तिहां भरतराजाई प्रभुजीनो प्रसाद कराव्यो। तिहां बरडागिरी एहवें नामें तिर्थ प्रर्वत्त्युः / 101 पटदर्शन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहां बरडा राक्षसने सोरट्ठ देसनो अधिष्टायक थाप्यो। तिहांथी भरतराजा आंसू ई आव्या, तिहां परमेश्वरनो प्रसाद कराव्यो। तिहांथी समेतसीखरें आव्या। तिहां परमेश्वरना परसाद कराव्या। इंम अनेक भरतराजाई तिर्थ थापना कीधी। प्रथम उधार भरत राजानोः। नमो सिधचल नमोनमः / 11 / / ए श्री सिद्धाचल वर्तमान चोवीसिंइं श्रीऋषभनो पुत्र द्रवणजी, तेहना बे पुत्र द्राविड-वारिषेल। ते बिहू भाई राज्यनें अर्थे कलेस करतां थका, चोमासुं आव्यु, तिवारें संग्राममां दस कोडि माणस क्षय थयुं। तेहवें सरद रीतु आवी, तिहां गंगातिरे तापसना उडवडा छे, तापस गुरुनें पगे लागवा गया। तापसना मुखथी वाणी सांभलि, प्रतिबोध पामी बे भाई तापस दस कोडि संघातें थया, ते वननें वीषे चारण मुनि आवी समोसस्यां। तिहां चारण मुनिना मुखथी श्री सिद्धाचलजीनुं माहतम सांभलि चारण मुनिना मुख थकी श्रीसिधाचलजी, माहतम सांभलि चारणमुनि संघातें श्री सिद्धाचलजीइं आव्या। आवतां मार्गमां घणा हंस एक तलावनें कांठे एकट्ठा थया छ। ते मध्ये एक वृध हंस सक्तिई मंद छे, ते तीहां रह्यो छे। बिजा सर्व मनूषनो पगरवो सांभलिने उडि गया। ते वृद्ध हंस छेलि अवस्ताई आव्यो। तेहने मुनिइं पाणि पाउं। तिहाथी हंसने साथे लीधो। ते हंसने सिद्धाचलजी उपरें अणसण कराव्यु। ते अणसण आराधीने आठमें देवलोकें देवता थयो। तिहांथी अवधिज्ञाने जोउं। श्री सिधाचलजीनो उपगार जाणी, श्री सिधाजलजी आवी नवो प्रसाद कराव्यो। तदाकालथी हंसावतार एहव नामें तिर्थ प्रवा। ते सिधाचलजीनो महात्तम देखी, चारण मुनि पासे चारित्र लेई सिद्धाचलजी उपरें अणसण करी कार्तिक शूदि पूनिम दिनें दसकोडि संघाते श्रीसिद्धाचलजी उपरें मोक्ष गया। नमोस्तुः श्री सिद्धांचलः, विमलाचलाय नमः। इति श्री ऋषभदेवनो वर्णव संपुर्णः। श्रीः / श्रीः / हिन्दी अनुवाद 1. ऋषभदेवजी श्री ऋषभदेवजी को नमस्कार। श्री सरस्वती-शारदा देवी को नमस्कार। श्री पुंडरीक गणधर को नमस्कार। श्री विमलाचल तीर्थ पर अतीत काल में अनंत भव्य जीवों ने आठ कर्मों का क्षय करके निरावरण रत्नत्रयी-केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलचारित्र इत्यादि अनेक गुण प्रकाशित करते हुए सिद्ध पद प्राप्त किया था, करते हैं और करते रहेंगे। वर्तमान चौबीसी में ऋषभदेव भगवान ने अव्याबाद्य सुख के लिए भव्य जीवों को सिद्धाचलजी का माहात्म्य प्ररूपित किया है। ऋषभदेवजी अशरण के लिए शरण-आश्रय स्वरूप, भव-भय हर्ता, भव्य जीवों को संसार समुद्र से तारने के लिए नाव के समान हैं। अज्ञान रूपी तिमिर को मिटाने के लिए सूर्य के समान है, भवरूप अटवी पार कराने के लिए सार्थ समान है। कर्म रूप रोग का निवारण करने धनवंतरी वैद्य समाय है। कषाय रूप अग्नि शांत करने पुष्करावर्त मेघ समान है। भगवान ऋषभदेव पृथ्वी को पवित्र करने के लिए, जीव रूप कमल को सुविकसित करते हए, भव्य जीवों को धर्मवाणी से प्रकाशित करते हुए अपने 84 गणधर, 84 हजार मुनिराज और समस्त चतुर्विध संघ परिवार के साथ सिद्धाचलजी पर पधारे उस समय चार निकाय के देव, चौसठ इन्द्र सब एकत्रित हुए। श्री ऋषभदेव स्वामी ने अपनी देशना में सिद्धाचलजी का माहात्म्य प्ररूपित किया। उस श्री सिद्धाचल के माहात्म्य को सुनकर उन अनेक जीवों ने परमानंद को प्राप्त किया। परमेश्वर का बहमान किया तथा अपनी भव्य जीवों को परम पद प्रदान करने वाला स्थान शत्रुजय हैं। आत्म पूछा। वे भव्य जीव ऋषभदेवजी की वाणी से प्रतिबोधित होकर स्वयं शरीर से निर्मोही बनकर, संसार त्याग करके, चारों प्रकार | के आहार त्याग-अनशन व्रत अंगीकार करके, सकल कर्म क्षय कर अजरामर-सुख-मोक्ष प्राप्त किया। अनुक्रम में विचरण करते अतीत काल में श्रीऋषभदेव सिद्धाचल पधारें। प्रथम गणधर पुंडरीकजी ने प्रभु से सिद्धाचल की। महिमा पूछी। प्रभु ने निर्देशित किया कि आपके आत्मा की सिद्धि यहां इसी स्थान पर है। पुंडरीक ने अपने अन्य पांच करोड़ - पटदर्शन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों के साथ अनशन व्रत के साथ एक मास की संलेखना से अपने समग्र कर्मों का क्षय किया और चैत्रमास की पूर्णिमा के दिन मोक्ष प्राप्त किया, तभी से उसी स्थान ने पुंडरीकतीर्थ नाम अभिधारण किया। भरत चक्रवर्ती ने चतुर्विध संघ के साथ सिद्धाचलजी की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में केवलज्ञानी नामक परमेश्वरजी के पादुका और कुंड जीर्ण देखे। उन्होंने इंद्र महाराज को पादुका और कुंड के जीर्णत्व के बारे में पूछा। सौधर्म इन्द्र ने निराकरण करते हुए निर्देशित किया, "यह अतीत चौबीसी के केवलज्ञानी नामक तीर्थंकर की पादुका और कुंड है, जिससे जीर्ण है।" भरत चक्रवर्ती ने उसका पुनरोद्धार किया, तभी से यह कुंड भरतकुंड नाम से प्रचलित है। अनुक्रम में वहां से प्रस्थान करते ऋषभदेवजी के नये मन्दिर का निर्माण करवाया और वहां पुंडरीक गणधरजी की स्थापना की। रायण (राजद) वृक्ष नीचे ऋषभदेवजी की पादुका का यथोचित विधि-विधान से स्थापन किया। वहां नमिविनमि विद्याधर मुनियों ने भरत राजा से निवेदन किया कि ऋषभदेवजी ने हमें अपने आत्मोद्धार के लिये यहां रहने का आदेश दिया है, तभी राजा भरत ने भी अपनी स्वीकृति दे दी। दोनों राजेन्द्र मुनियों ने दो मास की संलेखना के बाद फाल्गुन सुदी दशम के दिन दो करोड़ मुनियों के साथ सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त किया। राजा भरत शत्रुजय नदी पहुंचे। वहां विधिवत् सान किया। नदी की चारों दिशाओं में चार वन हैं। पूर्व दिशा में सूर्यवन, पश्चिम दिशा में चंद्रवन, दक्षिणा दिशा में लक्ष्मीवन और उत्तर दिशा में कुसुमवन। चारें वनों का सौन्दर्यपान करते हुए आगे एक तापस को अकेला देखा। भरतजी ने उससेह्न "अकेला क्यों बैठा है?" इस विषयक पूछा। तापस ने दर्शाया कि ऋषभदेवजी ने आदेश दिया है, "आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु के शासन में यहां से ही मैं सिद्ध पद प्राप्त करूंगा। इसलिए मैं यहां हूं।" भरत राजा ने वहां चंद्रप्रभुजी के प्रासाद का निर्माण कार्य किया। थोड़े आगे नमी-विनमी विद्याधर की कनक-चर्चा इत्यादि 64 पुत्रियों ने अनशन व्रत ग्रहण करके वहीं से मोक्ष प्राप्त किया है। अन्य मतानुसार वहां देवांगना हुई है। चक्रवर्ती भरत ने उनका स्थापना कार्य किया। तभी से यह स्थान चर्चगिरि नाम से प्रचलित है। आगे चलकर गिरि शिखर पहुंचे। भरत नृप शक्तिसिंह तापस से मिले। नृप भरत ने शक्तिसिंह से शिखर विषयक पूछा। शक्तिसिंह ने दर्शाया कि अतीत काल के दूसरे निर्वाण नाम के तीर्थंकर के शिष्य कदंब ऋषि ने सपिरवार इसी स्थान से अपने समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्धत्व प्राप्त किया है। तभी से यह शिखर 'कदंबगिरि' नाम से सुविख्यात है। आगे चलकर एक टोक पहुंचे। शक्तिसिंह ने उसी का नाम तलाध्वज गिरि दर्शाया। मुनि बाहुबलीजी ने इसी स्थान से मोक्ष पद प्राप्त किया था, जिससे आज वह 'बाहुबल टोक' नाम से प्रचलित है। वहां से उसी स्थान पहुंचे, जहां से चक्रवर्ती भरत उत्तरषट्खंड विजयी घोषित हुए थे। मलेच्छ नृप ने वहां रोग का उपद्रव फैलाया था, जिससे अनेक लोगों ने मृत्यु प्राप्त की थी। भरत राजा ने चारण मुनि से इस विषयक वार्ता की। चारण मुनि ने कहा कि, "यह रोग मलेच्छों ने फैलाया है। मगर इस नदी के पानी के स्पर्श मात्र से यह सभी रोग दूर हो जायेंगे।'' इससे समग्र सैन्य और प्रजा उसी पानी से निरोगी-स्वस्थ हो गये। भरत राजा के एक हाथी ने वहां से काल प्राप्त किया तो भरत राजा ने वहां हस्तिनागपुर नामक गांव प्रस्थापित किया और उसी में ऋषभदेवजी के मंदिर का निर्माण कार्य किया, जिससे हस्तिकल्प तीर्थ नामक तीर्थ की स्थापना हुई। अनुक्रम में गिरनार पर्वत पहुंचे। वहां नेमि जिन के तीन कल्याणक हैं। वहां नेमि जिन के प्रासाद का निर्माण कार्य करवाया। वहां चारों दिशाओं में चार पर्वत हैं। वहां भी चार मंदिर का निर्माण करवाया। वहां एक बरडा नामक पर्वत है। जो बरडा राक्षस का निवास स्थान है। वह राक्षस प्रजाजन, संघ को उपद्रव-अत्याचार से परेशान कर रहा था। किसी से अंकुशित नहीं हो रहा था। नृप भरत ने अपने सुषेण नामक सेनापति को भेजा। सुषेण ने बरडा को पराजित किया। भरत नृप ने उसे प्रतिबोधित करते हुए सम्यक्त्व प्राप्त करवाया। जिससे नृप भरत ने उसी स्थान को राक्षस की स्मृति में बरडागिरि नामकरण दे दिया। बरडा पटदर्शन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को सोरठ देश के अधिष्ठायक यक्ष पद पर नियुक्त किया। अनुक्रम में विचरण करते हुए समेत शिखर पहुंचे। बीच में अनेक स्थानों पर जिनमंदिर, जिनबिम्ब की स्थापना की। उन्होंने अपने शासनकाल में अनेकविध तीर्थों की स्थापना की और पुराने तीर्थों का जीर्णोद्धार करवाया। इस तरह प्रथम जीर्णोद्धार चक्रवर्ती भरतजी का है। वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवजी के एक पुत्र का नाम द्रवणजी था। उनके द्राविड और वारिषेल(ण) दो पुत्र थे। दोनों राज्य के लिए परस्पर क्लेश कर रहे थे। चातुर्मास के समय ही भीषण युद्ध हुआ। परस्पर दोनों भाइयों ने एक-दूसरे के सैन्य का विनाश किया और दस करोड़ मनुष्यों का क्षय हुआ। नजदीक में तापसों के आश्रम थे। दोनों भाई द्राविड और वारिषेल(ण) तापस वृंद के वंदनार्थ गये। वहां उन्होंने मुनियों से धर्मोपदेश सुना। उनका हृदय परिवर्तन हुआ। श्रावक के व्रत अंगीकार किये। तापसों से सिद्धाचलजी का माहात्म्य सुना। दोनों मुनियों के साथ सिद्धाचलजी पहुंचे। मार्ग में तालाब किनारे हंसों का झुण्ड देखा। उनमें एक वयोवृद्ध हंस था। अन्य हंस मनुष्य के पैरों की आहट से ही स्वरक्षार्थ दूर हो गये, मगर वृद्ध हंस चलने-उड़ने में अशक्त था। मुनि ने अपनी करुणा से उस वृद्ध हंस की सेवा की। उसे पानी पिलाया और अपने साथ सिद्धाचल ले गये। वहां उसे अनशनपूर्वक अंतिम आराधना करवाई, जिससे उसने आठवें देवलोक में स्थान प्राप्त किया। अवधिज्ञान से सिद्धाचलजी का ऋण-उपकार पहचाना। उसने वहां एक जिनमंदिर का निर्माण किया और वह तीर्थ हंसावतार नाम से प्रसिद्ध हुआ। दोनों भाइयों ने भी चारणमुनि से चारित्र ग्रहण किया। आमरणांत अनशन व्रत अंगीकार करके दस करोड़ मुनियों के साथ उन्होंने भी परम-पद मोक्ष प्राप्त किया। श्री सिद्धाचल, विमलाचल को बारंबार प्रणाम। प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी को भक्ति-भाव पूर्वक वंदन। Transliteration //O// SriRsabhadevaji namo namah // SriSaradaya namah // SriPundarika-ganadharaya namah // SriVimalacala-tirtha namah // SriVimalacala-tirtha nem visem atita-kalem ananta ananta je bhavyajiva, te atha karma ksaya kari, niravarna ratna-trai je kevala-jnana, kevala-darsana, ksayaka samakitah, bija pana aneka-guna pragata karinem, sriSiddhadri-parvata pharasinem sriSiddha-pada ananta jive pamya сhem, pame chem ane vali pamasyem, avyabadha susa pratem pina havanam to varttamamna covisi mam sriRsabhadeva-svamiim upagara janinem bhavya-jivo nem/ sriSiddhacalaji no olasana karavyum chem. SriRsabhadeva-svammih asarana sarana, bhava-bhaya-harana, bhavya-jivo nem tarava pota-samamna chem, ajnana-rupi tamara talava nem arthe arka-samamna, bhava-rupa-atavih para utarvanem sartha-samamnah, karma-roga talava ne Dhanantara-vaidya-samamna, kasaya-ruagnih talava nem puskaravarta-megha-samamna, prathavi pavana karava bhavya-jiva-rupa-kamala-vikasvara karata, bhavya jivo nem dharma-vani prakasa karata // grame eka rayam, nagare pamca rayamh vihara karata corasi ganadhara, corasi hajara mumniraja, samatha caturvidha-samgha parivara-sahita sri Vimalacala-parvatem samosarya. tivare cya(ra) nikaya na devatah, cosatthi indra sarva bhela mali, srisabhadeva-svamiim dharma-desana nem visem sri Vimalacala-parvata num mahatama-svarupem prarupum. te sriSiddhacalaji num mahatama te ghana jiva bhavem sambhaline paramananda pammata, paramesvaraji num bahu-mamna karata, pota ni atama ni karya-siddhi num svarupa puchata, ghana asamkhya-jiva paramesvaraji na musa-kamali ni vani sabhali je "tumaram atma ni karya nipatti sriSiddhacala tirtha uparem chem", te vamni sambhalinem ananta bhavya-jiva sarira upare thi murccha utarinem samsara thi vimusa thai, cyara (arhara =) ahara chadih, anasana kari, sakala karma-ksaya kari, ajara-mara Susa nem varata hava // 1// vali Sri e Sidhacala-parvata nem visem atita kalem sriKevalajnani-Ni(r)vani- pramusa covisa ariha paramesvara pragata kahem // 2/1 10 पटदर्शन Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sriSiddhacalaji nama tirtha nem visem varttamana-kalem sriRsabhadeva-bhagavamn sriSiddhacalem padhyarya. tiham sri Vitaragem Siddhacala-parvata num mahatama prasasta visesa varnavum. te sambhalinem sriPudarika-rajiim puchum. sriksabhadevem kahyum "he Pundarikaganadhara, tumara atma ni karya nih sidhi a ksetra nem visem chaim". tivarem Pudarika-ganadharem para(me)svara na musa thi vamni sambhali ehavi sriparamesvaraji nem puchum. tare sriSiddhacalaji nam mahatma sava lasa varnavyum. tivarem sribhagavanta ne puchinem sriPundarikajiim pamca kodi muni samghatem anasana kari, eka masa ni samlesana kari sakala karma-ksaya kari, Caitri-punima na divasa nem visaim sriRsabhadeva na tirtha naim visem moksem gaya. tada kala thi sriSiddhacalaji num nama Pudarika-tirtha ehavam visyata thayum // 31/ e sriSiddhacala no mahima moto jamnine sriBharata-cakravarttih samgha kadhinem sriSidhacalajiim avya. sriSidhacalaji upara cadhatam ana(m)ta cauvisi na prathama Kevalajnani namem paramesvaraji ni paduka anem kunda te jara-jirna dekhinem Bharata-cakriim indrem maharaja nem puchum je paduka anem kunda jirna kima chem?". tivarem Saudharma-indrem kahum "jena atita covisi thai gai sriKevalajnanih nama tirthamkara thai gaya, teha na pagalam anem Bharata-raja no kunda chem, e ghana kala thih jara-jirana thai gaya chemh". indra na musa thi ehavum sabhali kunda nu namma Bharata thayum. tiha thi vali agali calya. sriSidhacalaji uparem cadi uddhara karavyo, navo prasada sriRsabhatataji no karavyo. indra-mala pehari srisriPundarika-ganadhara ni thapana kari. Rayana hethalem srisabhaji ni paduka thapi. pradaksana karinem biji pana sarva jathocita karani karih, tivara pachi sriGiranara tirthem java na abhipraya Bharata-raja na thaya. ehave Nami-Vanami vidyadhara mumni Bharatta pasem avinem imma kahumh je "ama nem moksapada sriSidhacalaji uparem kahyum chem". tivare Bharatem te munim nem kahyum je "atma ni karyasiddhi thaim tima karo". tivarem te bihum rajamdra-mumniim bem masa ni samlesana kari. Phaguna sudi dasama nem divasem be kodi muni-raja samghatem siddha-vadhu varya. vali Bharata-raja Setrumji nadiim nahyam. te nadi nem kanthem cyara disem. cyara disem 4 vana chem: 1) purva-disem Surya-vana, 2) pachima-disem Candra-vana, 3) daksana-dise Laksami-vana, 4) uttara-disem Kusuma-vana. e cyare vana ni sobha jota agalem cyalya. tiha agalem jamta eka jata-dhari tapasem bemtho chem. teha nem Bharata-rajaim puchum je "tumem iham kima betha cho?". tivare tapasa kahem "mujha nem eriRsabhadevajiim kahyu chem je 'sriCandraprabhu atthama tirthesara nem varem, a tirthe tum sidha-pada varisa'. te matem hum iham betho chum". te vata sambhaline te thanakem sriCandraprabhuji num prasada Bharata-rajaim karavyo. vali agalim calyah. ehave Nami-Vanami vidyadhara ni cosattha putrio Carca ade deinem anasana kari, moksa gai. ketalaeka acarya ima kahem chem je "devamgana thai teha ni tiham thapana Bharatarajaim kari". tivarem Carcagiri ehavum nama thayu. vali agalim calya, jamtam 2 marga nem visem eka giri no sisara avyo. tivarem Saktisiha ehave namem tapasa chem. te Bharata-raja no bhatrijo chem. te Saktisiha nem Bharata-rajaim puchum je "a sisara te sum chem?", tivarem Saktisiha kahem che "Kadambagiri nama parvata chem. e pina sriSiddhacalaji tumka chem. atita covisiim bija tirthamkara Nirvamna nama bhagavamnah. teha na 1 Up to this point paragraphs have been marked in the document by numbers going from 1 to 3 at the end. They are again marked from 7 to 10, but numbers 4 to 6 are missing. पटदर्शन 11 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ganadhara Kadamba-risi ehavem namem, tehu nem bhagavamnem imma kahyum je 'tuma nem imnem khetrem siddha-pada chem". te vata sambhalinem Kadamba-risi pota na parivara-sahita sriSiddhacala upare anasana kari, karma-ksaya kari, moksa varya, tada kala thi e parvata nu nama /Kadamba-giri thayum /7/ vali agalim calya. tiham eka gumka avyo. tivarem Saktisiha nem vali pumchum Bharatema kumna parvata chem?" tivarem Saktisiha kahem "e Ta=a?)ladhvaja namem giri. e parvatem Bahubaliji moksa padharya chem". tiham Bharatem Bahubaliji no prasada karavyo. tatha kala thi Bahubala tumka kevaranoh // namo tithasayasyah //8// vali agali calya. ehavem eka parvata Satudi tiham dithoh. tiham Bharata-raja purve uttari sandasanda sadhava gayata. tiham malecha rajaim roga mukya. tivare manusya ghana marava laga. ehavem avasarem koika carana-mumni tiham avya, te muniim puchum je "avada manusya samgrama vina kima mare chem"?. tivarem Bharata-rajaim kahyum "he svami, kaim sabara padati nathi". tivarem mumni kahem "he Bharata-rajan, malecha nem rajaim roga mukyo chem. te karaneh. a nadi na pamnina saparasa thaki roga jasem". etalum kahinem carana-mumni gaya. te sam(bha)line te nadi nam pani thi sarva nahya. sarva sainya nirogi thayo. pina bhavi pratem calem nahim. pina eka Bharata-raja no ista hathi hato. te tiham kala-prapti thayo, tiham Bharata-rajaimh Hastinagapura-gama vasavumh, tiham sriRsabhadeva no prasada karavyo. tada kalem Hastikalpa namem tirtha pravarttyum // namo tithayassa //9/1 tiham thi Girinare pravartte avya. tiham sriNemanatha nam trina kalyanaka chem. uddhara karyo. tiham sriNemisvaraji no prasada karavyo, tivare sriGiranara-tirtha pravarttyum. cyara disem cyara parvata chem. te uparem cyara prasada (k)aravya. tiham thi Varado namam parvata desaim chem. te Barada parvata nem visem Barado nama raksassa rahyem chem. te samgha nem tatha praja uparem upadrava ghano karem chem. te koinem vasya avato nathi. te vata sambhali Bharata-rajaim Susena nama pota noh senani mokalyoh. te semnamni Varada-raksa(sa) nem jitinem Saktisiha nem pagem lagadyo. Bharatarajaim Barada nem upadesa deinem samakita pamadum. tiham Bharata-rajaim prabhuji no prasada karavyo. tiham Baradagiri ehavem namem tirtha pravarttyumh // 10/1 tiham Varada raksasa nem Sorattha-desa no adhistayaka thapyo. tiham thi Bharata-raja Asuchuim avya. tiha paramesvara no prasada karavyo. tiha thi Sameta-sisare avya. tiham paramesvara na parasada karavya. imma aneka Bharata-rajaim tirtha thapana kidhi. prathama uddhara Bharata-raja noh // namo Sidhacala namo namah //1// e sriSiddhacala varttamana-comvisiim sriksabha no putra Dravanaji, tehana be putra Dravida Varisela (= Varisena), te bihum bhaim rajya nem arthem kalesa karata thaka comasum avyum. tivarem samgrama mam dasa kodi manasa ksaya thayum. tehavem sarada-ritu avi. tiham Gamga-tirem tapasa na udavada chem. tapasa guru nem pagem lagava gaya, tapasa na musa thi vamni sambhali, pratibodha pami, be bhai tapasa dasa kodi samghatem thaya. te vana nem visem carana-muni avi samosaryah. tiham curana-muni na musa thi sriSiddhacalaji num mahatama sambhali carana-muni na musa thaki sriSiddhacalaji num mahatama sambhalicarana-muni-samghatem sriSiddhacalajiim avya. avatam marga mam ghana hamsa eka talava nem kanthem ekattha thaya chem. te madhye eka vrdha hamsa saktii mamda chem. te tiham rahyo che. bija sarva manusa no paga-ravo sambhalinem udi gayam. te vrddha hamsa cheli avastaim avyo. teha nem muniim pani paum. tiham thi ha(m)sa ne sathe lidhom te hamsa nem Siddhacalaji uparem anasana karavyum. te anasana aradhine athamem deva-lokem devata thayo. tiham thi avadhi-jnanem joum. sriSidhacalaji no upagara jani sriSidhacalaji avi navo prasada karavyo. tada kala thi Hamsavatara ehava namem tirtha pravarttum. te Sidhacalaji no mahatama desi caranamuni pasem caritra lei, Siddhacalaji uparem anasana kari, Karttika sudi punima-dinem dasa kodi samghatem sriSiddhacalaji uparem moksa gayah // namo stuh // sriSiddhacala // Vimalacalaya namah / iti sriksabhadeva no varnava sampurnam // srih // sri. 12 पटदर्शन Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथजी बीजाचीअजिमनाथपरमेश्वजीनेंपरिणामहोजोर 2. Sri Ajitanathaji पटदर्शन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ now नीसिधाचानजीप अजितनाथपरमेश्वरजीःचामा सरयातिहासाधयिोनायोतानोसिध्यसायोमासी नो सेबानलेश्रीसिधावलजीनपरोपकजिनानिया बएस्खेमध्यानसमेंथया मुनीनकन्नाजनमुकीनधि सामबेहाएहो-प्रकसमाताकागकपमा मारिए स्नीगयुमनिकषायथ्याना तिवारंमुनिइंकारामासः रापदीधोजारे पुष्टयापीपंधीतारसंश्होकामनहातदान कानीएमीर्थपरधीकाकोगया।मुनिविचारुन मारापरणामबगया। लिमबीजायकोयनाबरातिस संमहामासदायकासुंरिपोतदाकानिधीतका: संग उलघामोलय एअजितनाथपरमेश्वरजीनाच्या तिम प्रीमंकामारीकार्यत्रीसिधारहांगझनीलियअयासः हाकरीमोगयागशिकारपबिअजितनाथपरमेश्वरजीना: समवसरणानधनाथलसमवसरणाने विविसीनेदेसना कहाधमेटेसनासामलीअकशेषिवितरागमीवोगा. चितविधप्राणिशापतिबोधामीचारित्रलेईसकलकर्म यकरीपापरामपणाम्यानमोनीअजितायनमा प्रिसिधाचलेंविधेसारचक्रवन्निी लेऊनामिन मासाहमार लेसाक्षकवन नी-आकामागीने-मक्षा शादतिर्थे मोतातेतिर्थमीजाबाकरी घणयाम्या अ जांजे माग पंचमकातविषम एतलामाति मियाघाश्रोइंसोतिष्टीनं रोषाएंथाईएहविचारि नतेफरलंकरीना-प्रष्टापanaarDीहजारजोजनाएका नाबाश्कशतेषायादतीनियमतिनावतानानवः ननेंविधउपायावालागोनिवारंवनयविनादेवन कोपायमानयावालागातिवारेएककोरेजोयतो-अष्टायद लिएककोरेसगरचक्रवर्तनापुत्राएवोक्विारीनंकोयस माघीमें जिऊ मरमा-आदिनकऊ देराजमुत्रोलहवेंधाई बादसोना। मारानुचननेंविधांउपश्च्यथाईमकील किचनपतिनावताकाणेगयातिवारपजिजिक्छ मविचारूंजेषाइतोकेतलेंककाबुण्यातलाबाटेंया एहोईलोमविद्यारिहरन्कशीगंगानदीनाप्रघात बाल्यो। तिषाशराणी लिरिकचनपतिमाघरधिषे याणीनोउपायथयोनिधारेनागऊमारदेवदताकोया यमानधनगनिज्वालाकरीनाबालिस्मकस्थान पटदर्शन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिवारंधाने लोकेंवीचारकस्यो जेवेचक्रवन्तिम नेसंमषदेषामा तेमापायास सैन्यच्यष कीनेबलीमरी एहवेळेअवझानेजोजेमाराअनर घाटातोदेवीनगरकाबाशप्रारूपकरीसकर प्राचीनात्मसकरनेसनकाची सैन्पले अज्पाध्याच्या वी-धिपेनें रुपयुवकलेवरखंधेलेईनगरप्रावी चक्रवन्निनारुपा दरबारेंनजिकमावी विलापकरखा लागो विनापसोनलिनेचिकनन्सियोतेवामापासेाव्या बाह्मणमुर्छः तिवारंवाझगाकयुमाहरमूत्रएकते एकउपायबरयो जोऊमाराभस्ममललोरापुत्रसजीवनथ येतोषजापालचकवनिमुफमेनस्मपदासका करीमाघ तिचारसगरचकवनिविपन्नलईनगरमाफिरे उमारिरायकिरायनमिशिनारसगरचकवर्जिक ॐ माहराघरमाऊमारिरी निवासगरना माताक: आपयाघरमीराधा कुमारीनाथ तिवारेमघगो विमाएकरवानागोति बारें सगरचकति अनित्यनामाकरीसमकावालागो नि वारेविनवोन्या समकानसाहितपसमा फदो हिनिवारेसगरवानिकहे एबीऊंचा तसोहि नीए स्वीचासकरखें। एहचानासाहमारा सुचनोन्त्र नावच यानीघबर-आधी तिवारंपाता: पूनस्वरू यपाठः किचाचकवलिमसमकाएतले मिनाथ रिहार-मादीसमासस्वा एखवधामणीसानि चकवा इसहासनावीनीचीतरागवादिधर्म सासन वाबेला विहादेसनामा श्रीधीतरागेनीवामसों चन महामवळि नीवीतरागनीवासीसा लिची सनथ्युश्री सिशचनजीनेखानेपथ घसहित नियमहलीघघरमा गंगानदी नापवादमागरदेशमाएगा तिवारराजन ऊमाना पुत्रानगीरथ हाहाकरीसगरचकचलिस घसरितानीसिघातनजीमाब्यासिनोहारकीधोएर खानतीकरीजेश्वीमिछाचलं जीजेएअननतिर्थ। अनेअर्विकालताविषमरतलामासमुहल्लायोतो थनोरखाथाशएनागरथयणगंगा काणेकश्चिा व्या स्वस्तीकदेवताकमकस्योपरि सिघाडीपया पटदर्शन 15 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैलाबो लिवारें स्वस्तिकदेवतादरीजलेमें श्रीविमलावला जानियागा तिवारसागरनेचिनातीकरीरिखा वाईदरीवासगावेगनोरहो एवाश्रीअनिवनाथने वारंसगरचकवर्मिसंघकाहीनेउछारकस्यो श्रीप्रमिनापक श्रीसिहाचाननिथी विहारकरसाहावा योतामुसासनसिंहसे नयमपाधएकलामसाकफान्गुणधमधएक लापत्रासहजार साधवी बेलाष पहजारमाधक पांच नाष चोपनजाराविना साहायाराधनषदेहमा बो दस्त्रयरुपमधात शिकानिधीरजाप्रसमसाथंग्राम मिषरनपरेसिधिपदबस्वाभाएवाप्रीअतितनाथबि जापरमेस्वरीनावावासावाऽनुनमस्कानीमुत्रि गिरीश्रीविमलाचान्नागिरीन मोनाम:श्रीश्रीश्री बीजा श्री अजितनाथ परमेश्वरजी में परिणाम होजो।2 श्री सिद्धाचलजी उपरें अजितनाथ परमेश्वरजीः चोमासु रह्या। तिहां सुधर्मा एहवें नामें पोतानो शिष्य साथे पाणीनोः संबल लेई श्री सिद्धाचलजी उपरें प्रभुजिनां दर्शननें आवे छे। एहवें मध्यान समें थया छ। मुनि उदक भाजन मुकीने विसामें बेट्ठा। एहवें अकसमात कागडें झडप मारी, पाणि ढली गयु। मुनिने कषाय उपनो। तिवारें मुनिइं कागडाने सराप दीधो, "जा रे! दुष्ट पापी पंखी ताहरु इहां काम नहीं!" तदाकालथी ए तीर्थ उपरथी कागडो गयोः / मुनिइं विचारु, जे माहरा परणाम बगड्या, तिम बीजाय कोयना बगडे, ते सारु नहीं, ते माटे सदाय फासुं पांणि हज्यो। तदा कालथी ते ठेकाणे उलखझोल थई। ए परमेश्वरजी आव्या। ते मुनीने का, "तुमारी कार्यनी सिधी इहां छे। ते मुंनी तिहां अणसण करी मोक्षं गया। तिवार पछि अजितनाथ परमेश्वरजीना समवसरणनी रचना थई / ते समवसरणनें विषं बेंसीने देसना कही। धर्मदेसना सांभली अनेक प्रांणि वितरागनी वाणी चितने विषे आणि प्रतिबोध पांमी चारित्र लेई सकल कर्मः क्षय करी परम पद पाम्यां। नमो श्री अजिताय नमः। 121 ए श्रि सिद्धाचलें ने विर्षे सगर चक्रवर्ति तेहुना पूत्र जिनकुमार साठ हजार ते सगर चक्रवर्तीनी आज्ञा मांगीने अष्टापद तिर्थे पोता। ते तिर्थनी जात्रा करीने घणी - पाम्यां। अ (ने) जाणुं जे आगले पंचम काल विषम छे, एतलां माटे तिर्थ पछवाडे खाई होइं तो तिर्थनूं रोखोपुं थाई, एहवं विचारीने ते दंडरत्ने करीने अष्टापद पछवाडें हजार जोजन एकनी खाइ करी। ते खाइ खोदतां भुवनपतिना देवताना भुवननें विषं उपघात थावा लागो। तिवारें भुवनपतिना देवता कोपायमान थावा लागा। तिवारें एक कोरे जोवें तो अष्टापद तिर्थ, एक कोरे सगर चक्रवर्त्तिना पुत्र, एहवो विचारीने कोप समावीनें जिनुकुमरने 2. यहां पूर्ति के लिए निशानी की गई है मगर मूल पाठ में कहीं पर भी वह पूर्ति नहीं पाई जाती है जिससे यहां पूर्ति नहीं की गई है। पटदर्शन Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आविनें कहुं, "हे राजपुत्रो! तुमें हवें खाई खोदसो मां। अमारा भुवननें विषं उपद्रव्य थाई छे।" इंम कहीने भुवनपतिना देवतां ठेकाणे गया। तिवार पछि जिनकुमारे विचारुं, "जे खाई तो केतलेंक कालें पुराय, एतला माटे पाणी होय तो रुंडू'' इंम विचारि डंडरत्ने करी गंगानदीनो प्रवाह वाल्यो। तिणे खाई भराणी। तिवारें भुवनपतिना घरनें विर्षे पाणीनो उपद्रव्य थयो। तिवारें नागकुमार देवता कोपायमान थइनें अगनिज्वालाइं करीने बालि भस्म करयाः। तिवारें प्रधानें लोकें वीचार कस्यो, "जें हवे चक्रवर्ति नई जेइनें सुं मुख देखाडीइं ते माटे आपण पण सर्व सैन्य चय खडकीने बली मरीइं।' एहवें इंद्रे अव(ध) ज्ञानें जोउं, जे माहा अनरथ थातो देखीने गरडा ब्राह्मणनूं रुप करी लसकरमैंः आवीने लसकरने समझावी, सैन्य लेईनें अज्योध्याइं आवीने, विप्रेनें रुपेः, पुत्र, कलेवर खंधे लेई नगरमें आवी चक्रवर्तीना दरबारे नजिक आवी विलाप करवा लागो। ते विलाप सांभलिनें चक्रवर्ति पोते ब्रामण पासे आव्यो। ब्राह्मणनें पुछु। तिवारें ब्राह्मणें कह्यु, "माहरे पुत्र ए कंधे ज छे, तेहने सापें डस्यो। तेहना घणाय उपाय करया, पण न उतरयो। एहवें एक उपाय छे (ले) रह्यो छ। जो कुमारी भस्म मले तो ए पुत्र सजीवन थायें। ते तुं तो प्रजापाल चक्रवर्ति छ। मुझने भस्म पेदास करी आप।" तिवारें सगर चक्रवर्त्ति विप्रने लेई नगरमां फिरो। कुमारि राख किहांये न जडि। तिवारे सगर चक्रवर्त्तिई कह्यु, "माहरा घरमा कुमारी रीख्या छ।" तिवारें सगरनी माता कहे, "आपणा घरनी राख कुमारी नथी।" तिवारें द्विज घणो विलापं करवा लागो। तिवारे सगर चक्रवर्त्ति अनित्य भावनाई करी समझाववा लागो। तिवारें विप्र बोल्यो, "समझाववू सोहिलूं पण समझq दोहिलूं।" तिवारें सगर चक्रवर्ति कहे, "ए बीहुं वात सोहिली छे।" एहवी वात करं छे एहवामां साठ हजार पुत्रनो अभाव थयानी खबर आवी। तिवारें इंद्रे पोतानुं मूल स्वरूप प्रगट किधु। चक्रवर्त्तिने समझावें। एतलें अजितनाथ अरिहा आवी समोसरया। एहवें वधामणी सांभलि चक्रवर्त्त इंद्र सहीत आवी श्री वीतरागनें वांदिने धर्म सांभलवा बेठा। तिहा देसनामां श्री वीतरागें श्रीवीमलाचलनो महात्तम वर्णq। श्री वीतरागनी वाणी साभलि चीत्त प्रसन थयुं। श्री सिद्धाचलजी ने भेटवाने हर्ष थयो संघ सहित। तिहां एहवी खबर आवि, जे गंगा नदीना प्रवाहमां नगर-देश भणाणा छ, तिवारें जिनकुमा(र)नो पुत्र, भगीरथ तेहनें आज्ञा करी, सगर चक्रवर्ति संघ सहित श्री सिद्धाचलजीइं आव्या। तिर्थनो उद्धार कीधो। एहवें इंद्रे वीनती करी जे श्री सिद्धाचलेंजी जेहवू अद्भुत तिर्थ छे अनें आगलें काल तो विषम छे, एतला माटें समुद्र लावो तो तीर्थन रखोपुं थाई। एहवें भगिरथ पण गंगाने ठेकाणे करि आव्यां। सूस्तीक देवताने हुकम करयोः। दरिओ सिधाद्री पछवाडे लावो। तिवारें स्वस्तिक देवता दरीओ लेइनें श्री विमलाचलजीइं लेई आव्यो। तिवारें इंद्रे सागरने विनती करी। दरिओ पिस गाउ वेगलो रहें। तिवारें . सागरने वीनती करी। आज्ञाई दरिओ विस गाउ वेगलो रहो। एहवां श्री अजितनाथनें वांरे। सगर चक्रवर्तिई संघ काढीने उधार करयो। श्री अजित प्रभु श्री सिद्धाचलजथी विहार करतां हवा, पोतानुं सासन सिंहसेन प्रमुख 95 गणधर, एक लाख साधु, फालगुण प्रमुख एक लाख त्रीस हजार 30 साध्वी, बे लाख 98 हजार श्रावक, पांच लाख चोपन हजार श्राविश्रा(का)। साढा च्यारस्ये धनूष देहमान, बोहोत्तर लाख पूर्वY आउखु, कंचन वरण शरीर, गज लंछन, सहस्र पुरुष संघाते दिक्षा लिधी। हजार पुरुष साथे श्री समेतसिखर उपरें सिद्धिपद वरयां। एहवा श्री अजितनाथ बिजा परमेस्वरजीनेः बार बार वांदु छुः। नमोस्तुः श्री मुक्तिगिरि। श्री विमलाचल गिरीने नमोनमः।2। श्री श्री श्रीः पटदर्शन - 17 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद 2. अजितनाथजी अजितनाथ प्रभुजी ने सिद्धाचल पर चातुर्मास किया। उनके सुधर्मा नामक शिष्य अपने शिष्य के साथ पानी का कलश लेकर प्रभु दर्शनार्थ आ रहे थे। दोपहर का समय होने से विश्राम के लिए बैठे तो वह पानी का कलश पास में रखा हुआ था। यकायक एक कौआ उस पर झपका और पानी गिर गया। मुनि क्रोधित हो गये। उन्होंने सोचा, "इस कौओ के कारण जिस तरह मेरे मानसिक भाव बिगड़े, ऐसा भविष्य में किसी और के साथ ऐसा न हो इसलिए उन्होंने कौए को शाप देते हुए कहा, "हे दुष्ट काक! यहाँ तेरी कोई आवश्यकता नहीं है।" इसी दिन से तीर्थ पर कौआ नहीं दिखाई दे रहा है। मुनि ने अन्य सर्व मुनि को प्रासुक जल प्राप्त हो, ऐसा निर्माण किया, तभी से वहाँ उलखझोल हुई है। ___मुनि ने अजितनाथजी के दर्शन किये। उन्होंने मुनि से कहा, "तुम्हारे कार्य की सिद्धि इस स्थल पर है इसलिए मुनि ने वहा आमरणांत अनशन व्रत ग्रहण किया और मोक्ष प्राप्त किया।" देवताओं ने अजितनाथ प्रभुजी के समसरण की रचना की। भगवान ने धर्मदेशना कही। अनेक भव्य प्राणियों ने प्रतिबोधित होकर चारित्रधर्म, अनशन व्रत ग्रहण कर सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। अजितनाथ प्रभुजी को नमस्कार। 11 सगर चक्रवर्ती के जिनकुमार प्रमुख 60,000 पुत्रों ने अष्टापद पर्वत की रक्षार्थ खाई बनाने का सोचा। पिता सगर चक्रवर्ती की आज्ञा लेकर अष्टापद पर्वत की ओर चले। वहां खाई बनाना आरम्भ किया। मिट्टी निकालने से भुवनपति देवता के भुवन-नागलोक में मिट्टी की वृष्टि होने लगी तो भुवनपति के देवता क्रोधायमान हो गये। फिर भी अष्टापद पर्वत और चक्रवर्ती के पुत्रों को लक्ष्य में लेकर, क्रोध को अंकुशित करते नम्र स्वर में खाई बनाने से इन्कार करते हुए कहा, "हे राजपुत्र ! यहाँ खाई मत करो, हमारे भुवन में उत्पात्त-उपद्रव हो रहा है।" __जिनकुमार ने खाई का कार्य बंद करवाया, मगर सोचा, "यह खाई को भरने में बहुत समय लगेगा अगर उसमें पानी भरा जाए तो अच्छा रहेगा।" ऐसा सोचकर उन्होंने दंडरत्न से पानी का प्रवाह उस ओर लिया और उधर पानी भर गया। उसी समय भुवनपति के घर में पानी का उपद्रव होने लगा। अब नागकुमार देवता क्रोधित हो उठे और अपनी अग्निजाल से उन्होंने 60,000 सगरपुत्रों को जलाकर भस्मीभूत कर दिया। प्रधान आदि सैन्य भय से कांपने लगे कि अब चक्रवर्ती को कैसे अपना मुंह दिखाएंगे? अच्छा होगा कि हम समग्र सैन्य इधर ही अग्निस्रान कर लें। इंद्र ने अपने अवधिज्ञान से देखा कि यह तो महा अनर्थ हो रहा है। वे वृद्ध ब्राह्मण का स्वरूप बनाकर लश्कर समक्ष उपस्थित हुए। सैनिकों के साथ वे अयोध्या पहुंचे। सगर चक्रवर्ती के महल के सामने कंधे पर अपने पुत्र का मृतदेह लेकर खड़े हुए विलाप करने लगे। चक्रवर्ती ने ब्राह्मण से विलाप का कारण पूछा तो उसने बताया कि, "मेरा इकलौता पुत्र सर्प दंश से मर रहा है, उसे बचाने का अनेक प्रयत्न किये मगर एक भी सफल नहीं रहा। अगर मुझे कुमारी भस्म [जिसके घर में कभी मृत्यु नहीं हुई है, उनसे घर की भस्म (राख)] मिल जाये तो वह बच सकता है। आप तो प्रजापालक चक्रवर्ती है तो ऐसी भस्म मुझे उपलब्ध करवा दें।" चक्रवर्ती विप्र को लेकर समग्र नगर में घूमे मगर कहीं से भी कुमारी भस्म प्राप्त नहीं हुई। उन्होंने अपने घर में कुमारी भस्म के लिए पूछा तब उनकी माता ने कहा, "अपने घर की भस्म भी कुमारी नहीं है।" वृद्ध ब्राह्मण जोर से विलाप करने लगा, तब चक्रवर्ती उनको अनित्य भावना-संसार प्रणाली से समझाने-आश्वास्त करने लगे, तब ब्राह्मण ने कहा, "अन्य को समझाना तो सरल है, मगर स्वयं समझना कठिन-दुर्लभ है।" चक्रवर्ती ने कहा, "ऐसा नहीं है। दोनों सरल-स्वाभाविक हैं।" ऐसा वार्तालाप चल रहा था तब ही चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों के अभाव-मृत्यु के समाचार आ पहुंचे। इन्द्र ने अपना असली स्वरूप बनाया। चक्रवर्ती को समझाने लगा, उसी समय अजितनाथजी वहाँ पधारे। इन्द्र सहित चक्रवर्ती प्रभु दर्शनार्थ उपस्थित हुए। प्रभु ने अपनी देशना में श्रीविमलाचल की महिमा बतलाई। सब प्रसन्न हुए। सिद्धाचलजी पटदर्शन Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनार्थ पहुंचने को उत्सुक हुए। सगर चक्रवर्ती ने संघ सहित सिद्धाचलजी की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में संदेशा प्राप्त हुआ कि गंगा नदी के प्रवाह से नगर-देश इत्यादि में पानी भर गया है। चक्रवर्ती ने जान्हुका पुत्र भागीरथ को गंगा का प्रवाह अवरोध करने की आज्ञा दी और वे संघ सहित सिद्धाचलजी पहुंचे। सगर चक्रवर्ती ने जीर्णोद्धार करवाया। इन्द्र ने चक्रवर्ती को विनती करते हुए कहा, "सिद्धाचलजी अनुपम, अदभुत तीर्थ है। आने वाला काल अतिविषम है, इससे तीर्थ की रक्षा के लिए समुद्र लाया जाए तो अच्छा होगा। चक्रवर्ती की आज्ञानुसार भगीरथ गंगा को लेकर आया। उन्होंने स्वस्तिक देवता को समुद्र पीछे लाने के लिए आदेश दिया। स्वस्तिक देवता समुद्र लेकर सिद्धाचलजी पहुंचे। इन्द्र ने सगर चक्रवर्ती को समुद्र बीस गाऊ दूर रखने की सूचना दी।" सगर-चक्रवर्ती ने संघसहित तीर्थयात्रा प्रभुपूजन-भक्ति किया। तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया। सिद्धाचलजी से विहार करते हुए प्रभु ने अपने परिवार के साथ प्रस्थान किया। आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में सिंहसेन प्रमुख 95 गणधर, 1,00,000 साधु, फाल्गुण प्रमुख 1,30,000 साध्वियाँ, 2,98,000 श्रावक और 5,54,000 श्राविकाएँ थीं। आपका देहमान 450 धनुष था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लाञ्छन गज है। आपकी कुल आयु बहत्तर लाख पूर्व थी। श्री मुक्तिगिरि, श्री विमलाचलजी गिरि को भावपूर्वक वंदन। दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration [Under the illustration: //bija sriAjitanatha-paramesvaraji nem parinama hojo 2} //SriSidhacalaji uparem // Ajitanatha-paramesvarajih comasu rahya. tiham Sudharma ehavem namem pota no sisya sathem pamni no sambala lei sriSidhacalaji upare prabhuji nam darsana nem avem chem. ehave madhyana sammem thaya chem. mumni udaka num bhajana mumkinem visamem bettha. ehavemakasamata kagadem jhadapa mari. pamni dhali gayum. muni nem kasaya upano.tivarem muniim kagada nem sarapa didho "ja re dusta papi pamsi, taharu iham kama nahih." tada kala thi e tirtha upara thi kagado gayoh, muniim vicarum jem "mahara paranama bagadya. tima bija ya koyam na bagademh. te saru nahi. te matem sada ya phasum pamni hajyo". tada kala thi te themkamnem Ulasajhola thai. e Ajitanatha-paramemsvaraji avya. te muni nim kahyu "tumari karya ni sidhi iham chem". te munitiham anasana kari moksem gaya, tivara pachi Ajitanatha-paramesvaraji na samavasarana ni (ra)cana thai. te samavasarana nem visem besinem desana kahi. dharma-desana sambhali. anemka pramni vitaraga ni vamni cita ne visem amni, pratibodha pammi, caritra lei, sakala karma-ksaya kari, parama-pada pamya /namo sriAjitaya namah // 12 e sriSiddhacalem vise Sagaracakravartti. tehu na putrah Jinakumara sattha hajara, te Saga(ra)cakravartti ni ajna maginem Astapada-tirthem pota te tirtha ni jatra karinem ghani rem" pamyam a(ne) janum je "agalem pamcama kala visama chem. etalam matem tirtha pachavade sai hoim, to tirtha num roso(p)um thaim". ehavam vicarinem te da(n)da-ratnem karinem Astapada pachavadem hajara jojana eka ni sai kari. 2 At this point a sign indicating that an addition has to be taken from the margin is visible, but the addition itself is missing. पटदर्शन पराज - 19 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ te sai sodatam Bhavanapati na devata na bhuvana nem visem upaghata thava lago. tivarem Bhuvanapati na devata kopayamana thava laga. tivarem eka korem jovem to Astapada-tirtha eka kore Sagaracakravartta na putra ehavo vicarinem kopa samavinem Jinukumara nem avinem kahum "he rajaputro, tumem havem saim sodaso mam. amara bhuvana nem visem upadravya thaim chem." imma kahi Bhuvanapati na devata thekanem gaya. tivara pachi Jinakumarem vicarum je "sai jo ketalemka kalem buraya. etala mate pani hoim to rumdum." imma vicari danda-ratnem kari. Gamga nadi no pravaha valyo. time sai bharani. tivarem Bhuvanapati na ghara nem visem pani no upadravya thayo. tivarem Nagakumara-devata kopayamana thainem, agani-jvalaim karinem vali bhasma karya. tivarem pradhanem lokem vicara karyo "jehavem cakravartti naim jeinem sum musa desadiim te matemapana pana sarva sainya caya sadakine bali mariim". ehavem indrem ava(dhi)jnanem joum je maha anaratha thato desinem Garada vrahamana num rupa kari, lasakara mem avinem, lasakara nem samajhavi, sainya leinem, Ajyodhyaim avinem, vipre nem rupeh putra num kalevara sandhem lei, nagara mem avi, cakravartti na darabarem najika avi, vilapa karava lago. te vilapa sambhalinem cakravarti pote vramana pasem avyo, vrahmana nem puchumh. tivarem vrahmanem kahyumh "mahare putra e kandhe ja chem. tehanem sapem dasyo. teha na ghanaya upaya karya pana na utaryo, ehavem eka upaya che(le) rahyo chem. jo kumari bhasma male, to e putra sajivana thayem. tum to prajapala cakravartti chemh. mujha ne bhasma pedasa kari apa", tivarem Sagaracakravartti vipra nem lei nagara mam phiro. kumari rasa kihamyem na jadi. tivarem Sagaracakravarttiim kahum "mahara ghara mam kumari risya chem", tivarem Sagara ni mata kahem "apana ghara ni rasa kumari nathi". tivare dvija ghano vilapa karava lago. tivarem Saga)racakravartti anitya-bhavanaim kari samajhavava lago. tivarem vipra bolyo "samajhavavum sohilum, pana samajhavu dohilum". tivare Sa(ga)racakravartti kahem "e bihum vata sohili chem". ehavi vata karam chem. ehavam ma satha hajara putra no abhava thaya ni savara avi. tivarem imdre pota numh mula-svarupa pragata kidhum. cakravartti ne samajhavem. etalem Ajitanatha ariha avi samosarya. ehave vadhamani sambhali cakravartti imdra sahita avi. sri Vitaraga nem vamdinem dharmah sambhalava bemtha, tiham desana mam sri Vitaragem sri Vimala)cala no mahatama varnavum. sri Vitaraga ni vamni sabhali cita prasana thayum. sriSiddhacalaji nem bhetava nem harsa thayo samgha-sahita. tiham ehavi sabara avi je Gamga-nadi na pravaha mam nagara-desa bhanana che tivarem Jinakuma(ra) no putra Bhagiratha teha nem ajna kari Sagaracakravartti samgha-sahita sriSiddhacalajiim avya. tirtha no uddhara kidho. ehavem imdrem vinati kari je "sriSiddhacalemji jehavum adabhuta tirtha chem anem agalem kala to visama chem. etala matem samudra lavo, to tirtha no rasopum thaim. ehavem Bhagiratha pana Gamga nem thekanem kari avya. Sustika-devata ne hukama karyoh "dario Siddhadri pachavadem lavo". tivarem Svastika-devata dario leinem sriVimalacalajii lei avyo. tivarem imdrem Sagara nem vinati kari "dario visa gau vegalo rahem". tivarem Sagara nem vinati kari amjnai "dario visa gau vegalo raho". ehava sriAjitanatha nem varem Sagaracakravarttiim samgha kadhinem uddhara karyo. sriAjitaprabhu sriSiddhacalaji thi vihara karata hava pota num sasana Simhasena-pramusa 95 ganadhara, eka lasa sadhu, Phalaguna-pramusa eka lasa trisa hajara 30 sadhavi, be lasa 98 hajara sravaka, pamca lasa copana hajara sravika, sadha cyara syem dhanusa deha-mamna, bohottara lana purva nu ausu, kamcana-varana-sarira, gaja-lamchana, sahasra-purusa samghatem diksa lidhi. hajara purusa sathem sriSameta-sisara uparem sidhi-pada varya. ehava sriAjitanatha bija paramesvaraji nem // vara vara vandum chum // namo stu sriMuktigiri // sri Vimalacalagiri nem namo namah //2/1 sri sri srih 20 -पटदर्शन Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संभवनाथजी 3. Sri Sambhavanathaji पटदर्शन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रिमाश्रीशनवनाथायरमेश्वरमीश्रीसिवाचलजीईआर समोसस्वाभासमवसरणनीरचनाकरीबितिहाश्रीशनव नाथजीजादेवानाचिनीमिछाचलजी माहात्मवर्णव्याः aमामयपणिइंसानलि प्रतिबोधयामी संसारत्याय करीक्षारिवानि परोस्वरजीने पोताना त्रासमानीकार्य नासिवीएबी रानीसिहावलजीउपरें कामिसिधीयोतानी जाए अयासाकरी सकलकरियकरिमोघोहता श्री शाशवनाथजीनं बारुदनमष एकसोयांधगरधर बेनाथ साक स्पाम्यापकषत्रिणलापबचीसहजारसाधधीजी बेला पवाफहजारभावकलापबत्रीसहजारमाविका एक हर्जरपुषसंघातेदिका पारस्पैधनुषदेह साहनाषपुर्व नुआटे कंचनवरंगनबन हजारसूरुषसंघातें: ब्रीसभवनाथनोसबंधासपुराना मूल पाठ त्रिजा श्री संभवनाथ परमेश्वरजी।3 देशनानें विषे श्री सिधाचलजी माहात्म वर्णव्यो, ते माहातम भव्य प्राणिइं सांभलि प्रतिबोध पांमी, संसार त्याग करी, चारित्रा लेइनें परमेश्वरजीने पोताना आतमानी कायनी सिधी पुछी। ए श्री सिद्धाचलजी उपरें कार्यनि सिद्धि पोतानीः जाणी अणसण करी, सकल कर्म क्षय करि मोक्षे पोहता। श्री शंभवनाथजीने चारुदत्त प्रमुख एकसो पांच गणधर, बे लाख साधु, स्याम्या प्रमुख त्रिण लाख छत्रीस हजार साधवीजी, बे लाख त्राणु हजार श्रावक, छ लाख छत्रीस हजार श्राविका, एक हजार प्रमुख (पुरुष) संघाते दिक्षा। च्यारस्यै धनुष देह, साठ्ठ लाख पूर्व- आयु, कंचन वर्ण, तुरंग लंछन, हजार पुरुष संघातेंः सिद्धप(द) ने वरया। एहवा त्रिजा परमेश्वरजीनें हुं बारंबार वांदु छुः। श्री संभवनाथनो संबंध संपूर्णः। 31 पटदर्शन Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद 3. संभवनाथजी आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या अंगीकार की थी। श्री संभवनाथजी सिद्धाचल पर पधारे। इन्द्रों ने समवसरण की रचना की। आपने देशना में श्री सिद्धाचलजी का माहात्म्य दर्शाया। भव्य प्राणियों ने प्रतिबोधित होकर संसार का त्याग करके प्रव्रज्या ग्रहण की। उन्होंने प्रभु से अपने आत्मा की सिद्धि विषयक चर्चा की। अपने आत्मा की कार्यसिद्धि वहीं सिद्धाचल पर जानकर उन्होंने वहां अनशन व्रत शुरू किये, सकल कर्म क्षय कर सिद्धत्व, मोक्ष प्राप्त किया। आपके परिवार में चारुदत्त प्रमुख 105 गणधर थे। 2,00,000 साधु, श्यामा प्रमुख 3,36,000 साध्वियाँ, 2,93,000 श्रावक और 6,36,000 श्राविकाएँ थीं। आपका देहमान 400 धनुष ऊँचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन तुरंग (अश्व) है। आपकी कुल आयु साठ लाख पूर्व थी। 1,000 पुरुषों के साथ आपने सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त किया। तीसरे तीर्थंकर श्री संभवनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration // trija sriSambhavanathah-paramesvarajih // sriSidhamcalajimhavi samosaryah, samavasarana ni racana karih, sri tiham srisambhavanathajiim desana ne visem sriSiddhacalaji mahatma varnavyoh. te mahatama bhavyapraniim sambhali pratibodha pami. samsara-tyaga kari, caritra leinem, paramesvaraji nem pota na atama ni karya ni sidhi puchi. e sriSiddhacalaji uparem karya ni siddhi pota nih jani, anasana kari, sakala karma ksaya kari, mokse pohata. srisambhavanathaji nem Carudatta-pramusa eka so pamca ganadhara, be lasa sadhu, Syamya-pramusa trina lasa chatrisa hajara sadhaviji, be la. tranu hajara sravaka, cha lasa chatrisa hajara sravika, eka hajara pramusa' samghatem diksa, cyara syai dhanusa deha, sattha lasa purva num ayum, kamcana-varna, turamgalamchana, hajara purusa samghatem sidhapa(da) ne varya // ehava trija paramesvaraji nem hum vara vara vamdum chumh. sriSabhavanatha no sambandhah sampurnah // 3 // 3. The word which is usually found at this place is puru sa. पटदर्शन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिनंदनस्वामीजी 4. Sri Abhinandanasvamiji पटदर्शन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवेचोथानीअन्निनदनस्वामिनीसिछामजी यादी। समासस्वापारनिकायनादेवनासमवसरणनिरवनाकरिश श्रीअन्निनंदनवामित्रीदेसि श्रीसिक्षवलजीतोमाहाता मरुभनेकनपपाणि श्रीसिकाचलजीनोमोटोमहिमा जाणि चारित्रलेअरसाकरी मोक्षपाहता श्रीसिहाचल मामलेयगोनामनिर्थविय-अतिनकालेंअनामक लें वर्तमानकालें एवणकालनेदि अहिंसायिकरस अनंतागणधर अनन्ताप्रार्धानअनंतामपाध्यायअनत मुनिरा अतिसाधवी अनंतानाधक अनलिभाविकाय सिविधेसिधथया परमपदपाया लेनामा सिहावल पर्वत श्रीयुमरिकगणधर सीधवस्या धीचसीएतीर्थ संजयएहनामथयुत्तेको पुष्टिकराजपाचलेंना जितसराजाच्याराहारना अन्निग्रहलीधोनीमिछाचल जी टुंलिवारेंअहारकरूंएखा-अभिग्रहसहितमाघाजेस हितचाहिधिसंघसहित पहिंफता नीसिहाचलजीनीजावा इनिकल्या माािवतारकासमीरदेसनीअटवीआधीएर वेसरीरनोधातिर युगलिक राजानेसरीर अनपासिविना अटकं दिवारेससिंघे लोकेंमलिशेजाजा करें अग्निया मुको पारणंकरो जिनमतवेधकार एकत्सर्गअन्नेबी जाअमवाद एहसंघनामषथीसोनालीराजानुमान लगास मात्रापुनही तिवारेससिंघचलाउरथयो एवेर्जतोस्त थयो रात्रपकिसवैभइरह्या एहवेंकजआनी आचार्य नंसपदीधे पधानसपनदिकाच्यारअधिकारिगुरुपने रूपनदिकं दिनपहरएकचळपाश्रीसिवाचनजीनादश नसनिकारावीसपनासवरजाग्यावर्षपाम्पा नाथ यो संघलिथीनपन्यो दिनपहरएकजेतलेंथयो तित्तने वाम कासमीरदेसनीसमनेविषानोश्रीसिधारलग विठोसर्वसंघलोकेःराजायफजाचाकरी अग्नियस्यूरो ययो तिहाथीश्रीश्रीसंघवेराणोनिमसरामा एक नकरें माबोबाहरथयनिकनेमसाहावारराजगटा प्राध्या तिवारेंसधावकहें स्वामिश्रो तिवारेंराजाकहें मेंकहोतो असारसं इंमक हिमें राजातिहारया विमल पुरनगरवसा तिहाराजानेहसिनामा स्त्रिअनेबाजीसा रसीनानास्त्री असानामाधान एवगविहारस्या परमेश्व जानीजाकरेंएवेएकसोयाध्या रुकमोदेश पना पटदर्शन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियलागो मकरता केतलाएकदिवसथया तिवारेंरा जाने-अंतअवलाआधी तिवारेंराजामीसीदावलजी उप रंगामणकर हसिनेसारसी एस्विच राजानं नाकाम देदरामा चनधेिसमोरारजा धानसमामी गयु तिवारंराजानतीजचआयुबाधाय तेरामा मेरिन साथयो अनेसी-असारसी बस्त्री वैराग्यधामीचा रित्रतिमें कालकरीने सोधमदिवलोकेश्वनाथया ते! प्राधि-अंगसणकरीने देवताथच्या अधिशानेजो यु पोनानान्तरतारनेसानोअवतारजागी समानेष तिबोधदिधोमूपादेवंगनानामुषथीमाताम्वरूयन एणीअगसणकरीसाधर्मदेवानोकै देवताथयातिनित सचरामानोजीव मृगजराजानोयुनकरामनामंथयो सकराजयीघरासमेंजितियोता_राम्पलीक दिवसथाहतार्थनमाम जयरथयुवलिनधा यरीजेरामशेष तेरनेजीतीनियरिणपदवास्वा माटेसेंज शक्तिकदीईएनानिविसेषरनामेंराजा एतीर्थना शनिकरीने मनिागलेंपोतानापायचितमालानण ने संजमानेने असणकरीराजामुगतेंगटो श्री निवेदनमानें वजनानकष १५सोलगयाघरसाकत्रि एलाप अमितजीपमषबानापत्रिसहजासाधचीबेला बनानीसहजारश्राद्धक पाचलाषसत्ताधीसहजाराचा काएकहजारसुरुषसाथदिकालीधी साहाविएसेंधमूष रहमान पंचासलाययुर्वनाम कंचनवर्ण कपिलबन जारमनीराजसंघातमागसएकरी श्रीसमेतसिमसिः धपदनेवस्वारहवाश्रीअनिन्दनस्वामि नमस्कारका नमोस्तीसिहावनायनमानमःधानीश्वी) मूल पाठ हवें चोथा श्री अभिनंदन स्वामि। श्री सिद्धाचलजी आवी समोसरया। च्यार निकायना देवता समवसरणनि रचना करि। श्री अभिनंदन स्वामि त्रीगडें बेसि श्री सिद्धाचलजीनो माहातम प्ररुपुं। अनेक भव्य प्रांणि श्री सिद्धाचलजीनो मोटो महिमा जांणि, चारित्र लेइ अणसण करी मोक्ष पोहता। श्री सिद्धाचल नाम छे, ते गुणें नाम छ। ए तिर्थने विषे अतित कालें, अनागत कालें, वर्तमान कालें ए त्रिीण कालने विषे अनिता तिर्थंकर, अनंता गणधर, अनंता आर्चार्ज, अनंता उपाध्याय, अनंता मुनिरा(य), अनंति साधवीओ, अनंता श्रावक, अनंति श्राविका ए तीर्थने विषे सिध थया. परम पद पांम्यां। तेतला माटे सिद्धाचल पर्वतें श्री पंडरिक गणधर सीध वरर दिवसथी ए तीर्थY नाम पुंडरीकः। श्री अभिनंदन प्रभुने वारें शेजूंजय एहवू नाम थयुं ते कहे छ। 26 पटदर्शन Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व श्रुकराजाने पाछलें भवें जितशत्रु राजा। च्यार आहारनो अभिग्रह लीधो। श्री सिद्धाचलजी भेटुं तिवारें अ(आ)आहार करूं एहवा अभिग्रह सहित, आचार्ज सहित, चतुर्विध संघ सहित, पगें हिंडतां श्री सिद्धाचलजीनी जात्राइं निकल्या। मार्गे आवतां आवतां कासमीर देसनी अटवी आवी। एहवें शरीरनो धर्म तो पुद्गलिक छ। राजानु सरीर अन-पांणि विना अटकुं। तिवारें सर्व संघे, लोकें मलिं राजानें कहें, "अभिग्रहः मुको, पारणुं करो।" जिनमत बे प्रकारे छे, 'एक उत्सर्ग अने बीजो अपवाद' एहवू संघना मुखथी सांभली राजानूं मन लगार मात्रा डग्युं नहीं। तिवारे सर्व संघ चंतातुर थयो। एहवें सुर्ज तो अस्त थयो। रात्रा पडि, सर्वे सूई रह्या। एहवें कवडजक्ष आवी आचार्यने सुप(न) दीर्छ, प्रधानने सुपन दीर्छ। च्यार अधिकारि पुरुषनें सुपनें दिधुं। दिन प्रहर एक चढ्यो। श्री सिद्धाचलजीनां दर्शन हुं सर्वने करावीस। प्रभातें सर्व जाग्यां। हर्ष पाम्यां। उछाह थयो। संघ तिहांथी उपड्यो। दिन प्रहर एक जेतलें थयो, तितले कवडजः कासमीर देसनी सेमनें विर्षे नवो श्री सिधाचल प्रगट किधा। सर्व संघ लोकेः राजा प्रमुखें जात्रा करी। अभिग्रह पूरो थयो। तिहांथी श्री श्री संघ वेराणो / हवें जितसत्रु राजा प्रभु दर्शन करें, पाछो बाहर निकलें / इम सात-आठ वार राजा गया-आव्या। तिवारें प्रधान कहे, "स्वामि! इहां रहो।" तिवारें राजा कहे, "तुमें कहो तो अमे इहां रहेसुं।" इम कहिने राजा तिहां रह्यां। विमलपुर नगर वसावू। तिहां राजा अने हंसि नामा स्त्रि अने बीजी सारसी नामा स्त्री अने हंसा नाम प्रधान ए त्राणे तिहां रह्यां। परमेश्वरजीनी पुजा करें। एहवें एक सुडो आव्यो। रुपे रुडो देखी राजाने प्रिय लागो। इंम करतां केतला एक दिवस थया तिवारें राजानें अंत अवस्ता आवी। तिवारें राजांइ श्रीसीधाचलजी उपरें अणसण करयूं। हंसिनें सारसी ए में स्त्रिओ राजानें नीसामें छे। देहरा मांहें वननें विर्षे सुडो छ। एहवें राजानुं धान सुडामां गयु। तिवारें राजाने तीर्जच आयुं बांधाणु। ते राजा मेरिने सुडो थयो अने हंसी अने सारसी बे स्त्रीओ वैराग्य पांमी चारित्रा लेइनें काल करीने सोधर्म देवलोके देवता थया। ते अवधि अणसण करीने देवता थया। ते अवधिज्ञानें जोयुं। पोताना भरतारने सुडानो अवतार जांणी सुडाने प्रतिबोध दिधो। सूडे पण देवंगनाना मुखथी पोतानूं स्वरूप जांणी अणसण करी सौधर्म देवलोकें देवता थयो। ति जितसत्रु राजानो जीव मृगध्वज राजानो पुत्र श्रुकराज नामें थयो। तें शुक राजं द्रव्यथी घणा सत्रुनें जिति पोतानूं राज्य लीधुं। ते दिवसथी ए तीर्थनूं नाम सेत्रुजय प्रगट थयुं। बलि भव वयरी जे रागद्वेष तेहने जीती निर्वाण पद वरया। ते माटे सेंचुंजय तिर्थ कहीइं। ए तीर्थने विषे चंद्रसेखर नामें राजा। ए तीर्थना दर्शन करीनें मुनि आगले पोताना प्रायश्चित आलोवण लेईने, संजम लेईनें अणसण करी राजा मुगतें गयो / श्री अभिनंदनप्रभा(भु)ने वज्रनाभ प्रमुख 116 सोल गणधर, साधु त्रिण लाख, अजितजी प्रमुख छ लाख छत्रिस हजा(र) साधवी, बे लाख अठ्ठावीस हजार श्रावक, पांच लाख सत्तावीस हजार श्राविका, एक हजार पुरुष साथे दिक्षा लीधी। साढा त्रिणसें धनूंष देहमान, पचास लाख पुर्व नूं आउ, कंचन वर्ण, कपिलंछन, हजार मुनीराज संघाते अणसण करी श्री समेतसिखरें सिध पदने वरया। एहवां श्री अभिनंदन स्वामिने नमस्कार करूं छु। नमोस्तु श्री सिद्धाचलाय नमोनमः।4। श्री श्रीः हिन्दी अनुवाद 4. अभिनंदन स्वामीजी अभिनंदन प्रभु सिद्धाचल पधारे। देवता ने समवसरण की रचना की। प्रभु ने धर्मदेशना में सिद्धाचल तीर्थ का माहात्म्य प्रदर्शित किया। तीनों काल अतीत, अनागत और वर्तमान में अनंत तीर्थंकर गणधर, आचार्य, साधु इत्यादि अनेक भव्य जीवों ने यहां से सिद्धपद प्राप्त किया है। ऋषभदेवजी के प्रथम गणधर पुंडरीकजी ने यहां से सिद्धपद प्राप्त किया है, जिससे यह तीर्थ पुंडरीकगिरि से प्रचलित है। अभिनंदन प्रभु के समय में इस तीर्थ का नाम शत्रुजय हुआ, इसकी कथा यहां निरुपित की गई है। जितशत्रुराजा ने शत्रुजय तीर्थ की महिमा सुनी। चतुर्विध संघ के साथ उन्होंने शत्रुजय तीर्थ की पदयात्रा शुरू की। उन्होंने अभिग्रह किया कि पटदर्शन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुजय दर्शन के बाद ही वे चारों प्रकार के आहार ग्रहण करेंगे। रास्ता बहुत लंबा था। क्रमशः चलते काश्मीर के अटवी प्रदेश में पहुंचे। लंबे दिनों तक चलने से और आहार नहीं ग्रहण करने से राजा के स्वास्थ्य पर विपरीत असर हुआ। समस्त संघ ने राजा को अभिग्रह पूर्ण करके आहार ग्रहण करने के लिए समझाया। उन्होंने जिनमत के दोनों स्वरूप उत्सर्ग और अपवाद मार्ग से भी समझाये, फिर भी राजा तो अपनी प्रतिज्ञा-अभिग्रह पर दृढ़-अडिग थे। समग्र संघ चिंतित था। अपने ज्ञान से कर्पटयक्ष भी इस परिस्थिति को जाना। रात्रि का समय हो गया था। आधी रात समग्र संघ निद्राधीन था। कर्पटयक्ष ने आचार्य, राजा, प्रधान आदि चार प्रमुख पुरुषों को रात्रि में स्वप्न में आकर आश्वासन दिया कि राजा सहित समग्र संघ को कल ही वे शत्रुजय दर्शन करवाएंगे। कर्पटयक्ष ने काश्मीर प्रदेश की सीमा में एक नया सिद्धाचलजी प्रगट किया। राजा सहित समग्र संघ ने दर्शन किए। वहां हर्षोत्सव, महोत्सव मनाया गया। चारों तरफ प्रभुभक्ति-अटूट श्रद्धा और दृढ़ सम्यक्त्व का वातावरण फैला हुआ था। राजा की प्रसन्नता-हर्ष की कोई सीमा न थी। खुशी के मारे वे सात-आठ बार मंदिर में गये, बाहर आये। प्रधान ने राजा के मन को माप लिया कि अभी भी राजा शत्रुजय दर्शन से तृप्त नहीं हुए हैं। प्रधान ने राजन् को वहां रुकने की विनती की। राजा स्वयं भी वहां रुकना चाहते थे। उन्होंने प्रधान की बात स्वीकार कर ली और अपनी दोनों पत्नियां हंसी और सारसी के साथ वहीं अपना निवास स्थान बना लिया। वहां विमलपुर नगर की स्थापना की। एक दिन बड़ा सुन्दर, आकर्षक शुक वहां आ पहुंचा। उसे देखते ही राजा लालायित हो गये। हंसी और सारसी दोनों सात्विक, धर्मप्रेमी, भक्तिवती सुश्राविकाएं थीं। दोनों धर्मकार्य में प्रवृत्त रहती थीं। क्रमशः राजा का आयु पूर्ण होने वाला था। देह पौद्गलिक है तो मरना, उत्पन्न होना उसका स्वभाव है -स्वाभाविक क्रम है। राजा की अंतिम घड़ियां थीं। दोनों पत्नियां उन्हें धर्मकार्य में प्रवृत्त करती थीं, फिर भी राजा का मन, समग्र चेतना मानो शुक में अवस्थित थी और उन्होंने तिर्यंच आयुबंध प्राप्त किया। राजा का जीव शुक रूप उत्पन्न हुए। हंसी और सारसी ने भी राजा के मृत्यु पश्चात् चारित्र धर्म ग्रहण किया। उत्तम प्रकार की चारित्राराधना, तपाराधना करते दोनों ने स्वर्गलोक-देवलोक प्राप्त किया। अपने ज्ञान से पूर्व पति का शुक रूप जानकर उन्हें प्रतिबोधित किया। शुक ने भी प्रतिबोधित होकर आमरणांत अनशन व्रत किया और सौधर्म देवलोक में देवत्व प्राप्त किया। वहां से शुकदेव मृगध्वज नृप के वहां शुकराज रूप में उत्पन्न हुए। उन्होंने बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार के दुश्मनों पर विजय प्राप्त की। अपने प्रतिस्पर्धी राजा को अपने बल-शौर्य और द्रव्य की शक्ति से पराजित किया। अंतःशत्रु राग-द्वेषमोह-माया-लोभ रूप कषाय पर धर्माराधना-तपाराधना से विजय प्राप्त किया और सिद्धपद प्राप्त किया, तभी से यह तीर्थ शत्रुजय (शत्रु पर विजय दिलाने वाला) तीर्थ माना जाता है। चंद्रशेखर नृप ने तीर्थदर्शन-यात्रा की। अपने कर्मों की आलोचना-प्रायश्चित करके चारित्रधर्म अंगीकार किया। आमरणांत अनशन व्रत ग्रहण किया और सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त किया। आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में वज्रनाभ प्रमुख 116 गणधर, 3,00,000 साधु, अजितश्री प्रमुख 6,36,000 साध्वियाँ, 2,28,000 श्रावक, 5,27,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 350 धनुष था। आपका वर्ण कंचन था। आपका लांछन कपि है। आपकी कुल आयु पचास लाख पूर्व की थी। 1000 मुनिराजों के साथ आपने सिद्धाचलजी पर अनशन व्रत ग्रहण किये और सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। श्री शत्रुजय तीर्थ को भावपूर्वक वंदन। चौथें तीर्थंकर श्री अभिनंदनजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। 28 पटदर्शन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Transliteration // havem cotha sriAbhinandana-svami/sriSiddhacalaji avi samosarya. cyara nikaya na devata samavasarana ni racana kari. sriAbhinandana-svami tri-gadem besi sriSidhacalaji no mahatama prarupum. aneka bhavya-pramni sriSiddhacalaji no moto mahima jamni, caritra lei, anasana kari, moksa pohata. sriSiddhacala nama chem te gunem nama chem. e tirtha nem visem atita-kalem, anagata-kalem, varttamana-kalem, e trina kala nem visem aninta tirthamkarah, ananta ganadhara, ananta acarja, ananta upadhyaya, ananta muni-ra(ja), ananti sadhavio, ananta sravaka, ananti sravika, e tirtha nem visem sidha thaya, parama-pada pammya. tetala matem Siddhacala-parvatem sriPundarika-ganadhara sidha varya. tem divasa thi e tirtha num namma Pundarikah. sriAbhinandana-prabhu nem varem Setrumjaya ehavam nama thayu, te kahe chem. purve Sukaraja nem pachalem bhavem Jitasatru-raja cyara ahara no abhigraha lidho. sriSiddhacalaji bhetum. tivarem "ahara karum", ehava abhigraha-sahita acarja-sahita caturvidha-samgha-sahita pagem himdatam sriSidhacalaji ni jatraim nikalya, marge avata 2 Kasamira-desa ni atavi avi. ehavem sarira no dharma to pudagalika chem. raja nu sarira anapamni vinam atakum. tivarem sarva samghem lokem mali raja nem kahem "abhigrahah muko, paranum karo. jina-mata be prakara chem, eka utsarga anem bijo apavada." ehavum samgha na musa thi sambhali raja nu mana lagarah matra dagyum nahi, tivarem sarva-samgha camtatura thayo. ehavem surja to asta thayo. ratra padi sarve sui rahya. ehavem kavada-jaksa avi acarja nem supa(na) didhumh. pradhana ne supana didhum, cyara adhikari purusa nem supanem didhum. dina-prahara eka cadhyo. "sriSiddhacalaji nam darsana hum sarva nem karavisa". prabhatem sarva jagyah. harsa pamya. uchaha thayo. sam gha tiham thi upadyo. dina prahara eka jetalem thayo, titale kavada-jaksem Kasamiradesa ni sema nem viseh navo sriSidhacala pragata kidho. sarva samgha lokeh raja-pramusem jatra kari. abhigraha puro thayo. tiham thi srisrisamgha verano. havem Jitasatru-raja prabhu-darsana karem. pacho bahara nikalem. imma sata atha vara raja gaya avya. tivarem pradhana kahem "svami iham raho". tivarem raja kahem "tumem kaho, to amem iham rahemsum". imma kahinem raja tiham rahyam. Vimalapura-nagara vasavum. tiham raja anem Hamsi-nama stri anem biji Sarasi nama stri anem Hamsa nama pradhana, e tranem tiham rahya. paramesvaraji ni puja karem. ehavem eka sudo avyo, rupem rudo desi raja nem priya lago. imma karatam ketala eka divasa thaya. tivarem raja nem amta avasta avi. tivarem rajaim sriSiddhacalaji uparem anasana karyum. Hamsi nem Sarasi, e bem strio raja nem najha mem chem. dehara mahem vana nem visem sudo chem. ehavem raja num dhamna suda mam gayum. tivarem raja nem tirjamca ayum bamdhanum. te raja memrinem sudo thayo anem Hamsi anem Sarasi be strio vairagya pammi, caritra leinem, kala karinem, Sodharmadevaloke devata thaya. te avadhi anasana karinem devata thaya. te avadhi-jnanem joyum pota na bharatara nem suda no avatara jani, suda nem pratibodha didho. sumde pana devamgana na musa thi pota num svarupa jani, anasana kari Sodharma-devalokem devata thayo. ti(varem) Jitasatru-raja no jiva Mrgadhvaja raja no putra Sukaraja nammem thayo. te Suka-rajamdrem dravya thi ghana satru nem jiti pota num rajya lidhum. tem divasa thi e tirtha num nama Setrujaya pragata thayum. vali bhava vayari je ragadvesa tehanem jiti nirvana-pada varya. te matem Semtrumjaya tirtha kahiim. e tirtha nem visem Candrasesara namem raja e tirtha na darsana karinem, muni agalem pota na prayachita alo(ca)na leinem, samjama leinem, anasana kari raja mugatem gayo. sriAbhinandanaprabh(u) nem Vajranabha-pramusa 116 sola ganadhara, sadhu trina lasa, Ajitajipramusa cha lasa chatrisa haja(ra) sadhavi, be lasa atthavisa hajara sravaka, paca lasa satavisa hajara srav(i)ka. eka hajara purusa sathem diksa lidhi. sadha trina sem dhanusa deha-mamna, pamcasa lasa purva numausum, kamcana-varna, kapi-lamchana, hajara muni-raja samghatem anasana kari sriSametasisarem sidha-pada nem varya. ehava sriAbhinandana-svami nem namaskara karu chumh. namo stu sriSiddhacalaya namo namah //4// sri srih // पटदर्शन - 29 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमतिनाथजी 5. Sri Sumatinathaji 30 पटदर्शन Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवेयांचनासमतिनाथअरिवंताश्रीसिधपधास्वादे ताशसमवसरणनीस्चिनाकातेधिगवे सिदेसना नधिषश्रीसिधावजीमहिमान्नलिरीतंवरणेच्योकितनाएक नापाणिनि-बोधयामा तिर्थनामहिमामोटोजागी। घेरा पाणी चारित्रले असणकरीमध्यबस्था श्रीम मतिमाथजीईसहस्त्रमुरुषसंघानेबतलीकं चमरपमुषमा २००गलधर धिणनावीसझारसाकतापिषमषपांचला पत्रिमहज़ारसाधची रेलाषअडारहजारश्रावक यांचुला सोलरमारश्राविका चिपसेंधन्षदेमान बानिसलाई प्रायु कंचनवरामिरीर कौवलंबन एकरजारमनीः संघातोश्रीसमतसीघरजिजयरेसिपदनेवासा एहवा अनीसशिनायाने चाडबुमानशासानीशेजयायची तायनमानमानीविमलाक्लायनमोनमापाप्राना मूल पाठ हवे पांचमा सुमतिनाथ अरिहंत। श्री सिध खेवें पध्यारया। देवताई समवसरणनी रचना करी। ते त्रिागडें बेसि देसनाने विषई श्री सिधाच(ल)जी महिमा भलि रीते वर्णव्यो। केतलां एक भव्य प्रांणि प्रतिबोध पामी, तिर्थनो महिमा मोटो जाणी, वैराग आंणी, चारित्र लेई, अणसण करी सिधपदनं वरया। श्री सुमितनाथजीइं सहस्र पुरुष संघाते व्रत ली / चमर प्रमुख सो 100 गणधर, त्रिण लाख वीस हजार साधु, तापि प्रमुख पांच लाख त्रिस हजार साधवी, बे लाख अढार हजार श्रावक, पांच लाख सोल हजार श्राविका। त्रिण्यसें धनूष देहमान, चालिस लाख पुर्व- आयुं, कंचन वर्ण सरीर, क्रौच लंछन, एक हजार मुनी संघाते श्री समतसीखरजि उपरें सिद्धपदने वऱ्या। एहवा श्री सुमतिनाथने वांदु छुः। नमोस्तुः। श्रीशेजुजय पर्वताय नमोनमः। श्री विमलाचलाय नमोनमः।5। श्री श्री पटदर्शन Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद 5. सुमतिनाथजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या अंगीकार की थी। विचरण करते हुए आपश्री सिद्धक्षेत्र पर पधारें। वहां देवता ने समवसरण की रचना की। अपनी देशना में आपने सिद्धाचलजी का माहात्म्य बतलाया। उससे प्रतिबोधित होकर, तीर्थ का माहात्म्य सविशेष समझकर भव्य प्राणियों ने दीक्षा ग्रहण की, अनशन व्रत ग्रहण किये और सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। आपके परिवार में चरम प्रमुख 100 गणधर थे। 3,20,000 साधु, तापि प्रमुख 5,30,000 साध्वियां, 2,18,000 श्रावक और 5,16,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 300 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन क्रौंच है। आपकी कुल आयु 40 लाख पूर्व थी। अपना अंतिम समय नजदीक जानकर 1000 मुनियों के साथ आप सम्मेतशिखरजी पधारे। वहां अनशन व्रत ग्रहण किये और सिद्धत्व प्राप्त किया। श्री शत्रुजयतीर्थ को भावपूर्वक वंदन। श्री विमलाचल तीर्थ को भावपूर्वक वंदन। पाँचवे तीर्थंकर श्री सुमतिनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration //havem pamcama Sumatinatha-arihanta // sriSidha-setrem padhyarya. devataim samavasarana ni racana kari. te tri-gadem besi desana nem visaim sriSidhaca(la)ji mahima bhali ritem varnavyo. ketala eka bhavya-pramni pratibodha pammi, tirtha no mahima moto jamni, vairagi amni, caritra lei, anasana kari, sidhapada nem varya. sriSumatinathajiim sahasra purusa samghatem vrata lidhum. Camara-pramusa so100 ganadhara, trina lasa visa hajara sadhu, Tapi-pramusa pamca lasa trisa hajara sadhavi, be lasa adhara hajara sravaka, pamca lasa sola hajara sravika, trinya sem dhanusa deha-mamna, calisa lasa purva num ayum, kamcana-varma-sarira, krauca-lamchana.eka hajara munih-samghatem sriSamatasisaraji uparem sidha-pada nem varya. ehava sriSu(ma)tinatha nem vamdum chum // namo stuh // SriSetrumjaya-parvataya namo namah // SriVimalacalaya namo namah // 5 // sri sri. 32 - पटदर्शन Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मप्रभुजी 6. Sri Padmaprabhuji पटदर्शन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेबछायापकमिनेनमस्कारहाणा श्रीमिबलमीईपक्षा स्वा श्रीसिहावलजीनामतिमाविसावरण्या सामलिमीचा घणश्रीविनलावल नेसवताथया सानिवसिधपद वस्या श्रीयापकानां सहस्रपुरषसंबनलीकाश्रीजसापामारक सो सातगाधरात्रिणलापत्रिससारसाधारतियापधार घाविमझारसाची बेलाषयावरहजार श्रावक पांचलाषयान हजारश्नामिका अधिनुषहमाविसलाबपुखमा रक्तपियलमायअनचायासाकसहिमा श्रीसमेत सिषरेसिधपदवस्यानमारकः श्रीनिमलजिवलजीतमनस्का करूाधा मूल पाठ हवे छट्ठा पद्मप्रभुजिने नमस्कार होः। 6 श्री सिधाचलजीइं पधारया। श्री सिधाचलजीनो महिमा विसेष वरणव्यो। ते सांभलि जीवः घणा श्री विमलाचलने सेवतां थया। घणां जिव सिधपदनें वरयां। श्री पद्मप्रभुजिइं सहस्र पुरुष सुं व्रत ली / श्री जसः प्रमुख एकसो सात गणधर, त्रिण लाख छत्रिस हजार साधु, रति प्रमुख चार लाख विस हजार साधवी, बे लाख छेयातेर हजार श्रावक, पांच लाख पांच हजार श्राविका। अढिसें धनूष देहमा(न), त्रिस लाख पूरवनूं आउं, रक्त वर्ण, पद्म लंछनः। आठसें अने त्रीण साधु सहित श्री समेतसिखरे सिद्धपद वरया। नमोस्तुः श्री विमलजिचलजीनें नमस्कार करूं छुः।6। हिन्दी अनुवाद 6. पद्मप्रभुजी आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या अंगीकार की थी। विचरण करते हुए आप सिद्धाचलजी पधारें। अपनी देशना में सिद्धाचलजी की महिमा बताई। उससे प्रतिबोधित होकर भव्य-प्राणियों ने प्रव्रज्या ग्रहण की और सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। पटदर्शन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके परिवार में श्रीयश (सुव्रत) प्रमुख 107 गणधर थे। 3,36,000 साधु, रति प्रमुख 4,20,000 साध्वियां, 2,76,000 श्रावक और 5,05,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 250 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण रक्त है। आपका लांछन पद्म (रक्त कमल) है। आपकी कुल आयु तीस लाख पूर्व की थी। आपका निर्वाण समय समीप जानकर आप सम्मेतशिखर पर पधारें। आप 803 साधु सहित वहां पहुंचे। आपने अनशन व्रत ग्रहण किये और सिद्धत्वमोक्षपद प्राप्त किया। श्री विमलाचलजी तीर्थ को भावपूर्वक वंदन। छडे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभुजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration // have chattha Padmaprabhuji nem namaskara hoh // sriSiddhacalajiim padharya. sriSiddhacalaji no mahima visem <$a>/ varanavyo. te sabhali jivah ghana sri Vimalacala nem sevata thaya. ghana jiva sidha-pada nem varya. sriPadmaprabhujiim sahasra purusa sum vrata lidhum. SriJasah-pramusa eka so sata ganadhara, trina lasa chatrisa hajara sadhu, Rati-pramusa cara lasa visa hajara sadhavi, be lasa cheyatera hajara sravaka, pamca lasa pamca hajara sravika, adhi sem dhanusa deha ma. trisa lasa purava nam aumh, rakta-varna, padma-lamchanah, atha sem anem trina sadhu-sahita sriSameta-sisarem sidha-pada varya// namo stu sri Vimalajicalaji nem namaskara karum chum // 6// 4 Mistake or sign to note an abridgment: what has been said in full for the preceding Jinas is implied here as well. पटदर्शन - 35 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुपार्श्वनाथजी NMUDI Kum 10. 7. Sri Suparsvanathaji 36 पटदर्शन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवेसातमाश्रीरूयाश्चस्वामिा एकहजारपरषसंघाचनलिधु विधानपतषः पचाएंगणधर चिणलापसाझ सामाप्रपच्यास छत्रीयफहजारसाधची बेलाषसतावनहजारश्रावक च्यारला बासनामाविका परमानविसलापर्वनिआ स्वस्तिकलंबन कंचनवल विचरता श्रीसिधाचलजिनोसय र्यकरी पाच मुनिसंघाश्रीसमेतसिघमिधादनेवस्थान नमोस्तश्रीहरिकपर्वताश्रीमिधाज्ञी विमलाइनमस्का रोजोपावस्वामिनासंबंधात्री, मूल पाठ हवे सातमा श्री सुपार्श्वस्वामि। एक हजार पुरुष संघाते व्रत लिधुं। विधार्भ प्रमुखः पंचागुंगणधर, त्रिण लाख साधु, सांमा प्रमुख च्यार लाख त्रीणुं हजार साधवी, बे लाख सतावन हजार श्रावक, च्यार लाख त्राणुं हजार श्राविका, बसें धनुष देहमान, विस लाख पूर्वन आउं, स्वस्तिक लंछन, कंचन वर्ण। विचरतां श्री सिधाचलजीनो सपर्य करी पांचसे मुनि संघाते श्री समेतशिखरे सिधपदने वऱ्याः। नमोस्तु श्री पुंडरिक पर्वतः। श्री सिधाद्री विमलाद्रीने नमस्कार होज्योंः।7। सुपार्श्वस्वामिनो संबंधः श्रीः। हिन्दी अनुवाद 7. सुपार्श्वनाथजी आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या अंगीकार की थी। आपके परिवार में विधार्भ (विदर्भ) प्रमुख 95 गणधर थे। 3,00,000 साधु, सोमा प्रमुख 4,93,000 साध्वियां, 2,57,000 श्रावक और 4,93,000 श्राविकाएँ थीं। आपका देहमान 200 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन स्वस्तिक है। आपकी कुल आयु बीस लाख पूर्व की थी। अपना निर्वाण समय समीप जानकर आप पांच सौ मुनियों के साथ सम्मेतशिखर पर पधारे। वहां आपने अनशन व्रत ग्रहण किये और निर्वाण पद-सिद्धत्व प्राप्त किया। श्री पुंडरिकगिरि, श्री सिद्धाचल-विमलाचल तीर्थ को भावपूर्वक वंदन। सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथजी को भक्ति-भाव पूर्वक वंदन। Transliteration l/havem satama sriSuparsva-svammi / eka hajara purasa samghate vrata lidhum. Vidharbhapramusah pamcanum ganadhara, trina lasa sadhu, Samma-pramusa cyara lasa trinum hajara sadhavi, be lasa satavana hajara sravaka, cyara lasa tranum hajara sravika, ba sem dhanusa deha-mamna, visa lasa purva num aum, svastika-lamchana, kamcana-varna. vicarata sriSidhacalaji no saparsya kari pacasem muni samghatem sriSameta-sisarem sidha-pada nem varyah. namo stu sriPundarika-parvatah sriSidhadri Vimaladri nem namaskara hojyoh //// Suparsva-svami no sambandhah // srih // पटदर्शन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चंद्रप्रभुजी 33335SSY 25-- 8. Sri Candraprabhuji 38 पटदर्शन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहवआवमानीचपनस्वामिाएकहजारयूरुषसंघातेवता जायलिधो दिनपमघवारफेगएश्वराबेलाषयचासहजारसाधा समनापमषधिणलाक्सीहासाधवी लाघपंचासहजारमा वक ध्यारलाधएकाफहमारयाचिका दोउसाधनषदेहमान दसलाधपूर्वायु स्वेतवर्णससिलंघन एहवाश्रीचं धोद्यानमाबीसमासस्वा सप्नवसरणदेवरच्युनीसीधाचलजा मोगुणाविकपो तिहासघरना राजादेसनासाजली तिर्थनोमहिमा मोटोजोमी उछारकरिकराच्या श्रीचंपक जाविहारकरता एकहजारपूरुषसंनीसमेतसिपरेंसिधप पदनेवस्वानमोस्तश्रीमुकिगिरीजीनेनमानमः॥श्रीबाई निलगिरीराजनेनमोनमः // श्री. श्री श्री. श्री मूल पाठ हवे आठमा श्री चंद्रप्रभु स्वामि। एक हजार पुरुष संघाते व्रत प्रजाय लिधो। दिन प्रमुख त्राणुं गणधर, बे लाख पचास हजार साधु, सुमना प्रमुख त्रिण लाख ॲसी हजा(र) साधवी, बे लाख पचास हजार श्रावक, च्यार लाख एकाणु हजार श्राविका, दोढसो धनूष देहमान, दस लाख पूर्व- आयु, स्वेत वर्ण, ससि लंछन, एहवा श्री चंद्रप्रभु चंद्रोद्यान आवी समोसरया। समवसरण देवें रच्यु। श्री सिधाचलजीनो गुण वर्णव करयो। तिहां चंद्रसेखर नामें राजा। देशना सांभली तिर्थनो महिमा मोटो जांणी, उधार फरि कराव्यो। श्री चंद्रप्रभुजी विहार करतां एक हजार पुरुष सुं श्रीसमेतशिखरेः सिधपदने वरयाः। नमोस्त श्री मक्तिगिरिजीने नमोनमः। श्री बाहबल गिरिराजनें नमोनमः।8। श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः। हिन्दी अनुवाद 8. चंद्रप्रभुजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या अंगीकार की थी। आपके परिवार में दत्त प्रमुख 93 गणधर थे। 2,50,000 साधु, सुमन (सुमना) प्रमुख 3,80,000 साध्वियां, 2,50,000 श्रावक और 4,91,000 श्राविकाएं थीं। पटदर्शन 39 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका देहमान 150 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण सफेद (गौर) है। आपका लांछन शशि (चंद्र) है। आपकी कुल आयु 10 लाख पूर्व की थी। अपना निर्वाण काल समीप जानकर आप चंदोद्यान पधारे। देवों ने समवसरण की रचना की। अपनी धर्मदेशना में सिद्धाचलजी पर्वत का माहात्म्य बतलाया। प्रभु की देशना सुनकर भव्य प्राणी तीर्थ का माहात्म्य समझकर वहां आये। इससे प्रतिबोधित होकर चंद्रशेखर राजा ने वहां जीर्णोद्धार करवाया। अपना निर्वाण समय समीप जानकर आप 1000 साधुओं के साथ श्री सम्मेतशिखर पर पधारें। वहां आपने अनशन व्रत ग्रहण किये और सिद्धत्व-मोक्षपद प्राप्त किया। मुक्तिगिरिजी, श्री बाहुबल गिरिराज को भावपूर्वक वंदन। आठवें तीर्थंकर श्री पद्मप्रभु को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration // have athama sriCandraprabhu-svami / eka hajara purusa samghatem vrata prajaya lidho. Dina-pramusa tranum ganadhara, be lasa pamcasa hajara sadhu, Sumana-pramusa trina lasa esi haja(ra) sadhavi, be lasa pamcasa hajara sravaka, cyara lasa ekanu hajara sravika, dodha so dhanusa deha-mamna, dasa lasa purva num ayu, sveta-varna, sasi-lamchana, ehava sriCandraprabhu Candrodyana avi samosarya. samavasarana devem racyum. sriSidhacalaji no guna varnava karyo. tiha Candrasesara namem raja desanam sambhali, tirtha no mahima moto jamni, uddhara phari karavyo. sriCandraprabhuji vihara karata eka hajara purusa sum sriSameta-sisaremh sidhapada nem varyah. namo stu SriMuktigiriji nem namo namah // SriBahubala-giri-raja nem namo namah //8// Sri Sri Sri Sri // 40 पटदर्शन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुविधिनाथजी Cassam 9. Sri Suvidhinathaji स्टदर्शन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमात्रीशुधधिमाथजी परमेश्वरजीराकहजार युरुषसता बालीकावारापासीगणधरबेलाघमुगावारुणिमु| एकलाविसहजारसाधवी बेलाषगराधिसहजारश्रावक पारलाश्कोतरमारमाविका एकसोधनषदहमानला पश्चायु स्वेतवर्ण मगरलंबन विवरता श्रीसिछाचलन याव्याश्रीसिवायलजीनेटरी एकहजारसंघातें श्रीस Haसिघर सिधपवस्वाः नमोस्तःश्रीसिघाडी:श्रीविमल एलजीनीनमस्कारहजारणा मूल पाठ नवमा श्री श्रुवधिनाथजीः परमेश्वरजी। एक हजार पुरुष संघाते व्रत लीधुंः। वाराह प्र(मु)खः एसी गणधर। बे लाख मु(नि) ग(?) वारुणि प्रमुखः एक लाख विस हजार साधवी, बे लाख ओगणत्रिस हजार श्रावक, च्यार ला(ख) इकोतर हजार श्राविका। एकसो धनूष देहमान, बे लाख पूर्व- आयुं, स्वेत वर्ण, मगर लंछन। विचरतां श्री सिद्धाचलजीइं आव्या। श्री सिद्धाचलजी भेटी एक हजार पुरुष संघाते श्रीसमेतसिखरे सिधपद वरयां। नमोस्तुः श्री सिद्धाद्रीः। श्री विमलाचलजीनेः नमस्कार हज्योः।9 हिन्दी अनुवाद 9. सुविधिनाथजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में वराह प्रमुख 80 गणधर थे। 2,00,000 साधु, 1,20,000 साध्वियां, 2,29,000 श्रावक और 4,71,000 श्राविकाएं थीं। पटदर्शन Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका देहमान 100 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण श्वेत (सफेद-गौर) है। आपका लांछन मगर (मकर) है। आपकी कुल आयु दो लाख पूर्व की थी। आयुष्य काल की समाप्ति निकट जानकर आप 1000 मुनियों के साथ सम्मेतशिखर पर पधारें। वहां अनशनपूर्वक कायोत्सर्ग अवस्था में चार घनघाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान-केवलदर्शन पाया। नौवें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration navama sriSuvadhinathajih-paramesvarajih eka hajarah purusa samghatem vrata lidhum. Baraha-pra(mu)sa esi ganadhara, be lasa mu(ni) Varuni-pramusah, eka lasa visa hajara sadhavi, be lasa oganatrisa hajara Sravaka, cyara la. ikotara hajra sravika, eka so dhanusa deha-mamna, bem lasa purva num ayum, sveta-varna, magara-lamchana. vicarata sriSiddhacalajiim avya, sriSiddhacalaji bheti eka hajara purusa samghatem sriSamata-sisare sidha-pada varyah. namo stu sriSiddhadrih sri Vimalacalaji nemh namaskara hajyoh // 9 // बटदर्शन - 43 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शीतलनाथजी NAAD 95353 EENEE SHARRAIME RAND SEE L ___10. Sri Sitalanathaji पटदर्शन Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेदसमाश्रीसीतलनाथपरमेश्वरजी.एकहजारपूरुव सिंघातेदियानंदयमषाराकासीगणधर एकलाषसाधा सुजसाघमषाराधनाथलमारसाधधी बेलाघनगन्यासीह मायाको ध्यानाहानमाराकानेटवघ दिहमामएकत्ताच्याकंचना श्रीवलंबवतेसित्तः लपरमेश्वरजीनीमिछावानजीईपाच्या देसनादेशलाजीवने तिबोधता एकहजारपूरुषसंघात श्रीसमेतसिषरयरचतेमाझे पध्यास्याःनमोनमः श्रीमुमरिकगिरी विमलागिरीनेनमान मारा श्री श्री श्री श्री श्री श्री. श्री श्री मूल पाठ हवे दसमा श्री सीतलनाथ परमेश्वरजीः। एक हजार पुरुष संघाते दिक्ष्या। नंद प्रमुख एकासी गणधरः, एक लाख साधु, सुजसा प्रमुखः एक लाख छ हजार साधवी, बे लाख अगन्यासी हजार श्रावक, च्यार लाख अठावन हजार श्राविका। नेउ धनुष देहमान, एक लाख पूर्व आयु, कंचन वर्ण, श्रीवछ लंछन। ते सितल परमेश्वरजी श्री सिधाचलजीइं आव्या। देसना देइ भव्य जीवनें प्रतिबोधता एक हजार पुरुष संघातें श्रीसमेतसिखर परवतेः मोक्षे पध्यारयाः। नमोनमः श्री पंडरिक गिरीः विमला गिरीने नमोनमः।10। श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः। हिन्दी अनुवाद 10. शीतलनाथजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में नंद प्रमुख 81 गणधर थे। 1,00,000 साधु, सुयशा (सुजसा) प्रमुख 1,06,000 साध्वियां, 2,79,000 श्रावक और 4,58,000 श्राविकाएं थीं। पटदर्शन Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका देहमान 90 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन श्रीवत्स है। आपकी कुल आयु एक लाख पूर्व थी। अपना निर्वाण समय नजदीक जानकर आप सिद्धाचलजी-सम्मेतशिखर पर पधारें। वहां आपने अपनी देशना से भव्य जीवों को प्रतिबोधित किया। वहां आपने एक हजार मुनियों के साथ अनशन व्रत ग्रहण किए। शेष कर्मों का क्षय करके आपने मोक्षपद प्राप्त किया। श्री पुंडरिकगिरि, श्री विमलाचल को वंदन। दसवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथजी को भक्ति-भाव पूर्वक वंदन। Transliteration //havem dasama sriSitalanatha-paramesvarajih eka hajara purusa samghatem diksya. Nanda-pramusah ekasi ganadharah, eka lasa sadhuh, Sujasa-pramusah eka lasa cha hajara sadhavi, be lasa aganyasi hajara sravakah, cyara lasa atthavana hajara sravika, neu dhanusa deha-mamna, eka lasa purva ayu, kamcana-varna, srivacha-lamchana. te Sitala-paramesvaraji sriSiddhacalajiim avya. desana dei bhavya-jiva nem pratibodhata eka hajara purusa samghatem sriSameta-sisara paravatem moksem padhyaryah. namo namoh sriPudarikagirih Vimalagiri nem namo namah // 10 // srih srih srih srih srih srih Srih Srih. 46 पटदर्शन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. श्री श्रेयांसनाथजी 11. Sri Sreyamsanathaji पटदर्शन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाइपारमानीटासपनजी एकहजारयूषसंदिदा कस्तनपाएगानेरगाधराचौरासिहजारमनिराजधाराण प्रमएकाला त्रिसहजारसाधवी बनाषगएिप्ससीहजार वक च्यारलाषमतालीसहजारश्राविका सिधनषदेव मान चोरासीलाषघरसयूआ कनवरणसरीर धंगलंब नएवाश्रीयंसपरमेश्वरजी:श्रीविमनाचलगिरीसधास श्रीविमलालमोवर्णनकस्यो। विहारकरता एकहजारसुर बसंघान्नेसमेंतसिषरेमोक्षपदवरानमोस्तविमलगिरीरा जश्रीसिावलजीनेनमस्कारहजोगाथा श्री श्री मूल पाठ हवे इग्यारमा श्री श्रेयांसप्रभुजी। एक हजार पु(रु)ष सुं दिक्षाः, कस्तुभ प्रमुख छ्योतेर गणधरः, चौरासि हजार मुनिराज, धारणि प्रमुख एक लाख त्रिस हजार साधवी, 3 लाख उगणियासी हजार श्रावक, च्यार लाख अडतालीस हजार श्राविका। अॅसि 80 धनूष देहमान, चोरासी लाख वरसनूं आउं, कंचन वरण सरीर, खंडग लंछन। एहवा श्री श्रेयस परमेश्वरजीः श्री विमलाचलगिरीइं पधारया। श्री विमलाचलनो वर्णव करयोः। विहार करतां एक हजार पुरुष संघातें समेतसिखरें मोक्ष पद वरया। नमोस्तु विमलगिरी राज श्री सिधाचलजीने नमस्कार हजोः। 11श्रीः श्रीः। हिन्दी अनुवाद 11. श्रेयांसनाथजी आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में कौस्तुभ (गोशुभ), प्रमुख 76 गणधर थे। 84,000 साधु, धारिणी प्रमुख 1,30,000 साध्वियां, 2,79,000 श्रावक और 4,48,000 श्राविकाएं थीं। पटदर्शन Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका देहमान 80 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन है। आपका लांछन खड्गी (गेंडा) है। आपकी आयु पूरे चौरासी लाख वर्ष की थी। अपना निर्वाण काल समीप जानकर आप विमलाचल गिरि-सम्मेतशिखर पधारे। वहां आपने विमलाचल की महिमा दिखाई। आपने एक हजार मुनियों के साथ अनशन व्रत ग्रहण किए और मोक्ष पद प्राप्त किया। श्री विमलगिरिराज-सम्मेतशिखरजी को भावपूर्वक वंदन। ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration //havehigyarama sriSreyamsa-prabhujieka hajara pu(ru)sa sum diksah // Kastubha-pramusa chyotera ganadharah, caurasi hajara muniraja Dharanipramusa eka lasa trisa hajara sadhavi, bem lasa uganiyasi hajara sravaka, cyara lasa adatalisa hajara sravika, emsi 80 dhanusa deha-mamna, corasi lasa varasa num aum, kamcana-varana-sarira, samdaga-lamchana. ehava sriSreyamsaparamesvarajih sri Vimalacalagirim padhar(y)a. sri Vimalacala no varnava karyoh. vihara karata eka hajara purusa samghatem Sammeta-sisarem moksa-pada varya 1/ namo stu Vimalagiriraja sriSiddhacalaji nem namaskara hajoh //11 // srih // Srih// टदर्शन - 49 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वासुपूज्यजी SEEERY 12. Sri Vasupujyaji 50 पटदर्शन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमानावासविस्वामिाअन्नपशष बासगरधराबाहो सरहजारमुनीरामाधरणिकपएकलापसाधवी:बलाषापार हमारयावकाचा रखापबबिसहजारमाविका सिनेरधनुषदेह मानबहोशेरलापवरमआटुयुःरक्तवरण:मषिलंबनबसेंमुः रमसंवतलीकं विचरतानीसिघाचलपधास्वा श्रीसिधाचालजी बमानघायु विहारकरता बसेंनिसहितचंपानगरी अगसकरीने परमयदनिरानाधपदयाम्पानिमोस्तविमल गिरी युरिकगिरासीहाडानेवाडा साजाजता मूल पाठ बारमा श्री वासुपूज्य स्वांमिः। श्रुभ प्रमुख छासट्ठ 66 गणधर, बोहोत्तर हजार मुनीराजः, धरणि प्रमुख एक लाख साधवीः, बे लाखः पन्नर हजार श्रावकः, चार लाख छत्रिस हजार श्राविका। सित्तेर धनूष देहमान, बहोत्तेर लाख वरसनुं आयुः। रक्त वरणः, महिष लंछनं, छसें परतां श्री सिधाचल पध्यारयाः। श्री सिधाचलनं बहमांन वर्णव्यं। विहार करतां छसें मुनि सहित चंपानगरीइं अणसण करीने परम पद निराबाध पद पाम्यां। नमोस्तु विमलगिरीः, पुंडरिकगिरीः सीधाद्रीनें वांदु छुः। 121 卐5 हिन्दी अनुवाद 12. वासुपूज्यजी आपके परिवार में श्रुभ (सुधर्मा) प्रमुख 66 गणधर थे। 72,000 साधु, धरणी प्रमुख 1,00,000 साध्वियां, 2,15,000 श्रावक और 4,36,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 70 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण रक्त है। आपका लांछन महिष है। आपकी आयु पूरे 72 लाख वर्ष की थी। विचरण करते आप सिद्धाचलजी पर पधारें। अपनी देशना में आपने सिद्धाचलजी का माहात्म्य सविस्तार दर्शाया। अपना | मोक्षकाल समीप जानकर आप 600 मुनियों के साथ चंपानगर पधारे। वहां आपने 600 मुनियों के साथ अनशन व्रत ग्रहण किया। शेष कर्मों का क्षय करके आपने परमपद निर्वाण प्राप्त किया। विमलगिरि, पुंडरीकगिरि, सिद्धाद्री को भावपूर्वक वंदन। बारहवें तीर्थंकर श्रीवासुपूज्यजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration //barama sri Vasupujya-svammih subha-pramusa chasattha 66 ganadhara, bohottara hajara munirajah, Dharani-pramusa eka lasa sadhavih, be lasa pannara hajara sravakah, cara lasa chatrisa hajara sravika, sittera dhanusa deha-mamna, bahottera lasa varasa numayumh, rakta-varanah, mahisalamchana. cha sem purasa sum vrata lidhum. vicarata sriSiddhacala padhyaryah. sriSidhacalaji num bahu-mamna varnavyum. vihara karata cha sem mumni-sahita Campa-nagariim anasana karinem, parama-pada nirabadha-pada pammyah// namo stu Vimalagirih Pundarika-girih // Siddhadri nem vamdu chum // 12// [3 svastikas]. पटदर्शन R -51 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विमलनाथजी SEARE 13. Sri Vimalanathaji 52 पटदर्शन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहवेलरमाःविमलनाथपरमेश्वरजी:एकसहसपुरुषस्मृदियाः दारपुषसत्तावनगयाघरासम्हजारमानाराकानापमानसम वीबिलापनाउहजार आवकःयारलाषाविसबजारमाविका साधबदेहमामासाहलायरसमुंवायु: हेमवरणातअरमनः विशरकरताविमलगिराईपधास्यासिगिरीनोवतकरीविच रखानीसमेतसिभेनेजीउपरेमरसहाकाबहजारमुनिराजस्थ मिधानेरास्वाधीविमलपरमेस्वरजी नमस्कारमा नमोस्तासागरीयुमरिकगिरिनेवाई // श्रीः॥ श्री मूल पाठ एक सहस्र पुरुषस्युं दिक्ष्या। मंदीर प्रमुख सतावन गणधर, (अ)डसठ्ठ हजार मुंनिः, एक लाख आठसें साधवी, बे लाख आठ्ठ हजारः श्रावक, च्यार लाख चोविस हजार श्राविका। साठ धनुष देहमान, साठ लाख वरसनुं आयुः, हेम वरण, सुअर लंछनः, विहार करतां विमलगिरीइं पधारया, सिधगिरीनो वर्णव करी, विचरता श्री समेतसिखरेजी उपरें अणसण करी छ हजार मुनिराजस्युं सिधपदेने वरया। एहवा श्री विमल परमेस्वरजी ने नमस्कार हज्योः। नमोस्तु सिधगिरीः पुंडरिकगिरिने वांदु छु।13। श्रीः। श्रीः हिन्दी अनुवाद 13. विमलनाथजी आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में मंदीर (मन्दर) प्रमुख 57 गणधर थे। 68,000 साधु, 1,00,800 साध्वियां, 2,08,000 श्रावक और 4,24,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 60 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण हेम (सुवर्ण) हैं। आपका लांछन सुअर (वराह) है। आपकी कुल आयु पूरे साठ लाख साल की थी। घटदर्शन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचरण करते हुए आप विमलजी पधारे। वहां आपने सिद्धगिरि का माहात्म्य दर्शाया। अपना निर्वाण काल समीप जानकर छः हजार मुनियों के साथ आपने अनशन व्रत ग्रहण किये और मोक्ष प्राप्त किया। सिद्धगिरि, पुंडरीकगिरि को भावपूर्वक वंदन। तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration l/havem teramah Vimalanatha-paramesvarajih eka sahasra purusa syum diksyah. Mandira-pramusa satavana ganadhara, (a)dasattha hajara mumnih, eka lasa atha sem sadhavi, be lasa attha hajara sravakah, cyara lasa covisa hajara sravika, sattha dhanusa deha-mamna, sattha lasa varasa num ayumh, hema-varana, suara-lamchanah. vihara karata Vimalagirim padharya. Sidhagiri no varnava kari, vicarata sriSameta-sisareji uparem anasana kari, cha hajara muni-raja syum sidha-padem nem varya. ehava sri Vimala-paramemsvaraji nem / namaskara hajyoh namo stu Sidhagirih Pumdarikagiri nem vamdum chumh // 13 // Srih // srih // 54 - पटदर्शन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. श्री अनंतनाथजी OM क ( 14. Sri Anantanathaji पटदर्शन Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेवाग्दमानंतनाथमावान: एकरमारपुरुषस्वसनिक जमयमषपदासगराधा पचासहजारमनिःपद्यावतिपतषबा सरजारमाधवी वेलाषनजारनायक पारलाषदसहजारश्राविका पंचासघनपदेहमान धिमालापवरसन्नायु कंचनवर्णसिंधागोलंब न विचरतानीसिधाधलजाइमाच्या श्रीवामलाचलघर्गवि विहार करता सातहमास्युरुषसं श्रीसमेतसिपरेसिघणवस्या ब्रीअनं तनाथ जिनेश्वरनेवाऽबनमोस्तसकानतीर्थराजपुरुरिकगि रिराजनेनमस्कारोज्योरा मूल पाठ हवे चोउदमाः अनंतनाथ भगवान्ः। एक हजार पुरुष स्युं व्रत लिधुं। जस प्रमुख पंचास गणधर, पचास हजार मुनि, पद्मावति प्रमुख बासठ्ठ हजार साधवी, बेलार हजार श्रावक, च्यार लाख दस हजार श्राविका। पचास धनूष देहमांन। त्रिस लाख वरस, आयु, कंचन वर्ण, सिंचाणो लंछन, विच . श्री सिधाचलजीइं आव्या। श्री वीमलाचल, वर्णवि विहार करतां सात हजार पुरुषस्युं श्रीसमेतसिखरें सिधपद वऱ्या। श्री अनंतनाथ जिनेश्वरनें वांदु छु। नमोस्तु सकल तीर्थराजने पुंडरिक गिरिराजने नमस्कार होज्यो।14। हिन्दी अनुवाद 14. अनंतनाथजी आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में जश (यश) प्रमुख 50 गणधर थे। 50,000 साधु, पद्मावती प्रमुख 62,000 साध्वियां, 2,06,000 श्रावक और 4,10,000 श्राविकाएं थीं। ___आपका देहमान 50 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन सिंश्येन है। आपकी कुल आयु पूरे तीस लाख साल की थी। विचरण करते हुए आप श्रीसिद्धाचलजी पधारें। अपनी देशना में विमलाचल की महिमा प्ररूपित की। अपना निर्वाण समय नजदीक जानकर आपने 7,000 साधुओं के साथ सम्मेतशिखर पर एक मास का अनशन व्रत ग्रहण किया और निर्वाण प्राप्त किया। सकल तीर्थराज श्री पुंडरीक गिरिराज को भावपूर्वक वंदन। चौदहवें तीर्थंकर श्री अनंतनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration // havem coudamah Anantanatha-bhagavanh eka hajara purusa syum vrata lidhum. Jasapramusa pacasa ganadharah, pacasa hajara munih, Padmavati-pramusa basattha hajara sadhavi, be lasa cha hajara sravaka, cyara lasa dasa hajara sravika, pamcasa dhanumsa deha-mamna, trisa lasa varasa num ayum, kamcana-varna, simcano-lamchana. vicarata sriSidhacalajiim avya. sri Vimalacala varnavi vihara karata sata hajara purusa sum sriSameta-sisarem sidha-pada varya. sriAnantanatha-jinesvara nem vamdum chum. namo stu sakala tirtha-raja nem Pundarika-giriraja nem namaskara hojyo // 1411 56 पटदर्शन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. श्री धर्मनाथजी VBOUBLED 15. Sri Dharmanathaji चटदर्शन Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पनरमाधरमनाथस्वामिएकझारपुरुससंवतलिकं अरियम घवेतालीसगएधरघोसहहजारसाक बासहरजारम्भमें व्यारस्पः साथची बेलाषच्यारहजारश्रावक चारनातिरमारमाविका पीला जीसधनषदेमानसलाघवधा कंचनवर्ग:वालबनवि घरताश्रीविलगिरीयधास्वा घाजीवतिर्थनोमरिमाकदिवि हारकरतासमतसिघरे माहम्मुनीसहीताश्रीधर्मनाथपस स्वरसिध्पदामोपाध्याममोकश्रीसिधाचनविमलाच लपर्वतायनेमोनम नमस्कारोज्योः // 25 // श्रीः श्री: मूल पाठ हवें पनरमा धरमनाथ स्वामिः। एक हजार पुरुषसुं व्रत लिधुं। अरिष्ट प्रमुखः त्रेतालीस गणधर, चोसठ्ठ हजार साधु, बासठ्ठ हजार अने च्यारस्यें साधवी, बे लाख च्यार हजार श्रावक, चार लाख तेर हजार श्राविका। पीस्तालीस धनूंष देहमान, दस लाख वर्ष आउं. कंचन वर्णः वज लंछन। विचरतां श्री विमलगिरीइं पधारया। घणां जीवनें तिर्थनो महिमा कहि विहार करतां समतसिखरेंः आट्ठस्य मुंनी सहीतः श्री धर्मनाथ परमेस्वर सिधपदे वरया, मोक्ष पाम्याः। नमोस्तु श्री सिधाचल, विमलाचल पर्वताय ने(न)मो नमं नमस्कार होज्योः। 15 / श्रीः श्रीः। हिन्दी अनुवाद 15. धर्मनाथजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में अरिष्ट प्रमुख 43 गणधर थे। 64,000 साधु, 62,400 साध्वियां, 2,04,000 श्रावक और 4,13,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 45 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन वज्र है। आपकी आयु पूरे दस लाख वर्ष की थी। पटदर्शन Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचरण करते हुए आप विमलगिरिजी पधारें। अपनी देशना में भव्य जीवों को तीर्थ महिमा दर्शाया। अपना निर्वाण समय नजदीक जानकर 800 मुनियों के साथ सम्मेतशिखर पहुंचे। वहाँ आपने अनशन व्रत ग्रहण किये और परमपद-मोक्षपद प्राप्त किया। श्री सिद्धाचल, विमलाचलजी को भावपूर्वक वंदन। पन्द्रहवें तीर्थंकर श्रीधर्मनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration // havem panarama Dharamanatha-svamih eka hajara purusa sum vrata lidhum. Arista-pramusah tretalisa ganadhara, cosattha hajara sadhu, basattha hajara anem cyara syem sadhavi, be lasa cyara hajara sravaka, cara lasa tera hajara sravika, pistalisa dhanusa deha-mamna, dasa lasa varsa aum, kamcana-varnah, vajra-lamchana. vicarata sri Vimalagirim padharya. ghana jiva nem tirtha no mahima kahi. vihara karata Samata-sisaremh attha syem muni sahita sriDharmanatha-paramesvara sidhapade vamrya, moksa pammyah. namo stu sriSiddhacala Vimalacala parvataya nemo nama namaskara hojyoh // 15// पटदर्शन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. श्री शांतिनाथजी 16. Sri Santinathaji 60 पटदर्शन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखेंसोलमा श्रीज्ञानिनाथषकमीएकमास्यूरुषस दिशा उनीसगाधर बासछिजारमनि बासहिहजार सेंसाधवील बनेशरमाराचकविणलाघचाएंफहजारश्राविकाच्यानासधन बदेलाववरसाकंनमनगलंबनोश्रीशायरमेस जी करुदेसविरस्तिनागपुराना ऊसमध्यानधननेंविध। माधीसमोसस्या धमेस्सनाकही चक्रायुधराजानेवधामीमा वीवधामणीया नेमचंगपसायकरी चरगरासेनासजीने परमेश्व रजीने बादवामाव्या विषरकरणदेवादीने जयोसिनथानके छाएकजीइंधदिसनाकहरी सिहाचलमीनोवाकियो वीसी छावनजानोवर्णवसान्नानीनीसिहाचलनेव्याने नध्पनीमहब बताया एहवेंधक-आउधराजा हाथजोकिन परेमस्वरजीमें नतीकरी स्वामी श्रीसिछाधनजीनां सरवानीमुनंप्रन्नुम तयो तिवारंपरमेंदरजीना मुपागलेंसोमानाथालय स्वासेपुस्वाथको बिधारेचक्रप्रायुधरामाने परमेस्वरंगस्तकें वासबेपनाध्यो संघवीपथा इंजमालपेहरावितियाधीवस हितघाव्या देशदेसैकंकोतरीलघी संघएकोमल्याई दिरासर-प्राणिजापुमणिमय श्रीगतिनाथपरमेश्वरजीनीमरना मणिमयथापि देरासरसागलेंचा मंगलीककामकरीसर्वसंघ सहित श्रीसिधाचानजीयाध्या गिरिराजजीनोनिषिीमातिक गिरिरामवधाव्या निसास्वामिवबलकस्यानुनिसंताघी श्रीमि छाधनजानपरेचरमा तिनीषभदेवीनेनेटरीने पुजास्नात्र प्राोधकरीप्रकाहिकरीने याबारेशावरे नेटवत्तिा परमेस्वरमीना जिर्यासाच्छीका तिवारेंजरसचीनम घसादकराव्या भरतरामानीय निफरसनाकरी घरेश्रामी पुचराज्यप्राधी श्रीशानिमाकजीपासंचाखिलचिऋरधान वचनेचारियपालिकेवलकाममाम्या एकमासनीसलेषणाव रीघामुनिरासांघाने श्रीसमतसिषरेसिधपदसस्वा मोरुपाम्पर मनदासमय विधेश्रिमन्निसियनाथपरमेश्वर पावलिवेला इसहना उद्याननंधिप्राविसमासस्या लिहाएक सिरकम तकमाईनस्यो कालपरमेसरजीउपरेप्राध्याः निहाथीपा: बोपन्चो तिवारंबिमणकषाधुजरातिनारेबीजीवारचलिफाल दाधी तिमजपाचपन्यो तिमवानीपोकषायशराणा तिमवलि जीवारफालदिधी:लिप्रपाबायचो तिनासिंविधारशलागों कोकरामागे मुरूममाएराबनमांश्राध्या तहमबहार मोनारिकगतिथासें तैरनेपरमेमरंथरचनायकहिनधति बोधा तिहासिधावानजीना सिरउद्यानविअणसयाकरी माधदेवलोकेगा शिरथाअघधिकरीनाथुस्पघुरोपः करिदेवमायणं याम्या लिहावा निनाथ.परमश्वरजीमोमगारमाणी सिदनमैविध परमेसरमामा साक्षमीमनायो सिखापरमिजीमा पटदर्शन - 61 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुजानकिकरें तेनामनोविनिमपुरंतदाकानयी वनतनाम सिम सावननिष मिश्रीशांतिमापरमेसश्या सिग्द्यामधि नीसिवानजीनोमरिमासोन्नतिअनेकन्यजीवपत्तिबोध कामी काश्विलेश्णसाकरी घयाजवसिधावस्या नीशान्ति प्राथ विहारकरना समसिघरेनवस्पैमुनिसहितानासन्नभि करी सिपदनेचस्यानमोस्तविलगिरीपुकरीक गिनी नमस्काररोजगा॥२५॥ मूल पाठ हवे सोलमाः श्री शांतिनाथ प्रभुजी। एक हजार पुरुषसुं दिक्षा। छत्रीस गणधर, बासहि हजार मुनि, बासठ्ठि हजार छसें साधवी, बे लाख नेउ हजार श्रावक, त्रिण लाख त्राणुं हजार श्राविका। च्यालीस धनूष देहः, लाख वरसनूं आउं, कंचन वर्ण, मृग लंछन। ते श्री शां(ति) परमेसरजी कुरुदेशनें विषं, हस्तिनागपुरीना कुसुम उद्यान वनने विषे आवी समोसरया। धर्मदेसना कही। चक्रायुध राजाने वधामणी आवी। वधामणीयाने पचंग पसाय करी चतुरंगणी सेना सजीनें, परमेसरजीने वांदवा आव्या। त्रिप्रदक्षणा देई वांदीनें जथोस्तित थानकें बेट्ठा। प्रभुजीइं धर्मदेशना कही। सिधाचलजीनो वर्ण(व) कह्यो। ते क्षा सीद्धाचलजीनो वर्णव सांभली, श्री सिधाचल भेटवानें भव्य जीव हर्षवंत थया। एहवें चक्रआउध राजाई हाथ जोडिनें परमेस्वरजीने विनंती करी, "हे स्वामी! श्री सिधाचलजीनां संघवीनी मुझने अनुमत द्यो।" तिवारें परमेश्वरजीनां मुख आगलें इंद्रे सोनानो थाल धरयो, वांसे पुरयो थको, तिवारें चक्रआयुध राजानें परमेंस्वरें मस्तकें वासखेप नाख्यो। संघवी पद थाप्युं। इंद्रमाल पेहरावि, तिहांथी उछव सहित घरे आव्या। देशदेसें कंकोत्तरी लखी। संघ एकठो मलयो। इंद्रे देरासर आणि आपुं। मणिमय श्री शांतिनाथ परमेश्वरजीनी मुरतः मणिमय थापि देरासर आगले चालें। मंगलीक काम करी सर्व संघ सहित श्री सिधाचलजी आव्या। गिरिराजानो दर्शन देखी मोतिइं गिरिराज वधाव्यो। तिहां स्वामिवछल करयो। मुनिने संतोषी श्री सिधाचलजी उपरें चढ्या। तिहां श्री ऋषभदेवजी ने भेटीने पुजा-स्नात्र मोहोछव करी, अट्ठाहि करीने पाछा हेठा उतरें छे, तेहवें तिहां परमेस्वरजीना जिर्ण प्रसाद दीट्ठा। तिवारें भरत चक्रवर्तीनि परें प्रसाद कराव्या। भरत राजानी परें तिर्थ फरसना करी घरे आवी पुत्रने राज्य आपी, श्री शांतिप्रभुजी पासे चारित्र लेइ विश्रूध मन वचनें चारित्र पालि केवलज्ञान पाम्या। एक मासनी संलेखणा करी घणा मुनिराज सांघाते श्री समेतसिखरे सिधपद वरयां, मोक्ष पाम्यां। अनदा समयनें विषे श्रि संतिनाथ परमेश्वर पाछलि वेलाई सिंह नामें उद्यान में विषं आवि समोसरयां। तिहां एक सिंहकमर कषाइ भरयो फाल देई परमेंसरजी उपरेंः आव्यो। तिहांथी पाछो पड्यों तिवारें बिमणो कषाइं भराणो। तिवारें बीजी वार वलि फाल दीधीः, तिम ज पाछो पड्यो। तिम वली घणो कषाय भराणो। तिम वलि त्रीजी वार फाल दिधी, तिम पाछो पड़यो। तिवारे सिंह विचारवा लागो, "कोईक ए मोटो पुरुष माहरां वनमा आव्यो छे, तेहने में अवज्ञा करी। अहो माहरि कुण गति थासे?" तेहने परमेसरे पुरवभव कहिने प्रतिबोध्यो। तिहां सिधाचलजीना सिंह उद्यानने विषे अणसाण करी: आठमे देवलोके गयो। तिहथी अवधिई करीनें जोयु। हु स्यें पुण्यः करि देवतापणुं पाम्यो। तिहां शांतिनाथ परमेश्वरजीनो उपगार जाणी सिंहवनने विर्षे परमेसरजीनो प्रसाद नीपजाव्यो। तिहां परमेसिरजीनी पुजा भक्ति करें, देना मनोवंछित पुरै। तदाकालथी ते वन नाम 'सिंहवन | तिर्थ' प्रवत्तूं। पटवर्शन Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहां श्री शांतिना(थ) परमेसर रह्या सिंह उद्यानने विषे, श्री सिधाचलजीनो महिमा सांभलि, अनेक भव्य जीव प्रतिबोध पांमी चारित्र लेई अणसण करी घणा जीव सिधी वऱ्या। श्री शांतिनाथ विहार करतां समतसिखरें नवस्यें मुनि सहितः मास भक्ति करी सिधपदने वरयाः। नमोस्तु वि(म)लगिरीः, पुडरीकगिरी ने नमस्कार होज्यो।16। हिन्दी अनुवाद 16. शांतिनाथजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में 36 गणधर थे, 62,000 साधु, 62,600 साध्वियां, 2,90,000 श्रावक और 3,93,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान चालीस धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन है। आपका लांछन मृग है। आपकी आयु पूरे एक लाख वर्ष की थी। विचरण करते हुए क्रमशः आप कुरुदेश के हस्तिनागपुरी के कुसुम नामक उद्यान में पधारें। चक्रायुध राजा को प्रभु के शुभागमन की बधाईयां दी गई। राजा ने उसको पंचांग द्रव्य से प्रतिलाभित किया। अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ प्रभु दर्शनार्थ आये। तीन प्रदक्षिणा-वंदन विधि करके यथोचित स्थान ग्रहण किया। प्रभु ने देशना में सिद्धाचलजी का माहात्म्य निरुपित किया। चक्रायुध नृप भी वहां दर्शनार्थ जाने हेतु उत्सुक हो गये। उन्होंने प्रभु से संघवी पदवी की अनुमति के लिए विनम्र विनती की। इन्द्र ने प्रभु समक्ष वासक्षेप, इंद्रमाला इत्यादि युक्त सुवर्णथाल प्रस्तुत किया। प्रभु ने राजा के मस्तक पर वासक्षेप से और गले में इन्द्रमाला पहनाकर संघवी पद पर नियुक्त किया। चक्रायुध अपने घर वापिस लौटे, हर्षोत्सव किया। विविध देशों में निमंत्रण पत्रिकाएं भेजकर समस्त संघ को आमंत्रित किया। इंद्र देरासर ले आए, जिसमें शांतिनाथ प्रभु की मणिमय प्रतिमा का स्थापन किया। आगे प्रभु की मंगलमय मूर्तियुक्त देरासर और पीछे चतुर्विध संघ सिद्धाचलजी पहुंचे। सुवर्ण-मोती से तीर्थ का पूजन किया। स्वामी-वात्सल्य किया। प्रभु की पूजा, अर्चना, भक्ति, स्नात्र-पूजा इत्यादि धार्मिक क्रिया से विविध अट्ठाई महोत्सव सम्पन्न किये। वहां रास्ते में परमेश्वरजी के जीर्ण प्रासाद देखकर भरत चक्रवर्ती की तरह नये प्रासाद का निर्माण किया, तीर्थोद्धार किया। घर वापिस लौटे और पुत्र को राज्यभार सौंपकर स्वयं चारित्र ग्रहण किया। विशुद्ध मन से चारित्र पालन किया। संयमाराधना-तपाराधना की। अनेक मुनियों के साथ एक मास का अनशन, संलेखना के साथ सिद्धपद प्राप्त किया। क्रमशः विचरण करते प्रभु वेलाइंसिंह नामक उद्यान में पहुंचे। वहां एक सिंह कषाय से प्रेरित प्रभुजी पर उछलने के लिए दौडा, कूदने लगा, फिर वह सफल नहीं हो पाया, जिससे वह और क्रोधित हो उठा। उसने दुगुना बल लगाकर प्रभु पर वार करने का प्रयत्न किया फिर भी वह निष्फल रहा। अब तो क्रोध की सीमा न रही थी। अपना समग्र बल इकट्ठा करके झपका, फिर भी वही निष्फलता। सोचने लगा, "यह कोई महापुरुष हैं। मैंने उनकी विराधना-अवज्ञा की है। यह मेरी बड़ी गलती है। अवश्य मुझे दुर्गति मिलेगी।" प्रभुजी ने उसे अपने पूर्वजन्म से अवगत करवाया। उसे पूर्वजन्म का स्मरण हुआ। प्रभु की देशना से प्रतिबोधित होकर अनशनव्रत अंगीकार किया और आठवें देवलोक में देवत्व प्राप्त किया। अवधिज्ञान से अपने पूर्वजन्म-सिंहजन्म को देखा। शांतिनाथ प्रभुजी के दर्शन किये और उनकी कृपा उपकार से ही यह देवलोक प्राप्त हुआ है, ऐसा जाना। वहां उसने शांतिनाथ जिन के मन्दिर का निर्माण किया और प्रभु की मणिमय मूर्ति की स्थापना की। वहां की विशेषता है कि जो भक्त सच्चे दिल से शांतिनाथ जिन की पूजा-अर्चना करते हैं, उनकी सर्व कामनाएं पूर्ण होती हैं। इसी समय से इस वन का नामकरण सिंहवन हुआ है। वहां शांतिनाथ जिन ने धर्मदेशना कही। उन्होंने सिद्धाचलजी की महिमा प्ररूपित की। अनेक भव्य जीव इससे प्रतिबोधित हए। उन्होंने चारित्र ग्रहण किया, व्रताराधना की। अंत समय में अनशन व्रत अंगीकार किया और मोक्षपद प्राप्त किया। पटदर्शन 6.5 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचरण करते हुए आप 100 मुनियों के साथ समेतशिखरजी पहुंचे। वहां आपने अनशन व्रतादि व्रताराधना की और सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। श्रीविमलगिरि, पुंडरीकगिरि को भावपूर्वक वंदन। सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration havem solamah srisantinatha-prabhuji eka hajara purusa su diksa. chatrisa ganadhara, basatthi hajara muni, basatthi hajara cha sem sadhavi, bem lasa neu hajara sravaka, trina lasa tranum hajara sravika, cyalisa dhanusa dehah, lasa varasa num au, kamcana-varnah, mrga-lamchana. te srisam(ti)-paramesaraji Kuru-desa nem visem Hastinagapuri na Kusama-umdyana vana nem visem avi samosarya. dharma-desana kahi. Cakrayudha raja nem vadhamani avi. vadhamaniya nem pacamga pasaya kari caturamgani sena sajinem paramesvaraji nem vadava avya. tri pradaksana dei va(m)di nem jatostita-thanakem bettha. prabhujiim dharma-desana kahi. Siddhacalaji no varna kahyo. te sriSiddhacalaji no varnava sambhali sriSiddhacala bhetava nem bhavya-jiva harsavanta thaya. ehavem Cakraaudha-rajaim hatha jodinem paremasvaraji nem vinati kari "he svammi, sriSiddhacalaji nam saghavi ni mujha nem anumata dyo". tivarem paramemsvaraji na musa agalem indrem sona no thala dharyo. vasem puryo thako tivarem Cakraayudha-raja nem paramemsvarem mastake vasa-sepa nasyo. samghavipada thapyum. imdra-mala peharavi, tiha thi uchava sahita gharem avya. desa dese kamkotari lasi. samgha ekatho malyo. indrem derasara amni apum. manimaya srisantinatha-paramesvaraji ni murata manimaya thapi, derasara agalem calem. mamgalika kama kari sarva samgha-sahita sriSidhacalaji avya. girirajaji no darsana desi motiim giriraja vadhavyo. tiham svamivachala karyo. muni nem samtosi sriSiddhacalaji uparem cadhya. tiham srissabhadevaji nem bheti nem puja snatra mahochava kari, atthahi karinem, pacha hetha utarem chem. tehavem tiham paramesvaraji na jirna prasada dittha. tivarem Bharata-cakravartti ni parem prasada karavya. Bharata-raja ni parem tirtha-pharasana kari. ghare avi putra nem rajya api, sriSantiprabhuji pasem caritra lei, visudha mana vacanem caritra pali kevala-jnana pammya. eka masa ni salesana kari. ghana muniraja samghatem sriSameta-sisare sidha-pada varya, moksa pammya. anada samaya nem visem sriSantinatha paramesvara pachali velaim Simha namem udyana nem visem avi samosarya. tiham eka siha-kumara kasaim bhamryo phala dei paramemsaraji upareh avyoh. tiham thi pacho padyo, tivarem vimano kasaim bharano, tivarem biji vara vali phala didhi. tima ja pacho padyo. tima vali ghano kasaya bharano, tima vali triji vara phala didhih. tima pacho padyo. tivarem simha vicarava lago "koika e moto purusa mahara vana mam avyo chem. tehanem mem avajna kari aho mahari kuna gati thasem?" tehanem paramemsarem purava-bhava kahinem pratibodhyo. tiham Sidhacalaji na Siha-udyana nem visem anasana kari athamem devaloke gayo. tiha thi avadhiim karinem joyum "hum syem punye kari devatapanum pammyo?" tiham santinatha-paramesvaraji no upagara jamni Simha-vana nem visem paramesaraji nom prasada nipajavyo. tiham paramesiraji ni puja bhakti karem te na mano-vamchita purem. tada kala thi te vana num nama Siha-vana tirtha pravattum. tiham srisamtina(tha)-paramesara (ra)hya. Siha-udyana nem visem sriSiddhacalaji no mahima sambhali aneka bhavya-jiva pratibodha pami, caritra lei anasana kari, ghana jiva sidhi varya. srisamtinatha vihara karata Samata-sisare nava sye muni-sahitah masa-bhakti kari, siddha-pada nem varyah. namo stu Vi(ma)lagirih Pundarikagiri // ne namaskara hojyo //16/1 5 For Skt. yathocita. पटदर्शन Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. श्री कुंथुनाथजी 17. Sri Kuntunathaji घटदर्शन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसत्तरमाऊंयनायपरमेसराएकज़ारसूरुषसंवतलीधे.यो। विसगणधरासाहरजानिामाaeजारळसेंसाधची एकलाषा नगन्यासीहारश्रावक विएशनाघएकासिहजारश्राविका माजीस धनुषदेहमान कंचनवर्णसरीरबागलंबन यांचाएकहजारवाई विचरताश्रीसिदाचनमापधास्था अनिकनवाणि श्रीसिहान लमहरातमधी तिहाथाविहारकरता श्रीसमेतसिधेरे एकहजारसुरुष संघातं मासभलिबेदिसिधयवस्था नमोस्त बाऊबलगीरी मुक्कर रामिनयगिरीननमस्कारहयो। श्री श्री श्री श्री मूल पाठ हवे सत्तरमा कुंथनाथ परमेसर। एक हजार पुरुष सुं व्रत लीधुः। पांत्रिस गणधर, साह्र हजार मुंनि, साठ्ठ हजार छसें साधवी, एक लाख अगन्यासी हजार श्रावक, त्रिस लाख एकासि हजार श्राविका। पांत्रीस धनूष देहमान, कंचन वर्ण सरीर, छांग लंछन, पांचाणुं हजार वर्ष आउं। विचरतां श्री सिद्धाचलजीइं पधारया। अनेक भव प्राणिनें श्रीसिद्धाचल महात्तम वर्णवी तिहांथी विहार करतां श्री समेतसिखरें एक हजार पुरष संघाते मास भक्ति छेदि सिधपदनें वरया। नमोस्तु बाहुबलगीरीः मुक्तगीरी, निलयगिरीने नमस्कार हज्यो।17। श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः। हिन्दी अनुवाद 17. कुंथुनाथजी आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में स्वयम्भू (शम्ब) प्रमुख 35 गणधर थे। 60,000 साधु, 60,600 साध्वियां, 1.79,000 श्रावक और 3.81.000 श्राविकाएं थीं। 66 पटदर्शन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका देहमान 35 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन छाग (अज) है। आपकी कुल आयु 95,000 वर्ष थी। विचरण करते हुए आप सिद्धाचलजी पधारें। अपना निर्वाण काल समीप जानकर छः हजार मुनियों के साथ आपने अनशन व्रत ग्रहण किया और मोक्षपद प्राप्त किया। श्री बाहुबलगिरि, पुंडरीकगिरि, निलयगिरि को भावपूर्वक वंदन। सत्रहवें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration // havem sattarama Kunthanatha-paramesara // eka hajara purusa sum vrata lidhum. pamtrisa ganadhara, sattha hajara mumni, satha hajarah cha sem sadhavih, eka lasa aganyasi hajara sravaka, trina lasa ekasi hajara sravika, pamtrisa dhanusa deha-mamna, kamcana-varna-sarira, chamga-lamchana, pamcanu hajara varsa au. vicarata sriSiddhacalajiim padharya. aneka bhava-pramni nem sriSiddhacala mahatama varnavi, tibam thi vihara karata sriSameta-sisare eka hajara purusa samghatem masa-bhakti chedi, sidha-pada nem varya. namo stu Bahubalagirih Muktigiri Nilaya-giri nem namaskara hajyoh // 17// Srih // Srih // Srih //Sri चटदर्शन Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. श्री अरनाथजी 45333 18. Sri Aranathaji पटदर्शन Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवेअडारमाअरनायगवानाएकरजारपुरुषसघामजी मागाधरायांचासहजारफनी: साहरजारसावदारकानाघचारासी हजारमातक त्रिशालाष बहोतर १२हजारश्राविका विसधकषदेही Hiनतारासिजारवर्ष आयु: कंचनवनिंदावन्नलिंबन चिरता मिधाचनीयधास्वाघमाजीव सिधाचल फानवर्याची विहाथि चाहारकरवा श्रीसमेतसिघउपरेंएकहजार मुनिरामसःमासा नतिः अणसएकरि सिधपदनेवपाः ममोस्ता श्रीसिछाचली साचिमानानिनिगिरी:नमसकारोन्पोजरमा|श्रीश्री मूल पाठ हवे अढारमाः अरनाथ भगवानः। एक हजार पुरुष संघातेः व्रत, तेत्रीस गणधरः, पांचास हजार मुनीः, साह्र हजार साधवीः, एक लाख चोरासी हजार श्रावकः, त्रिण लाख बहोतर 72 हजार श्राविकाः। त्रिस धनुष देहमान, चोरासि हजारं वर्ष आयुः, कंचन वर्ण, नंदावर्त्त लंछन। विचरतां श्री सिधाचलजी पधारया। घणा जीवनें सिधाचलनु फल वर्णवी, तिहांथि वीहार करतां श्री समेतसिखरें उपरें एक हजार मुनिराजसुः मास भक्तिः अणसण करि सिधपदनें वरया। नमोस्तुः श्री सिधाचलगिरीः विमलाचलिगिरिनेः नमस्कार होज्योः। 18 माः।श्रीः श्री। हिन्दी अनुवाद 18. अरनाथजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में 33 गणधर थे। 50,000 साधु, 60,000 साध्वियां, 1,84,000 श्रावक और 3,72,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 30 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन नंदावर्त है। आपकी आयु पूरे 84,000 साल की थी। टदर्शन Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचरण करते हुए आप सिद्धाचलजी पधारें। अनेक भव्य जीवों को आपने सिद्धाचलजी का माहात्म्य दर्शाया। विचरण करते हुए आप सम्मेतशिखर पहुंचे। 1000 मुनियों के साथ आपने एक मास का अनशन व्रत ग्रहण किया और सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। श्री सिद्धाचलगिरि, विमलाचलगिरि को भावपूर्वक वंदन। अठारहवें तीर्थंकर श्री अरनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration // havem adharamah Aranatha-bhagavanah / eka hajara purusa samghatemh, vrata temtrisa ganadharah, pamcamsa hajara munih, sattha hajara sadhavih, eka lasa corasi hajara sravakah, trina lasa bahotara 72 hajara sravikah, trisa dhanusa deha-mamna, corasi hajara varsa ayuh, kamcana-varna, nandavarttalamchana. vicarata sriSidhacalaji padharya. ghana jiva nem Sidhacala num phala varnavi tiham thi vihara karata sriSameta-sisarem uparem eka hajara muni-raja suh masa-bhaktih anasana kari, sidha-pada nem varyah. namo stuh SriSiddhacala girih / / Vimalacaligiri nemh namaskara hojyoh //18 ma// sri sri. 70 पटदर्शन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मल्लिनाथजी VIE MUCH 19. Sri Mallinathaji चटदर्शन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखेगलिममा श्रीमल्लिनाथपरमेसरजी:त्रियापपुरुषसंघात बत अहावीसायाधर चालिसहजारमनी पंचावनहजारसाधवीart एकनाघानेवासिहजाराचक त्रिष्यलावसानेरहजारमाधिकाः चवीसधनूषदेहमान मिलनऊंनलंबन पंचाधनहजारनपआयु निधरतानीसिधाचलमधास्या सास्वत्तोतिविधिी श्रीसमेतसिघरे अपरें:यांचस्पेमनीसंघातेसिध्यदोवस्या। मापोहतानमास्ता श्रीसिधगिरीने नमोनमः ॥रथा श्रीः श्री:॥ श्री श्री: LANGSAC मूल पाठ हवे ओगणिसमाः श्रीमल्लिनाथ परमेसरजीः। त्रिणस्यें पुरुष संघातें व्रत, अट्ठावीस गणधरः, चालिस हजार मुंनी, पंचावन हजार साधवीः, एक लाख अनें त्रासि हजार श्रावक, लाख सीत्तेर हजार श्राविका। पंचवीस धनूष देहमान, निल वर्ण, कुंभ लंछन, पंचावन हजार वर्ष आयु, विचरतां श्री सिधाचल, धारया। सास्वतो तिर्थ वर्णवी, श्री समेतसिखरें उपरें पांचस्यें मुनी संघाते सिधपदनें वरया। मोक्षं पोहताः। नमोस्तुः श्री सिधगिरीनेः नमोनमः।191श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः। हिन्दी अनुवाद 19. मल्लिनाथजी आपने 300 पुरुषों के साथ दीक्षा अंगीकार की थी। आपके परिवार में 28 गणधर थे। 40,000 साधु, 55,000 साध्वियां, 1,83,000 श्रावक और 3,70,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 25 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण नील है। आपका लांछन कुंभ (कलश) है। आपकी कुल आयु 55,000 वर्ष की थी। विचरण करते हुए आप सिद्धाचलजी पधारें। भव्य जीवों को शाश्वत तीर्थ का माहात्म्य समझाया। अपना निर्वाण काल समीप जानकर 500 मुनियों के साथ सम्मेतशिखर पधारें। वहां अनशन व्रत ग्रहण किया और मोक्ष प्राप्त किया। श्री सिद्धगिरि को भावपूर्वक वंदन। उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration //havehoganisamah sriMallinatha-pamcavana sarajih/trina syem purusa-samghtem vrata. atthavisa ganadharah, calisa hajara mumni, pamcavana hajara sadhavih, eka lasa anem trasi hajara sravaka, trinya lasa sittera hajara sravika, pamcavisa dhanusa deha-mamna, nila-varna, kumbha-lamchana, pamcavana hajara varsa au. vicarata sriSiddhacala padharya, sasvato tiratha varnavi sriSameta-sisare uparemh pamca syem muni samghate. sidha-pada nem varya. moksem pohatah. namo stu sriSidhagiri nemh namo namah // 19// srih srih // srih // srih // 72 पटदर्शन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. श्री मुनिसुव्रतजी EMBER <<< 20. Sri Munisuvrataji पटदर्शन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसमाग्रीम निवतजी:हजारपुरुषसवमागणश्वरमहाविसहा जारमनपचासहजारसाधवीरकलानिरहजारभावकविण नाषपंचासहजारश्रीवीकाः चिसहजारवरमायुरुम्नवर्णका मलंबन श्रीमनिसबमवीचरता श्रीमिधाचनपध्यास्वा देवेसमय सरारच्युधिगधेसीयरषदा प्रागतिश्रीविमलमीरमोमवाय सेकि श्रीमनिबनस्वामिनासिचिनीरामजीसंघले निश्रीसिवाचलमीईआधीभरचकीनीयरें उछारकरी जामवाम प्रार्थनीथापनाकरी घराधी पुत्र राज्यापी चारिखनेऽमें विच साहवा श्रीसिघाचलजीवी असकरी घणामनिसस्सिी ५२५वस्था रामचंदजी चलिचंदराजामवीरमतीऊकोकोते. चंदराजा सोलवरससधीऊकमायफनोगत मनमुंवरसकाइक चप्रकरुंएरश्रमिछाचनपरे चैत्रमासमी-प्रवाई महोसव करवाने धावता घणीदेवगन्या पगाविद्याधर घामनुष्पम नी एकनायुजा स्तवनाकरे एवंदनीस्विमिलालबीतेचैत्रने महामहोजोवानोहाथियोएहवेंमानालाई मिनटमी Bिaमालाकोथी च्याउमासमीअवधकरीमदराजासामथुममुः। पोजरुसिकंपांजनेश्रामिकाची पेलामाधी परमे श्वरजीना निकरीसर्यकंकमांनाही पुजाकरी कमीनोमबद करीदेवता देवांगमा विद्याधर विद्याधराउनो नारामजाई चिन घरफपसमथकअनेकमधीसरिसपोरंजघामीनिकरी: पासयं ज्यान में विषयाची निहाकविनकरी मर्यवनमाराधनो मोनागावाममर्यवनऊंग्राम्पा मलालवीमाहाथमा पा असते पानरामा रयाकुर्कस्ने विचारों सालबरसम्बापणेफ स्वो मगजीमाहराकर्ममोधारनायो ससारमोस्वार्थिया स्वार प्यमार्ट मानायवेरणथई एमिद्याचलमेविषयाच्या माधाकर्म होयतोमरीजआई.एejतिर्थफरीनंयामबुदोहिलू मविचारिने मर्यऊमा नामघोकंपायातहीधो पेमलालबीदेषीविचार पानाथानमघातकरी निवारमाहरेंजीवानेमकरच्यो मधि चाशने मलालबापिणसर्य ऊंमाकंपापातदियो ताम्रधुमने कमानीदाथमानिधोलबजबकरता दोरोटरीगयो मानवीनोत्र बतारथयो सासनदेवताईबिअरगमें कममाहिषीकाठया देवा ताऊसममीरटिश पेमलालबीराजासहितकरी पुजाका धीमकरयमराजानेवधामणीगाईरामाधामणीदेऽमें विधसहित श्रीमिधाचनमामाच्या जास्नात्रमहोबचकरिमो माझंबकरीचिमनपुरीराजाचंदनेनेच्याव्या श्रोसिधा मनामरिमाथीबंदरामायणाकालकधाराम्यधामी श्रीमनिरूब तःस्वामिनीदेसमासानलीवराज्यपानिवारित्रलघलेमान विध ताधीविनाचलावीएसकरीश्मनिजीसिम्पदने अस्वाहिजारपुरुषसाश्रीमनिसवतस्वामिसमनसिपशमसभा तिवेदपरमपदमापदधाम्यानमारकश्रीविममगिरीनमः सकारहो: श्रीसिडीगिरीनमस्कारज्योः॥२० श्रीश्रीश्री 14 पटदर्शन Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ वीसमा श्री मुनिसुव्रतजीः। हजार पुरुषसुं व्रतः। गणधर अढार, त्रिस हजार मुनी, पंचास हजार साधवी, एकला(ख) बोतेर हजार श्रावक, त्रिण लाख पचास हजार श्रावीका। त्रिस हजार वरसनुं आयु, कृष्ण वर्ण, कूर्म लंछन। श्रीमुनिसुव्रत वीचरतां श्रीसिधाचल पध्यारया। देवें समवसरण रच्यु। त्रिगडें बेसी परषदा आगलिं श्री विमलगीरनो वर्णव विसेष किधो। श्री मुनिसुव्रत स्वामिना तिर्थनं विषे श्रीरामचन्द्रजी संघ लेइनें, श्री सिधाचलजीइं आवीने, भरत चक्रीनी परें उधार करी ठाम ठांम तीर्थनी थापना करीने घरें आवी, पुत्रने राज्य आपी चारित्र लेइनें विचरता हवा। श्री सिधाचलजी आवी, अणसण करी, घणा मुनि सहित सिद(द्ध)पद वरया रामचन्द्रजी। वैलि चंद्र राजाने वीरमतीइं कुकडो करो। ते चंद राजाइं सोल वरस सुधी कुकडापणुं भोगवू। सोलमुं वरस कांइक अघुरुं छे, एहवें श्री सिद्धाचल उपरें चैत्र मासनी अट्ठाईई महोत्सव करवाने घणा देवता, घणी देवगन्या, घणा विद्याधरीओ, घणा मनुष्य मली प्रभुनी पुजा स्तवना करे छ। एहवें चंदनी स्त्रि प्रेमलालछी ते चैत्रनो अट्ठाई महोछव जोवानो हर्ष थयो। एहवें प्रेमलालच्छीइं सिवनटनी सिवमाला कनेथी च्यार मासनी अवध करी, चंद राजा ताम्रचुडनुं पांजरु लिधुं। ते पाजलं लेई श्री सिधाचलजीइं प्रेमला आवी। परमेश्वरजीना दर्शन करी, सूर्यकुंडमां नाही, पुजा करी प्रभुजीनो महछव करी देवता, देवांगनाओ, विद्याधर, विद्याधरीओनो नाटारंभ जोइ चित घj प्रसन थयुं। अनेक सखीओ सहित पांजरु उघाडी, दर्शन करावी सूर्यउद्याननें विषे आवी। तिहां प्रभु दर्शन करी, सुर्यवननी रीध जोई छे, जोतां ठाम ठाम सुर्यवन कुंडे आव्यो। प्रेमलालच्छीना हाथमां पांजरु छे, ते पांजरा माहें रह्यो कुर्कट ते विचारे छे, 'सोल वरस पंखीषणे फरयो, पण हजी माहरा कर्मनो पार नाव्यो। संसार तो स्वार्थियो छ। स्वारथ माटें माता पण वेरण थई, ए सिधाचलने विषे आव्यो। माठा कर्म होय तो मटी जाई।' एहवू तिर्थ फरीने पामवू दोहिलूं छे। इम विचारिने सुर्यकुंडमां ताम्रचूडे झंपापात दीधो। प्रेमलालछीई देखी विचारूं, "प्राणनाथें आतमघात करी, तिवारें माहरें जीवीने सु करव्युं छे?" इंम विचारीने प्रेमलालछीई पिण सुर्यकुंडमां झंपापात दिधो। ताम्रचूडने झडपीनें हाथमा लिधो। ते लवजव करतां दोरो तुटी गयो। मानवीनो अवतार थयो। सासन देवताई बिहुजणनें कुंड मांहिथी काढ्यां। देवताइं कुसमनी वृष्टि करी। प्रेमलालछीइं राजा सहित फरीने पुजा कीधी। मकरध्वज राजाने वधामणी गई। राजाई वधामणी देईने चतुर्विध सहित श्री सिधाचलजीइं आव्या। पुजा स्नात्र महोच्छव करि मोटे आडंबरें करी विमलपुरीइं राजा चंदने लेई आव्या। श्री सिधाचलना महिमाथी चंदराजा घणा काल सुधी राज्य पाली, श्री मुनिसुव्रत स्वामीनी देसना सांभली, वैराग्य पामि, चारित्र लेइ घणे मुनिइं विचरता श्री वि(म)लाचल आवी अणसण करी चंद्रमनिजी सिधपदनें वरया। हजार पुरुषसुं श्रीमुनिसुव्रत स्वामि समेतसिखरे म(मा)सभक्ति छेदी परमपद मोक्षपद पाम्यांः। नमोस्तु श्री विमलगिरी नमः सकार हजोः। श्री सिद्धीगिरीने नमस्कार हज्योः।20।श्री श्री श्री। पटदर्शन 75 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद 20. मुनिसुव्रतजी आपने 1000 पुरुषों के साथ दीक्षा अंगीकार की थी। आपके परिवार में 18 गणधर, 30,000 साधु, 50,000 साध्वियां, 1,72,000 श्रावक और 3,50,000 श्राविकाएं थीं। आपका वर्ण कृष्ण हैं आपका लांछन कुंभ (कूर्म) है। आपकी कुल आयु 30,000 वर्ष की थी। विचरण करते हुए सिद्धाचल पधारे। देवों ने वहां समवसरण की रचना की। अपनी देशना में विमलगिरि-सिद्धाचलजी की महिमा प्रतिपादित की। मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में रामचन्द्रजी चतुर्विध संघ के साथ सिद्धाचलजी पहुंचे। भरत चक्रवर्ती की तरह श्रीरामचन्द्रजी ने भी वहाँ जीर्णोद्धार किया। अनेक स्थानों पर विविध तीर्थ की स्थापना की। घर वापिस लौटते ही अपने पुत्रों को राज्यधुरा सौंपकर स्वयं ने चारित्र ग्रहण किया। अंतिम समय सिद्धाचलजी पहुंचे। अनशन व्रत ग्रहण करके अने के साथ सिद्धपद-मोक्ष गति प्राप्त की। चंद्र नृप की विमाता वीरमती ने अपनी तंत्र-मंत्र विद्या से उसे कुक्कुट बना दिया। करीब सोलह साल चंद्रनृप ने कुक्कुट अवस्था में व्यलीत किये। सोलहवाँ साल चल रहा है। सिद्धाचल पर चैत्र मास की अट्ठाई महोत्सव चल रहा है। देव, देवी, विद्याधर, विद्याधरी, मनुष्य, तिर्यंच आदि समग्र महोत्सव में शामिल है। प्रेमलालछी भी अपनी सखियों के साथ, पंजर में कुक्कुट के साथ वहां आ पहुंची। वे सब परमेश्वरजी की पूजा, सूर्यकुंड में स्नान, प्रभु महोत्सव सम्पन्न करके हर्षोल्लास से घूम रहे थे के साथ भ्रमण करते प्रेमलालछी सूर्यउद्यान में आई। वहां उसने पिंजरा खोल रखा था। पिंजरे में कैद पक्षी सोचता है, "सोलह साल से मैं ऐसे ही पिंजरे में कैद हं, फिर भी मेरे पाप कर्मों का अंत नहीं है। यह संसार तो बड़ा स्वार्थी है, जहां माता भी शत्रु बन बैठी है। भाग्योदय से सिद्धाचल तक पहुंच सका हूं। अगर इधर प्राण त्याग करूंगा तो पापकर्मोदय भी शांत हो सकते हैं। ऐसा तीर्थ दूसरी बार प्राप्त होना दुष्कर है।" वह स्वयं सूर्यकुंड में कूद पड़ा। उसे देखते ही प्रेमलालछी ने सोचा, "अगर मेरे प्राणनाथ ने अपना जीवन त्याग दिया, तो मैं अकेली कैसे जी सकूगी?" वह भी सूर्यकुंड में कूद पड़ी। उसने ताम्रचूड को हाथ में पकड़ लिया। वह उससे अपना पिंड छुड़ाना-मुक्त होना चाहता था। इस झपाझपी में उसका धागा टूट गया। उसने अपना असली स्वरूप मनुष्यदेह प्राप्त कर लिया। शासनदेवता ने दोनों को कुंड में से बाहर निकाला। देवता ने दिव्य कुसुमों की वृष्टि की। उन्होंने फिर से प्रभु की पूजा-अर्चना की। मकरध्वज नृप सुसमाचार प्राप्त होते ही चतुर्विध संघ सह शत्रुजय पहुंचे। महोत्सव-हर्षोत्सव मनाया गया। चंदराजा ने निष्ठा से लंबे समय तक सुव्यवस्थित रूप से राज्य पालन किया। मुनिसुव्रत प्रभु की देशना से प्रतिबोधित होकर आपने चरित्र ग्रहण किया। अनेक मुनियों के साथ सिद्धाचलजी पहुंचे। अनशन व्रत अंगीकार किये। सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। श्री सिद्धाचलगिरि, विमलाचलगिरि को भावपूर्वक वंदन। बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। 76 - पटदर्शन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Transliteration // visama sriMumnisuvratajih hajara purusa su vratah, ganadhara adhara, trisa hajara muni, pamcasa hajara sadhavi, eka la. votera hajara sravaka, trina lasa pamcasa hajara sravikah, trisa hajara varasa numayu, krsna-varna, kurma-lamchana." sriMunisuvrata vicarata sriSidhacala padhyarya. devem samavasarana racyum. tri-gadem besi parasada agalim sriVimalagira no varnava visesa kidho. sriMunisuvrata svami na tirtha nem visem sriRammacandraji samgha leinem, sriSidhacalajiim avinem, Bharata-cakrini parem uddhara kari, thamma thamma tirtha ni thapana karinem, gharem avi, putra nem rajya api, caritra leinem, vicarata hava sriSiddhacalaji avi, anasana kari, ghana muni sahita siddha-pada varya Rammacandraji. vali Canda-raja nem Viramatiim kukado karyo. te Candra-rajaim sola varasa sudhi kukadapanum bhogavum. solamum varasa kamika adhurum chem. ehavem sriSiddhacala uparem Caitra-masa ni athalim mahotsava karavanem ghana devata, ghani devaganya, ghana vidyadhario, ghana manusya mali prabhu ni puja stavana karem chem. ehavem Camda ni stri Premalalachi te Caitra no atthai mahochava jova no harsa thayo. ehavem Premalalacchiim Siva-nata ni Sivamala kanemthi cyara masa ni avadha kari, Cadaraja-tamracuda num pajaru lidhum. te pamjaru lei, sriSiddhacalajiim Premala avi, paramesvaraji na darsana kari, Suryakumda mam nahi, puja kari, prabhuji no mahachava kari, devata devamganao vidyadhara vidyadhario no natarambha joi, cita ghanu prasana thayu. aneka sasio sahita pamjarum oghadi, darsana karavi Surya-udyana nem visem avi. tiham prabhu darsana kari, Surya-vana ni ridha joi chem. jotam thama thama Surya-vana-kumdem avyo. Premalalacchi na hatha mam pamjarum chem. te pamjara mahem rahyo. kurkata te vicare chem "sola varasa pamsipanem pharyo, pana haji mahara karma no para navyo. samsara to svarthiyo chem. svaratha matem mata pana verana thai. e Siddhacala ne vise avyo. matha karma hoya to mati jaim ehavum tirtha pharinem pammavum dohilum chem." ima vicarine Suryaku(mda) mam tamracude jhampa pata didho. Premalalachiim desi vicarum "prana-nathe, atama-ghata kari tivarem maharem jivinem su karavyum chem?". imma vicarinem Premalalachim pina Surya-kumda ma jhampa pata didho. tamracuda ne jhadapinem hatha mam lidho, te lavajava karatam doro truti gayo. mamnavi no avatara thayo. sasana-devataim bihu jana nem kumda mahim thi kadhyam. devataim kusuma ni vrsti kari. Premalalachim raja sahita pharinem puja kidhi. Makaradhaja-raja nem vadhamani gai rajaim vadhamani deinem caturvidha-sahita sriSidhacalajiim avya. puja-snatra mahochava kari mote adambarem kari Vimalapuriim raja-Canda nem lei avya. sri Sidhacala na mahima thi Canda-raja ghana kala sudhi rajya pali, sriMunisuvratah-svami ni desana sambhali, vairagya pami, caritra lei, ghanem muniim vicarata, sri Vi(ma)lacala avi, anasana kari, Canda-muniji siddha-pada nem varya. hajara purusa su sriMunisuvrata-svami Sameta-sisare masa-bhakti chedi, parama-pada moksa-pada pammyah. namo stu sri Vimalagiri namasakara hajo / sriSiddhigiri nem namaskara hajyoh // 20/1 sri sri sri. 6. Note that the size is missing in this list. पटदर्शन 77 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. श्री नमिनाथजी 21. Sri Naminathaji पटदर्शन Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Inएकवीसाठाग्रीनमिनाथभगवान्ना एकदाजारपुरुषफवनस तरगणधरवासहजहार एकतालीसहजारमाधवीराकलासितरमारत्रावा विकलापप्रमतानिसहजारश्राविका पनरधनुषदेहमानदसहा जावर्षमागकंचनवायदमलंबन विहारकरता श्रीसिवाचल पध्यास्वा तिनोन्महिमाघाणवणधि लिहाथीविचरता एकसह त्रमन्त्रीराजसं श्रीसमेंनसिपमासएकसएकरीसिघपद वस्या मोदपदयाम्यागश्रीनमिजीनमास्कःश्रीसिछावगीरीननमस्का रहना २२श्री: श्री. श्री. श्री: श्री: श्री: श्री मूल पाठ हवें एकवीसमा श्री नमिनाथ भगवानः। सित्तेर हजार श्रावक, त्रिण लाख अडतालिस हजार श्राविका। पनर धनूष देहमान। दस हजार वर्ष आउं, कंचन वर्ण, पद्म लंछन। विहार करतां श्री सिधाचल पध्याऱ्या। तिर्थनो महिमा घणो वर्णविने तिहाथी विचरतां एक सहस्त्र मुनीराजसुं श्रीसमेतसिखरें मास एक अणसण करी सिधपद वरया, मोक्षपद पाम्याः। श्री नमिजी नमोस्तुः। श्रीसिधाचलगीरीने नमस्कार हजोः1211श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः श्रीः। हिन्दी अनुवाद 21. नमिनाथजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में 17 गणधर, 20,000 साधु, 41,000 साध्वियां,1,70,000 श्रावक और 3,48,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 15 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन (सुवर्ण) है। आपका लांछन पदम (नीलोत्पल) है। आपकी आयु पूरे दस हजार वर्ष की थी। पटदर्शन Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचरण करते हुए आप श्री सिद्धाचलजी पधारें। सिद्धाचलजी तीर्थ का माहात्म्य अपनी देशना द्वारा प्रतिपादित किया। क्रमशः विचरण करते श्रीसम्मेतशिखर एक सहस्र मुनिराज के साथ पधारे। वहां एक मास अनशन व्रताराधना की और मोक्षपद-सिद्धपद प्राप्त किया। श्री सिद्धाचलगिरि को भावपूर्वक वंदन। इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration //havem ekavisama sriNaminatha-bhagavanh eka hajara purusa su vrata, satara ganadhara, visa hajara (sadhu), ekatalisa hajara sadhavi, eka la. sitera hajara sravaka, trina lasa adatalisa hajara sravika, panara dhanusa deha-mamna, dasa hajara varsa au, kamcana-varna, padama-lamchana. vihara karata sriSiddhacala padhyarya. tirtha no mahima ghano vanavinem tiha thi vicarata eka sahasra muni-raja sum sriSameta-sisarem masa eka anasana kari, sidha-pada varya. moksa-pada pammyah / sriNamiji namo stuh sriSiddhacalagiri nem namaskara hajoh 21 sri sri sri sri sri sri sri // -पटदर्शन Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 श्री नेमिनाथजी 22. Sri Neminathaji पटवर्शन Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाचीसमानेमिनायभगवानवानाधारिएकहजारपुरुषा संयतःग्पारगार प्रहारहजारमनिराजाधालिसरजारसाधवी एकनाधाअगन्योतरहजारभावकःत्रियालापबबीसहजाराधीका दसधषदेमानझनपसरलेखन एकझारखर्घमायुविचारता प्रीमिक्षालजी मानेमाच्या देशनादेऽगिरिरामोधायक रीतिचायनेकजीव श्रीसिहाचलमीमास्तमसामलीचेराग्थयां माचारियगिकारकरीमहासरावरीघजीवसिश्यश्व स्वात निहाथीनानामिनावाने विहारको बलिश्रीनमिनाथनासासमा विष श्रीहनमारास्निायुध साबनंबोमन महापराकमि श्रीनमिन सनासामली वेराग्पयामीचारिखलेऽसाहााधकाकिमुनिसंघात श्रीसथाचालानी आत्महत्यनिराधाकरी निर्मलथईनासमा करीमाशाने याम्या बालश्रीनमिनासासनविय श्रीनारदाकारालापथीमा झयोस्तावयाचयामचीनेमनामनामानली श्रीमीशरलजी नोवाच सानलीहाथरसायबिधसेघनसमाचलजीमाधीसारपरीका ध्या नाकामश्नीथेनीयापनौकरी घरेनाधारापारयवामि यांचंपामदेचारिख नि.मासमासषमपारसं करता विवरसाहस्तिनागपुरेश्याच्या विचार कपोजेमापारमतोमासषमानकरी अमेस्तो बिजामासषमान पारसा श्रीनेमिनाथजीनेवादामनियारेकरीस्मु एस्बोअभियानापान शंषषषमानीमें शिपहरेशस्तिनागपुरचिये गोधरीकरी गामबारे यायलोसानोलिनेमिनाथनगवान् मोकृपयारयातेवातमांना जस्तीतभिनेमिनामाहार ऊंजारने निमापरवाच सिधानिया माणसाकरी घीसकोमिनिमस्ति मोमोरसाहक्षेत्रीनेमिनाथ जगचीम विसरकरना श्रीगिरनारयकापायाचस्पेनधिसझनिसंघ त। मीगिरमाख्परें:मासाउपवासेंमोक्यधारणाशनमोस्तश्रीविम लगिरीनेनमोनमः॥22. HAMARINEMAMEANI मूल पाठ हवें बावीसमा नेमिनाथ भगवानः / बाल ब्रह्मचारि। एक हजार पुरुष सुं व्रत, इग्यार गणधर, अढार हजार मुनिराज, चालिस हजार साधवी, एक लाख अगन्योतर हजार श्रावक, त्रिण लाख छत्रीस हजार श्रावीका। दस धनूष देहमान, कृष्ण वर्ण, संख लंछन, एक हजार वर्ष आयु। विचरतां श्री सिधाचलजीनूं तलेटीइं आव्या। देशना देइ गिरिराजनो वर्णव करी तिवारें अनेक जीव श्रीसिद्धाचलजीनूं माहतम सांभलि वैराग्य पामी, चारित्र अंगिकार करी, अणसण उचरी घणी जीव सिधपदने वरया। तिहांथी श्री नेमिभगवाने विहार कर्यो। पटदर्शन Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलि श्री नेमिनाथना सासननें विर्षे श्रीकृष्ण मोरारिना पुत्रा सांब अनें प्रदोमन महापराक्रमि श्री नेमिनी देसना सांभली, वैराग्य पांमी, चारित्र लेई साढा आठ कोडि मुनि संघातें श्री सिधाचलें आवी, आत्मतत्त्व निरावर्ण करी, निर्मल थई, अणसण करी मोक्षने पाम्यां। वलि श्री नेमिना सासननें विषं श्री नारद एकाण लाखथी मोक्ष पोहतां। हवे पांच पांडव श्री नेमनी देसना सांभली, श्री सीधाचलजीनो वर्णव सांभली हर्ष धरतां चतुर्विध संघ लै श्री सिद्धाचलजी आवी, उधार फरी करयाव्यो। नवि ठाम ठाम तीर्थनी थापना करी, घरें आवी राज्यरिध छांडि, पांचे पांडवे चारित्र लेइं मास मासखमणनें पारणुं करतां, विचरतां हस्तिनागपुरें आव्या। विचार करयो, 'जे आ पारणुं तो मासखमणनूं करीइं अने हवे तो बिजा मासखमणनूं पारणुं श्री नेमिनाथजीनें वांदीसु तिवारें करीस्यु।' एहवो अभिग्रह लेइ पाठरां प्रख प्रमाजीनें त्रिजें प्रहरें हस्तिनागपुरने विषे गोचरी करी, गाम बाहरें आवतां सांभलू जे श्रिनेमिनाथ भगवान् मोक्ष पध्याऱ्यां। ते वात सांभली आहार कुंभारने निमाडें परठवि सिधाचलजिइं आवी अणशण करी, बीस कोडि मुनि सहित मोक्षं पोहतां। ____ हवे श्री नेमिनाथ भगवानं विहार करतां श्री गिरनार पंधाऱ्या। पांचस्य छत्रिस मुनि संघातें श्री गिरनार उपरेंः मासो उपवासें मोक्ष पधारयाः। नमोस्तुश्री विमलगिरीनें नमोनमः।221 हिन्दी अनुवाद 22. नेमिनाथजी आप बालब्रह्मचारी हैं। आपने 1,000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में 11 गणधर थे। 18,000 साधु, 40,000 साध्वियां, 1,69,000 श्रावक, 3,36,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 10 धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कृष्ण था। आपका लांछन शंख है। आपकी आयु पूरे एक हजार वर्ष की थी। क्रमशः विचरण करते हुए आप सिद्धाचलजी पधारें / वहां अपनी देशना में भी सिद्धाचलजी तीर्थ की महिमा प्ररूपित की। अनेक भव्य जीवों ने इससे प्रतिबोधित होकर वैराग्य प्राप्त किया। उन्होंने चारित्रधर्म ग्रहण किया और अनशन-व्रताराधना करके सिद्धपद प्राप्त किया। श्रीकृष्ण मुरारि के पराक्रमी पुत्र प्रद्युम्न और शांब ने प्रभु की धर्मदेशना से प्रतिबोधित होकर वैराग्य प्राप्त किया। उन्होंने चारित्र धर्म अंगीकार किया और साढ़े आठ करोड़ मुनियों के साथ सिद्धाचल पहुंचे। स्वयं विशुद्ध-निर्मलावस्था प्राप्त करके आत्मतत्त्व निरावरण किया और अनशन व्रताराधना करते मोक्षपद प्राप्त किया। नेमिनाथ प्रभुजी के शासन काल में नारद ने भी प्रभु की देशना से प्रतिबोधित होकर अन्य 91,000 मुनियों के साथ सिद्ध पद प्राप्त किया। . पाँच पांडवों ने भी सिद्धाचलजी की महिमा सुनी। प्रसन्न होकर चतुर्विध संघ लेकर उन्होंने सिद्धाचलजी की ओर प्रयाण किया। वहां तीर्थों का जीर्णोद्धार किया और अनेक स्थलों पर नये तीर्थों की स्थापना की। पटदर्शन Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांडव पुनः घर लौटे। राज्य का त्याग किया और चारित्र धर्म अंगीकर किया। मासखमण-एकमास के अनशन व्रत की आराधना करते रहे। क्रमशः हस्तिनागपुर पहुंचे। वहां निश्चय किया कि इस मासखमण का पारणा तो इधर करते हैं, मगर अगले मासखमण का पारणा नेमिनाथ प्रभुजी के दर्शन के बाद उनकी निश्रा में ही करेंगे। दिन के तीसरे प्रहर में गोचरी-आहार ग्रहण करके गांव बाहर आ रहे थे, तब नेमिनाथ के मोक्षगमन के समाचार सुने। अत्यंत दुःखी होकर आहार कुम्भकार के पास (कुम्भकार की भट्ठी) छोड़कर सिद्धाचलजी पहंचे। अन्य बीस करोड़ मुनियों के साथ अनशन-व्रताराधना करते हुए मोक्षपद प्राप्त किया। नेमिनाथ प्रभुजी क्रमशः विचरण करते गिरनार तीर्थ पहुंचे। वहां अन्य 536 मुनियों के साथ एक मास के अनशन व्रताराधना करते सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। श्रीविमलगिरि तीर्थ को भावपूर्वक वंदन। बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमिजी को भक्ति-भावपूर्वक वंदन। Transliteration l/havem bavisama Neminatha-bhagavanah // vala-vrahmacarih. eka hajara purusasamyutah, igyara ganadhara, adhara hajara mumni-raja, calisa hajara sadhavi, eka lasah aganyotara hajara sravakah, trina lasa chatrisa hajara sravika, dasa dhanusa deha-mamna, krsna-varna, samsalamchana, eka hajara varsa ayu. vicarata sriSiddhacalaji num Taletiim avya. desana dei, giri-raja no varnava kari, tivarem aneka jiva srimSiddhacalaji num mahatama sabhali vairagya pammi, caritra amgikara kari, anasana ucari ghani jiva sidha-pada nem varya, tiha thi sriNemi-bhagavanem vihara karyo. vali sriNeminatha na sasana ne visem sriKrsnamorari na putra Samba anem Pradomana maha-parakrami sriNemi ni desana sambhali vairagya pammi, caritra lei, sadha atha kodi muni samghatem SriSidhacalem avi atma-tatva niravarna kari, nirmala thai, anasana kari, moksa nem pammya. vali sriNemi na sasana nem visem sriNarada ekanum lasa thi moksa pohata. havem paca Padava sriNema ni desana sambhali sriSiddhacalaji no varnava sabhali harsa dharata caturvidha-samgha le, sriSiddhacalaji avi uddhara phari karyavyo navi thama 2 tirtha ni thapana kari. gharem avi rajya-ridha chamdi pacem Pamdavem caritra lei, masa masa-samana nem paranum karata vicarata Hastinagapurem avya. vicara karyo je "a paranu to masa-samana num kariim anem havem to bija masa-samana num paranum sriNeminathaji nem vamdisum, tivarem karisyum". ehavo abhigraha lei patharam prakha pramajinem trijem praharem Hastinagapura nem visem gocari kari, gama baharem avatam sabhalum je "sri Neminatha bhagavan moksa padhyarya". te vata sambhali Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. श्री पार्श्वनाथजी 23. Sri Parsvanathaji पटदर्शन 85 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEANING हवामाश्रीपार्श्वनाथजीनाममायणस्पंपूरुषसंवा दसर्ग सोलारमनिअमीसहमारमावि एकलाषाबोसच्द जाराकत्रिएलायसन्नावीसजार,श्राविका नवाथसरिर मान एकसानरसनाम निलवानागलंबन विचरताश्रीसिका चलजीन्याधीमें गिरिराजनोधर्यवकस्वा श्रीपार्श्वनाथजीवाशय करता मधीसमनिसंघान्तः श्रीसमेसिषरेमिधपदनस्वाम उपवस्वान्नमास्तविमलगिरीनेननस्तित्रीपार्श्वनाथन प्रीमिशिरानवमस्कारदापा मूल पाठ हवे त्रेवीसमा श्री पार्श्वनाथजी नमोनमः। त्रणस्ये पुरुष सुं व्रत। दस गणधरः, सोल हजार मुनि, अडत्रीस हजार साध्वि, एकलाख चोसठ्ठ हजार श्रावक, त्रिणलाख सत्तावीस हजार श्राविका। नव हाथ सरिरमानं, एकसो वरसनूं आउ, निल वर्ण, नाग लंछन। विचरतां श्री सिद्धाचलजी आवीनें गिरिराजनो वर्णव कर्यो। श्रीपार्श्वनाथजी वीहार करतां तेत्रीस मुनि संघातेः श्रीसमेतसिखरें सिद्धपदने वऱ्याः, मोक्षपद वऱ्या। नमोस्तु विमलगिरीनेः, नमोस्तु श्री पार्श्वनाथनेंः। श्री सिधगिरी नमस्कार होज्यो। हिन्दी अनुवाद 23. पार्श्वनाथजी आपने 300 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में 10 गणधर, 16,000 साधु, 38,000 साध्वियां, 1,64,000 श्रावक और 3,27,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 9 हाथ ऊंचा था। आपका वर्ण नील है। आपका लांछन नाग (सर्प) है। आपकी आयु पूरे एक सौ वर्ष की थी। क्रमशः विचरण करते आप सिद्धाचलजी पहुंचे। आपने देशना में गिरिराज का वर्णन किया। विचरण करते हुए आप 33 मुनियों के साथ सम्मेतशिखरजी पहुंचे। वहां से आपने सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। श्री विमलगिरि को भावपूर्वक वंदन। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजी को भक्ति-भाव पूर्वक वंदन। Transliteration //havem trevisama sriParsvanathaji namo namah / trana syem purusa sum vrata, dasa ganadharah, sola hajara muni, adatrisa hajara sadhavi, eka lasa cosattha hajara sravaka, trina lasa sattavisa hajara sravika, nava hatha sarira-mamna, eka so varasa num au, nila-varna, naga-lamchana. vicarata sriSiddhacalaji avinem giri-raja no varnava karyo, sri Parsvanathaji vihara karata tetrisa muni samghatemh SriSameta-sisarem sidha-pada nem varyah // moksa-pada varya, namo stu Vimalagiri nemh, namo stu SriParsvanatha nem // SriSidhagiri namaskara hojyo. 86 पटदर्शन Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. श्री महावीरस्वामीजी S333 5323 CHHANE 24. Sri Mahavirasvamiji पटदर्शन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवेतोचीसमाश्रीवर्धमानस्वामी एकलमल्लपानेदिकाएपारगा घर बौदहजारसाक बीसहजारसावीएकनाघउगासाग हजाराकक त्रिशलायसनावीसहजारप्रविकासासहाथदेश सिहलंबनमितवलेवाविरस्वामीविवरताश्रीसिछाचलेंसमो सस्वादेवताईसासरपरस्यूगिनेसीपकजीदेशनादेखें एव सबमित्रदेवदेवता श्रीमिधाचलमीनेनेवाआव्याजात्राकरे बैंएहोरकस्तानमनिराज एकलोस सामोआतापनालेति बारेमियदेखना मित्रदेवनयुजेनित्रामुनानीवानकारंजा ऐ निवारेदेवमित्रमित्रकोजेऊतोमनीचाननथीजाणतो मियाअनीसातमादीवसपहिलो प्राचिंद, श्रीश्रीधरस्वा मिनेनागयोहतो तिवाश्रीसीमधरस्वामीकेताच्या महाअधरम नोकरमार सायसनमासेमारपीपजानषिमनार एवोकरकंमुनाने राजा रामसपेनापरीनबेहो एरोमाकामथकी कल्पनयानये मनामापपानमामा एकनाकानध्या तेलोकराजावाच्या वाच सारामाथरज्या कंपचालागो विचारवालागी जेऊरवायापा की किमबुंटुनोअचस्प आपमानकरीनंमखुजमविचारनि एक नोनगरबारेंराजानिकपो पारपहररातसशाचाल्यो पनातथा योतीवारेंकोकमारीअन्वीमा माबानाहकतले चिसामोलेवाने रजाबेको मनमाविवारजेच्माणघातकीरिकरीनेमरं एस्वा माअकस्मात् एकगायंसंघमामलालतीराजानेमारवाधाइ निवार जय चतराके राजाइंघाककाढा गायनेषहारमुवा गायनायक थया लेगायमाथी एकस्त्रानयजोवनोआक्रमण बस्त्रासहीतमाहास परवाहनेविणे कातीधरती सामिडनारी लेस्बिराजानें कहे। मेरे उलयस गाय तेहगीने पापकरकंजेक्षिविहारं तेऽर्यलय नेनजोममापराकमोटाता मुफसमातेकचकर तिवारंजंक्षिति पुरुषयरोगस्यात्नापता वचनसानालारानामगोनेस्थिसामाधा याएवास्वकालिनोपहारमुक्यो रामारोशाय निवारभित्र वनिराजानेकौ पराक्रमवलाकाई तेक्वनसानलीने राजाधएफ रातोतातोथयो परमतवानोबलरिरमारधोनयी तिवारेंराजा मनमांतिधारेंखें अरोधिशकोफळनें अबलास्त्रीकेवाईतिरा मुकनेजित्यो इंसमाया आमालीचमाराजायम्यो एएचआषज्यामिनी वनोगाययएनही स्त्रिपणनाकामिनापहारपणिनहि एस्योदेवी राजादिविद्याश्चातागो मेऊस्मादेशबुकैउंजालदेषबुर जिहाच्चिा तिआबकाएरवेनामराजानीगोत्रदेवी प्रस्थ इनें कहेंखें रजिधर्मने-अजागबमहिनासधि पथवीमान्नमिस नानाधकारना तिथकरीस घणाघसहिस तिवारेंउफनेसमतात्र यसप्रतिवाऊजफरुमुथानकवतावासमकरि देवीप्रसथईरा जानेदेवीनावचनसानलीवीचारचालागीपसमतानकाची निहा द्वीधर्मनावातवेगलीरहीमविचारीनेरामावलीअागलचाल्यो मार्गala HISAMEEROSTEACLUS पटदर्शन 88 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेरकारमा कष्टमसरतो बनासथईया एस्एकपर्चतसाव्या / तेरेठेवर लिहायाच्या एतलेंसय प्रस्तथयोतिबारेंराजाची नवरात्रशारीई एरवंचीचारीनं तिहारयो कानायांनझानासघा रोकरीने उपरेंवेठो चिनविआलोवेरजिसधीमुझनेसमता नआधी जोसमताभावीहोततो देवीईझसमसाधर्मस्थानक सावता ईमवाचारतारानानेनिशाचीएरएकराक्षसाव्यात स्वालामो अरेराजालेरा:पनेअहंकारेकरी माहरीतिमाएंधन तेलिकं तेनाफल जोउफनदयाव्या मकहीरादसेराजा पाउपाहिनेवाल्पो पर्वतनीकंधराज राक्षसक्विारवालागोराः एराजसमेनकाकरूं तथासमुश्मानांयुत्तथाधकोषकरुपिणतोय मारो कछायउपसमेनही एतलावानासिदकलं मारापथरनीसः नागपाणिहिला लोहनागोषरूदेवमायाविरव्या तेम्परेंः धोबीनीमकधमाकायरें शिमराजानेराइसकी लिमपवा तोलिपि एणराजानेलगारमात्र कमायनोग्दानथयो मच्यारपहराजाने पश्यकरिन राक्षसथाको रासविचाजेयतोऽममरतामथाऊतूं फकरूंधाविनेपाबोधमलनेमक्या पन्नातकालथयायदंगोत्रदेवी। वनाशरथतिकेस्वानागी हेराजानसारखदेसें:श्रीपुरुशकपवन तीजऽचारिचले लिपति सामरिमाथकी सातस्पमेंदीतसेंकर्म दयारामोजासः एखंगोत्रदेवीकारनेअहस्पथइतिहाथ राज्यमासिावता मुनिमिल्पादेसनासानलीचाचलेबरकगिरी कंराजारीषियाच्या गिरीराज नेटरिषद्मनीमुििनधी श्री धीरजेंचमीएकातकर्जमानीमातारानाले माना सान्तमोदीवस देवतातेयोतानामित्रदेवतेनेकडे मास्चरणाय फनीने केवलज्ञानापनमें देखताइंसवातकरता तेझनिवजिने कमध्यानमेनोगेकेवानज्ञानउपमुंअंगकेवलीथईकंमुना जामियवस्वागनमोनोश्रीनिम्नगिरािमक्तिगिरी जीमनस्कारा काबु। एरवेजनागठनोराजाापक्रवादीने इंडनीजोबनाले हलेसोधर्मागणधरजी श्रीसिधाखलजीनोमहात्ममुख तिवारेश्री वीरकहेंखें माराजाबेछोएहनावसनेविछमाहाकोडिहिया aneमामराजायासें तेराजाने कोठिरोगेसरिरगंधासें जेनगरमाः रमननाई गामबाहिररर रातजातोदिवसनहेंजाय काटनी स्पायवेक्षमा भोगवतारहस्य थैत्रीनो हामहोब्वकरवानेघणाविद्याध रनोधणीविद्याधरी सेजानेविआव्या तेकागयोतातानी दासेंजा इतिहाएकविद्यारी भरतारकरे स्वामी-आयाबिऊंजणा सर्यऊक मानाहिंषन मुजीपाषाघरेजसं जेजायतेनेजाबायो तेसांना ली विद्याधरविद्याधरणीसुर्यमानायजाकरीसातिबालमजल परीचिमानमालीतिहाँधीबेनवाल्पामा आवतामरिमालराजा कोरोगमहा-आकंदकरें तेरेविधियाधरीने करुयाआविस्वामित्र ऊयाकोडियो रलवले तिचा विद्याधरक, हेस्त्रीमस्मिानना कोडिनरनाळे पुर्वलतकर्मनस्याव्या तिवारंवियाधरीइंग्रजेयरो. पटदर्शन 89 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KRAMRADHAARANGEMELA जनाएकज्याय श्रीसिधाबलजीयरेंसूर्यवनासर्यातकंमना पाशिना बिनाफरमथायतोरोगजायें एव॒मनीराजनामुषधीसानले तेकंमनायाणितीया वातसानलीने विद्याधरीधरती कलसमीशा तिजलायमालेऽराजानासरिबोटानाध्या एतलेंअडारजातनाको निकलताकेरवालागा अरेराजाअमारेताहरेंसातभरनोवेरस्ते हवेमाराजारोथाको समयाखेंरेस्वायनहाएतलामारहवन मनमकरनाशकाोगप्ररम्पराया गनाजीगो तेहविधानानघणायया एधारामनियाच्यामाहारणा मिलानी रोग,कारणयु. शिवारेमुनिकहें याबलेसातमेंन मनीनोधा नकस्वाहतो नेपामोत्तारकास्करहतेथीकोकिरोगउपनो तेवा सानिलिराजानेजातिसमण्डपमुंपुरवननदीको तिवारेचविधम घले राजाश्रीसिधाचनजामाच्या विहाअाइमोनकरीधारित्र नेइमपासणकरीनेंसीधीनस्या नमानमोनासिधाचनजी श्रीवि मलाचनजी तिहासोधर्मनारोजीनदीमोनहिमापुग्पतिवारे श्रीधारेंनदीनोमहिमामाच्या एनदिमांना तेयाजव्यजी संसारथोमोकरें हिलिथै शारकिरकवा तेकरेंखें प्रयाउछ रनरतचनीनो जीजाउधारदमवीजनो बिजोइसानइंकने चौथोमाहेश्ना गांचाब्रह्मश्नो बहोकतनयतीनो सा तमासगस्वकीनो आधमाधवनो नवमोचजसाना दसनाचक्राबुद्धनो पारमारामचंनो बारमापयाविना तरमोजाधानाचानो घौदमाबामदेमंचानो यनरमोसमराः सारंगनो तालमाकमसिनो सतरमोउछार उपसाराचार्य नामदेसचीवीमलवाहनराजाकरावस्य॥२॥एसतरतोमासानी जानाहनानीसंध्यामहामस्वभासिदाचानजीना२२एकचासना मितेकामासजयापुंकरीकगीशाशसिकंधारावीमला चलाधाकरगिरायामहागीशपुन्यरासी। श्रीमदाठापाल महातीधीरसास्वतोभरसक्किाशमुक्तिलयापुष्पदंतारचमहा एयरपथवीपीकासन्न कैलासगीराशपातानमुलाne प्रकर्मकार०सवकामदारथानमस्कारोश्रीसिछाधानजी नमोनमः॥ इलिमीसावाचलपटसंयुासंवरप्पा नाशाके७२ घनमाने पोसमाममिरचदिदिने र पका-अगस्तपुरसमलिनाथपमादनप्रसादाशायण्टा चाचराकेसरचिजेंनावेदणार वाराणी मूल पाठ हवे चोवीसमा श्री वर्धमान स्वामी। एकल्लमल्ल पोते दिक्षा। इग्यार गणधर, चौद हजार साधु, छत्रीस हजार साधवी, एक लाख ओगणसाठ हजार श्रावक, त्रिीण लाख सत्तावीस हजार श्राविकाः। सात हाथ देह, सिंह लंछन, पित वर्ण। ते श्री विरस्वामी विचरतां श्री सिधाचलें समोसऱ्यां। देवताईं समोसरण रच्यूं। त्रिगडें बेसी, प्रभुजी देसना दे छे। 90 पटदर्शन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एहवें समें बें मित्र देव-देवता श्री सिधाचलजीने भेटवा आव्या छं। जात्रा करें छे। एहवे एक स्तानकें मुनिराज एकलो सुर्य सामो आतापना ले छे, तिवारे मित्रदेवता मित्रदेवनें पुछे छे, "जे हे मित्र! आ मुनीनी वात तुं कांई जाणे छ?" तिवारें देवमित्रने मित्र कहे छे, "जे हुं तो मुनी(नी) वात नथी जाणतो, पिण अ(आ)जथी हुं सातमा दीवस पहिला हुँ महाविदेहें श्रीसीमंधर स्वामिने वांदवा गयो हतो, तिवारें श्री सीमंधर स्वामी केहता हवा। महा अधरमनो करनार, सात वसन नो सेवनार, प्रजानें पिडनार एहवो करकंडु नामे राजा राजसभा पुरीने बेठो छ। एहवे आकास थकी कल्पवृक्ष- पानडु सभामां पडूं। पानडामा एक श्लोक लख्यो छे। ते श्लोक राजाई वांच्यो। ते वाचतां राजा थर-थर ध्रुज्यो, कंपवा लागो। विचारवा लागो, “जे हवे हुं एहवा पाप थकी किम छुटुं? तो अवस्य आपघात करीने मरवू ज।" इम विचारीने एकलो नगर बाहेरें राजा निकल्यो। च्यार प्रहर रात सुधी चाल्यो। प्रभात थयो तीवारें कोईंक मोटी अटवीमां आंबाना वृक्ष तले विसामो लेवानें राजा बेट्ठो। मनमां विचारे छे, "जे आपघात किणि रीतें करीने मरूं?" एहवामां अकस्मात एक गाय सेंघडा उलालती राजाने मारवा धाई। तिवारें भयभ्रंत थकें राजाई खडक काढी गायने प्रहार मुक्यो। ते गायना बें खंड थया। ते गायमांथी एक स्त्री नवजोवना आभुषण वस्त्रे सहीत माहारुप स्वीहनें विर्षे काती धरती सामि उभा रही। तें स्त्रि राजानें कहें छे, ''अरे दुष्ट! दुर्बल पसु जे गाय तेहनें हणीने स्यूं पाप करयुं? जे क्षित्रि होइं ते दुर्बलनें न हणे। जो तुझमां पराक्रम होय तो मुझ संघातें जुध कर। तिवारें तुं क्षित्रि पुरुष खरो।" एहवां लापता (?) वचन सांभली राजा खडग लेइने ते स्त्रि सामो धायो। एहवें स्त्रिंई कातिनो प्रहार मुक्यो। ते राजा हेठो पड्यो। तिवारें ते स्त्रि वलि राजानें कहें, "पराक्रम वली कांई छे?" ते वचन सांभलीने राजा घणुं रातो-तातो थयो। पण उठवानो बल सरिरमा रह्यो नथी। तिवारें राजा मनमां विचारे छे, 'अहो धिगस्तु होः मुझनें जे अबला, स्त्री केवाई तिणें मुझनें जित्यो।' इम मोटा आलोचमां राजा पड्यो। एहवें आंख उघाडिनें जोवे तो गाय पण नहीं, स्त्रि पण नहीं, कातिनो प्रहार पणि नहि। एहवो देखी राजा पिण विचारवा लागो, 'जे हुं सू' देखुं छु के इं(द्र) जाल देखू छु।' ___ एहवू जिहां विचारें छे तिहां अंबिका एहवें नामे राजानी गोत्रादेवी प्रगट थइने कहें छे, ''हजि तुं धर्मने अजोग छ। छ महिना सुधि प्रथवीमा भमिस, नाना प्रकारना तिर्थ करीस, घणा दुख सहिस, तिवारें तुझने समता आवस्यें। तिवारे हुं तुझनें रुडु थानक बत्तावीस।" इंम कहिनें देवी अदृश थई। राजाई ते देवीना वचन साभली वीचारवा लागो पण समता न आवी। तिहां श्रुद्धी धर्मनी वात वेगली रही। इंम विचारीने राजा वली आगल चाल्यो। मार्गने विषे अनें(क) प्रकरना कष्टने सहतो छ मास थई गया। एहवे एक पर्वत आव्यो। ते हेढे वडवृक्ष छे, तिहां आव्यो। एतले सुर्य अस्त थयो। तिवारें राजाई चीतवं, "रात्र इहां रहीइं।" एहवू वीचारीने तिहां रह्यो। वडना पांनडानो संथारो करीने उपरें बेठो। चित्तने विषे आलोचे छे, जे हजि सुधी मुझनें समता न आवी। जो समता आवी होततो देवीइं मुझनें धर्मस्थानक बतावेत। इम वीचारतां राजाने निंद्रा आवी। एहवें एक राक्षस आव्यो। ते केहवा लागो, "अरे राजा! ते राज्यने अहंकारें करीनें माहरी स्त्रिी, माहरु धन ते लिधुं। तेहना फल जो तुझनें उदये आव्यां छ।" इम कहीने राक्षसें राजा प्रतें उपाडिने चाल्यो। पर्वतनी कंधराई जईनें राक्षस विचारवा लागो, "ए(ए) राजाने भक्षण करूं तथा समुद्रमां नाखुं तथा खंडोखंड करुं पिण तोय माहरो कषाय उपसमें नहीं। एतलां वाना सिद करूं? मोटा पथरनी सला उपरें अणिआलां लोहनां गोखरु देवमायाई विकुरव्या। ते उपरें धोबी जीम लुघडां झापटें, तिम राजाने राक्षस झींके, तिम पछाडे तोहि पिण राजाने लगार मात्र कषायनो उदय न थयो। इंम च्यार प्रहर राजानें उपद्रव्य करिने राक्षस थाको। राक्षसे विचारूं, "जे ए तो इम मरतो नथी हुं सूं सु करुं?" थाकिने पाछो वडतलें मुक्योः / प्रभात कालें थयो, एहवें गोत्रदेवी वली प्रगट थई। ते कहेवा लागी, "हे राजा! तू सोरठ देसेः श्री पुंडरीक पर्वत छे, तीहां जई चारित्र लेई, ते पर्वतना महिमा थकी सातमें दीवसें कर्म क्षय करी मोक्ष जाइसः।" एहवू गोत्रादेवी कहिनें अदृस्य थई। तिहाथी राज्यमार्गे आवतां मुनि मिल्यां। देसना सांभली चा(रि)त्र लेई पुंडरीकगिरीइं कंडूराजारीषि आव्या। गिरिराजनें भेटी रिषभनी मूर्ति नई वांदी श्री वीरनें चरणे नमी, एकाते जइ सुर्ज सामी आतापना ले छे। तेहनें आज सातमो दीवस छं।" देवता ते पोताना मित्रदेव तेनें कहें छे, "ते माटे हवणां ए मुनीने केवलज्ञान उपजसे।' पटदर्शन - 91 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवता इम वात करतां ते मुनिराजनें श्रुकल ध्याननें जोगे केवलज्ञान उपमुं। अंतगड केवली थई कंड्रमुनिजी सिध वरया। नमोनमः श्री विमलगिरि, मुक्तिगिरीजी न(मस्कार करूं छु। एहवें जुनागढनो राजा प्रभुने वांदीने इंद्रनी जोडें बेठो, तेहवें सौधर्मा गणधरजीइं श्रीसिधाचलजीनो महात्म पुछयो। तिवारें श्री वीर कहे छे, "आ राजा बेट्टो छे, एहना वंसने विषं माहाकोढिओ महिपाल एहवें नामें राजा थासें। ते राजानें कोढि रोगें सरिर गंधासे। जे नगरमा रह न जाइं। गाम बाहिर रहेंस्यें। रात जासें तो दिवस नहें जायं। कोढनी अस्याध्य वेदना भोगवतो रहेस्यें। चैत्रीनो अट्ठाई महोछव करवाने घणा विद्याधरो, घणी विद्याधरीओ सेंत्रुजाने विषं आव्या झें / ते ठेकाणे पोतपोतानी दीसें जाई छ। तिहां एक विद्या(ध)री भरतारनें कहें छे, "स्वामी! आपण बिहं सुर्यकुंडमां नाहिं ऋषभने पुजी पछे आपण घरें जइसं, जे जाय तेहने जावा द्यो।" ते सांभलीने विद्याधर विद्याधरणी सर्यकंडमां नाही, पूजा करी सांतिकलस जलें भरी विमानमां मेली, तिहांथी बे जणां चाल्या। मागें आवतां महिपाल राजा कोढे रोगें महा आक्रंद करें छ। ते देखि विद्याधरीने करुणा आवि। "स्वामि! आ कुण कोढियो टलवलें छे?" तिवारे विद्याधर कहे छे, "हे स्त्री! महिपाल नामें कोढियो राजा छे। पूर्व कृत कर्म उदये आव्यां छ।" तिवारें विद्याधरीइं पूछ। जे ए रोगनो एक उपाय छेः। "श्री सिधाचलजी उपरें सूर्यवनमा सुर्यकुंड छे ते कुंडना पाणिना बिंदुनो फरस थाय तो रोग जायें", एहवू मुनीराजना मुखथी सांभलुं छे। ते कुंडना पाणि वीद्या वात सांभलीने विद्याधरी हर्ष धरती कलसथी सांतिजल हाथमां लेइ राजाना सरिरें छांटा नाख्या। एतलें अढार जातना कोढ निकलता केहवा लागा, "अरे राजा! अमारे ताहरें सात भवनो वेर हतो। हवें अमारो जोरो थाको। अमथी हवे रेहवाय नहीं। एतला माटे हवे अमे जई इं छे।" इंम केहता थका रोग अदृस्थ थयो। राजा नीरोगी थयो। प्रभाते हर्ष, वधामणां, उछव घणां थया। एहवें चारण मुनि आव्या। आहार पडिलाभी रोगनुं कारण पुडूं, तिवारें मुनि कहें, "पाछले सातमें भवे ते मुनीनो घात करयो हतो। ते पाप धोतां धोता कांइक रह्यु हतुं, तेथी कोढि रोग उपनो।" ते वात सांभलि राजाने जातिसमरण उपमुं। पुरव भव दीट्ठो। तिवारें चतुर्विध संघ लेइनें राजा श्रीसिधाचलजी आव्यां। तिहां अट्ठाइ महोछव करी चारित्रा लेइ अणसण करीनें सीधीने वऱ्या। नमोनमो श्री सिधाचलजी। श्री विमलाचलजी। तिहां सोधर्मइंद्रे श्री शेजेजी नदीनो महिमा पुछयो। तिवारें श्री वीरें नदीनो महिमा मोटो वर्णव्यो छे / ए नदिमां जे नाहें ते थाई भव्यजी(व) भवसंसार थोडो करें। तिहां तिर्थे उधार किणे-किणे कर्यो, ते कहें छं। प्रथम उधार भरत चक्रवर्तीनो, बीजो उधार दंडवीर्जनो, त्रिजो इसान इंद्रनो, चोथो माहेंद्रनो, पांचमो ब्रह्मन्द्रनो, छट्ठो भुवनपतीनो, सातमो सगरचक्रीनो, आठमों व्यंत्रइद्रनो, नवमो चंद्रजसानो, दसमो चक्राबुधनो, इग्यारमो रामचंद्रनो, बारमो 5 पांडवनो, तेरमो जावड-भावडनो, चौदमो बाहडदे मंत्रीनो, पनरमो समरासारंगनो, सोलमो कर्मासानो, सत्तरमो उद्धार दुपसाह आचार्यना उपदेसथी वीमलवाहन राजा करावस्यें। 171 ए सत्तर तो मोटा। बीजा नाहनानी संख्या नहीं। 92 पटदर्शन Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे श्री सिधाचलजीना 21 एकवीस नी(ना)म छे, ते कहें छे। श्री सेजुंजय 1, पुंडरीकगीरी 2, सिद्धषेत्र 3, वीमलाचल 4, सुरगिरी 5, महागिरी 6, पुन्यरासी 7, श्रीपद 8, पर्वेन्द्र 9, महातीर्थ 10, सास्वतो 11, वृढसक्ति 12, मुक्तिलय 13, पुष्प्फदंत 14, महापद्म 15, प्रथवीपीट्ठ 16, सुभद्र 17, कैलासगीरी 18, पातालमुला 19, अकर्मक 20, सर्वकामद 211 नमस्कार हजो श्री सिधाचलने नमोनमः। इति श्री सिधाचलपट संपूर्णः। संवत् 1859 ना वर्षे शाके 1725 प्रवर्त्तमानें पोस मागसिर वदि 2 दिने कृष्ण पक्षेः अगस्त पुरे सुमितनाथ प्रसादेन, प्रसादातः ए पट वांचे तेहनेंः / पं. केसरविजेंनी वंदणा 1008 वार छ। श्रीः। हिन्दी अनुवाद 24. महावीरस्वामीजी आपने स्वयं अकेले ही प्रव्रज्या अंगीकार की थी। आपके परिवार में गौतम प्रमुख 11 गणधर, 14,000 साधु, 36,000 साध्वियां, 1,59,000 श्रावक और 3,27,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 7 हाथ ऊंचा था। आपका वर्ण पीत (सुवर्ण) है। आपका लांछन सिंह है। आपकी आयु पूरे 72 वर्ष की थी। विचरण करते आप श्रीसिद्धाचलजी पहुंचे। देवताओं ने समवसरण की रचना की। वहां विराजित होकर आप देशना दे रहे थे, उसी समय देव और देवता, दो मित्र-सिद्धाचलजी दर्शनार्थ पहुंचे। उन्होंने एक मुनिराज को सूर्य की आतापना लेते हुए देखा। मित्रदेवता ने देवमित्र से पूछा, "हे मित्र! इन मुनि के बारे में आप क्या कुछ जानते हैं?" देवमित्र ने कहा, "ज्यादा तो मैं कुछ नहीं जानता, मगर आज से सात दिन पहले मैं महाविदेह क्षेत्र में श्रीसीमंधरस्वामी के दर्शनार्थ गया था। वहां सुना था कि एक अधर्मी, दुराचारी, प्रजापीडक, सप्तव्यसनी नृप अपनी सभा में बैठा था, उसी समय आकाश से कल्पवृक्ष का एक पत्ता गिरा, जिसमें एक श्लोक लिखा था, जिसे पढते ही वह करकंडुनृप भयभीत होकर कांपने लगा। वह सोचने लगा, मैंने तो बहुत पाप कर्म किये हैं तो अब मुझे इस कर्म से कैसे मुक्ति मिलेगी? मुझे आत्मघात ही करना होगा, ऐसा सोचकर वह नगर बाहर निकल गया। चलते-चलते आम्र वृक्ष के नीचे आराम करने बैठा। मन में सोच रहा था, आत्मघात कैसे किया जाए? वहां ही अकस्मात् एक गाय अपने सींगें घुमाती हुई नृप को मारने के लिए दौड़ी। भयभीत होकर राजा ने खड्ग निकाला और अपने बचाव के लिए गाय पर वार किया। गाय दो टुकड़ों में विभक्त हो गई। उसमें से एक आभूषण-वस्त्र सहित सुन्दर नवयौवना स्त्री उपस्थित हुई। उसने राजा से कहा, "अरे! ये अबोल-दुर्बल गाय की तूने क्यों हत्या की? जो क्षत्रिय है, पराक्रमी है, वह कभी दुर्बल की हत्या नहीं करते। अगर तेरे में शौर्य है तो मेरे साथ युद्ध कर।" ऐसा कहते ही उसने राजा पर प्रहार किया। राजा गिर पड़ा। उसने कहा, "तेरे में शौर्य-बल है ही कहां? खुद तो गिर पड़ा।" स्त्री के कटाक्षयुक्त वचन सुनते ही राजा क्रोधित हो उठा। उसने स्वयं उठने का प्रयत्न किया लेकिन उठ नहीं पाया। नराश होकर आंखें मूंदकर सोचने लगा, "क्या एक अबला ने मुझे परास्त कर दिया?" जैसे आंखें खुली तो न तो वहां गाय थी न तो यौवना स्त्री और न कोई प्रहार। सोचने लगा, "मैंने सपना तो नहीं देखा। क्या वह इन्द्रजाल थी?" इतने में ही राजा की गोत्रदेवी अंबिका दृश्यमान हई। उसने राजा से कहा, "हे राजन्! धर्मकार्य के लिए अभी तेरा समय नहीं हआ है। तुझे अभी छ: मास भ्रमण करना होगा, विविध कष्ट सहने होंगे, तीर्थयात्रा करनी होगी। जब समता-क्षमाभाव उत्पन्न होंगे तब मैं तुझे अच्छा स्थान दिखाऊंगी।" ऐसा कहते देवी अदृश्य हो गई। पटदर्शन - 93 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा सोचने लगा। जब तक समता नहीं होगी तो धर्मकार्य कैसे होंगे? वह आगे रास्ते चल पड़ा। क्रमशः छ: महीने बीत गए / सूर्यास्त का समय हो रहा था। एक विशाल वट वृक्ष देखते ही उसके नीचे रात्रि निर्गमन के लिए रुकने का सोचा। वृक्ष के पत्तों का संस्तारक तैयार किया। स्वयं की आलोचना करने लगा, अभी समता नहीं आई, अगर आई होती तो देवी खुद आकर मुझे मार्गदर्शन देती। राजा निद्राधीन हो गया। एक राक्षस वहां आकर कहने लगा, "अरे राजन्! राज्य के अहंकार से तूने मेरी स्त्री और धन छीन लिया था, वह कर्म अब उदय में आया है।" वह राजा को उठाकर चलने लगा। सोचने लगा कि इसका क्या करूं? स्वयं उसे खाऊं, समुद्र में डाल दूं, या उसके सहस्र टुकड़े कर दूं, फिर भी मेरा क्रोध शांत नहीं हो सकता है। उसने अपनी दैवी माया से लोहे के नुकीले कील उत्पन्न किये और जिस तरह धोबी कपड़े को पटक-पटक कर धोते हैं, उसी तरह वह राजा के शरीर को जोरों से पटकने लगा। फिर भी राजा को कषाय उत्पन्न न हुआ। राक्षस ने चार प्रहर राजा को विविध उपसर्ग किये, फिर भी राजा समता भाव से सहता रहा। राक्षस खुद थक गया और राजा को उसी वृक्ष के तले छोड़ आया। सुबह का समय हुआ। गोत्रदेवी प्रगट हुई और कहा, "हे राजन्! सोरठ प्रदेश में श्री पुंडरीक पर्वत है, वहां जाकर चारित्र ग्रहण करो। उस पर्वत की महिमा से सातवें दिन तुझे मोक्ष प्राप्त होगा।" देवी अदृश्य हो गई। वह सोरठ की ओर चलने लगा, वहां रास्ते में मुनिदर्शन हुए। मुनि की देशना से प्रतिबोधित होकर राजा ने चारित्र ग्रहण किया और क्रमशः कंडूऋषि पुंडरीकगिरि पहुंचे। ऋषभदेव की प्रतिमा की वंदना, पूजा की और एकाकी स्थल पर पहुंचकर सूर्य की आतापना ले रहे हैं। आज सातवां दिन है।" दोनों मित्र वार्तालाप कर रहे थे, तभी उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। अंततः केवली होकर कंडूमुनिजी ने सिद्धपदमोक्षपद प्राप्त किया। विमलगिरि, मुक्तिगिरि को भावपूर्वक वंदन। जूनागढ़ का नृप प्रभु दर्शन करके इन्द्र समीप आकर बैठा। उसने सौधर्म गणधर से सिद्धाचलजी का माहात्म्य पूछा। तब श्री वीर भगवंत ने कहा, "यह राजा के वंश में महिपाल नामक कुष्ठ रोगी राजा उत्पन्न होगा। उनका पूरा बदन कुष्ठ रोग से व्याप्त होगा और उसकी दुर्गंध से उसे नगर के बाहरी प्रदेश में रहना होगा। असाध्य वेदना उसे भुगतनी होगी। चैत्रमास का अष्टह्निक महोत्सव करने अनेक विद्याधर युगल शत्रुजय पहुंचे हुए हैं। एक विद्याधरी ने अपने स्वामी विद्याधर से कहा, "स्वामी हम दोनों सूर्यकुंड में स्नान करेंगे और बाद में ऋषभदेव की सूत्र पूजा विधि सम्पन्न करके ही वापिस घर लौटेंगे।" दोनों ने सूर्यकुंड में स्रान किया और सूर्यकुंड के पानी से शांतिकलश भरा। दोनों ऋषभदेव की मूर्ति के सन्मुख गये। उन्होंने सात्र-पूजा विधि शुरू की। शांतिकलश के जल से प्रभु की मणिमय मूर्ति का प्रक्षालन किया। भक्तिभाव पूर्वक विधि सम्पन्न की और शांतिकलश शांतिजल से भर दिया। दोनों ने वापिस घर की ओर प्रयाण किया। मार्ग में कुष्ठरोगी महिपाल की दर्दभरी चीख, आक्रन्द सुना। विद्याधरी ने करुणा से प्रियतम से इस विषयक पूछा, तब उसने बताया कि "यह महिपाल नामक कुष्ठरोगी नृप है। पूर्वकृत कर्मोदय जागृत हुआ है जो असाध्य रोग से पीड़ित है। मगर उसका एक उपाय है। अगर उसे सिद्धाचलजी स्थित सूर्यकुंड के जल का स्पर्श हो जाये तो यह रोग मिट सकता है, ऐसा मैंने मुनि से जाना है।" विद्याधरी के हर्ष की सीमा न रही। तुरन्त ही उसने विमान रुकवाया। शांतिकलश के शांतिजल से उसने नृप के शरीर पर छिटकाव किया, तो उसके अठारह प्रकार के कुष्ठरोग बाहर निकलने लगे और कहने लगे, "हे राजन्! अपना सात जन्मों से वैर था। मगर तुम्हारे इस सूर्यकुंड जलसे- शांतिकलश के शांतिजल के प्रभाव से अब हमारी शक्ति मंद हो गई है, जिससे अब हम नहीं रह पायेंगे।" और वे चले गये। राजा का रोग अदृश्य हआ और वह निरोगी हो गया। सर्वत्र हर्षोत्सव, हर्षोल्लास का महोत्सव होने लगा। एक बार चारण मुनि पधारे। राजा ने उन्हें आहार से प्रतिलाभित किया और कुष्ठ रोग का कारण पूछा। मुनि ने कहा, "इस जन्म से पूर्व सातवें जन्म में तूने मुनि का उपघात किया था, वह तेरे पाप कर्म क्रमशः क्षय होकर जो बचे थे, उससे तुझे कुष्ठरोग हुआ था।" मुनि का कथन सुनकर राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वभव प्रत्यक्ष देखा। 94 पटदर्शन Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विध संघ लेकर राजा सिद्धाचलजी पहुंचे। वहां प्रभुदर्शन-अष्टाह्निक महोत्सव किया। फिर चारित्र धर्म अंगीकार किया। अनशन व्रत अंगीकार करके सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। नमो सिद्धाचलजी-विमलाचलजी। भगवान महावीर को सौधर्म इन्द्र ने शत्रुजय नदी के महिमा विषयक पूछा। वीर ने सविस्तृत महिमा बताई। उस शत्रुजय नदी में जो भव्य जीव सान करते हैं, उसके भव भ्रमण के चक्र कम होते हैं, कर्मक्षय से मुक्ति शीघ्र मिलती है। शत्रुजयतीर्थ का 17 तीर्थोद्धार जिसने करवाए थे, उस विषयक जानकारी दी गई है। प्रथम जीर्णोद्धार भरत चक्रवर्ती, दूसरा जीर्णोद्धार दंडवीर्यनप, तीसरा जीर्णोद्धार ईशानइंद्र, चौथा जीर्णोद्धार माहेन्द्र, पांचवां जीर्णोद्धार ब्रह्मेन्द्र, छठा जीर्णोद्धार भुवनपति, सातवां जीर्णोद्धार सगर चक्रवर्ती, आठवां जीर्णोद्धार व्यंतरेन्द्र, नौवां जीर्णोद्धार चंद्रयशा नृप, दसवां जीर्णोद्धार चक्रायुध नृप, ग्यारहवां जीर्णोद्धार रामचन्द्रजी, बारहवां जीर्णोद्धार पांच पांडव, तेरहवां जीर्णोद्धार जावडभावड, चौदहवां जीर्णोद्धार बाहडदे मंत्री, पन्द्रहवां जीर्णोद्धार समरासारंग, सोलहवां जीर्णोद्धार कर्मशाह, सत्रहवां जीर्णोद्धार द्रुपसाह आचार्य के सदुपदेश से विमलवाहन नृप करवाएंगें। यह सत्रह तो बड़े जीर्णोद्धार हैं। अन्य छोटे तो असंख्य हैं। सिद्धाचलजी के 21 नाम निम्नलिखित हैं * श्री शत्रुजय 1, श्री पुंडरीकगिरि 2, श्री सिद्धक्षेत्रा 3, श्री विमलाचल 4, श्री सुरगिरि 5, श्री महागिरि 6, श्री पुण्यराशि 7, श्री श्रीपद 8, श्री पर्वेद्रं 9, श्री महातीर्थ 10, श्री शाश्वता 11, श्री वृद्धशक्ति 12, श्री मुक्तिलय 13, श्री पुष्पदंत 14, श्री महापद्म 15, श्री पृथ्वीपीठ 16, श्री सुभद्र 17, श्री कैलासगिरि 18, श्री पातालमुख 19, श्री अकर्मक 20, श्री सर्वकामद 21 / प्रशस्ति :ह्र श्री सिद्धाचलजी को नमस्कार हो। यह श्री सिद्धाचल पट पूर्ण हुआ। सम्वत् 1859 का वर्ष, शक संवत 1725 की (पोंस) मृगशिर बदी के दिन कृष्ण पक्ष में अगस्तपुर में सुमतिनाथ की कृपा से पूर्ण हआ। पं. केसरविजय को 1008 बार वंदना। श्रीः। पटदर्शन - 95 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Transliteration // have covisama sri Vardhamamna-svami ekallamalla pote diksa. igyara ganadhara, cauda hajara sadhu, chatrisa hajara sadhavi, eka lasa oganasatha hajara sravaka, trina lasa sattavisa hajara sravika, satha hatha deha, siha-lamchana, pita-varna.' te sri Virasvami vicarata sriSiddhacalem samosarya. devataim samosarana racyum. tri-gadem besi prabhuji desana de chem. ehave samem bem mitra deva-devata sriSidhacala ni ne bhetava avya chem. jatra karem chem. ehavem eka stanakem muni-raja ekalo surya-samo atapa na le chem. tivarem mitra devata mitra deva nem puchem che je "he mitra, a muni ni vata tum kaim jane chem"?. tivarem deva mitra nem mitra kahem chem je "hum to muni vata nathi janato, pina aja thi hum satama divasa pahilam hum Mahavidehem srisrimamdhara svami ne vandava gayo hato. tivarem sriSimamdhara-svami kehata hava maha adharama no karanara, sata vasana no sevanara, praja nem pidanara, ehavo Karakamdu name raja raja-sabha puri nem bettho chem. ehave akasa thaki kalpa-vrksa num panadum sabha mam padum, panada mam eka sloka lasyo chem. te sloka rajaim vacyo. te vacatam raja thara 2 dhrujyo, kampava lago, vicarava lago "jehave hum ehava papa thaki kima chutum? to avasya apaghata karinem maravum ja." imma vicarinem ekalo nagara bahemre raja nikalyo. cyara prahara rata sudhi calyo. prabhata thayo. tivarem koika moti atavi mam amba na vrksa talem visamo leva nem raja bettho. mana ma vicare chem je "apaghata kini ritem karinem marum?" ehavana akasmat eka gaya semghada ulalati raja nem marava dhai. tivarem bhaya-bhranta thakem rajaim sadaka kadhi gaya nem prahara mukyo. te gaya na bem sanda thaya. te gaya ma thi eka stri nava-jovana abhusana-vastre sahita maharupa sviha nem visem kati dharati, sami ubha rahi. tem stri raja nem kahem chem "are dusta durbala pasu je gaya teha nem haninem syum papa karyum? je ksitri hoim te durbala nem na hanem. jo tujha mam parakrama hoya, to mujha samghatem judha kara". tivarem "tum ksitri purusa saro" ehavam lapata (?) vacana sambhali raja sadaga leinem te stri samo dhayo. ehavem striim kati no prahara mukyo. te raja hetho paryo, tivare te stri vali raja nem kahem "parakrama vali kaim chem?" te vacana sambhalinem raja ghanum rato tato thayo, pana uthava no bala sarira ma rahyo nathi. tivarem raja mana mam vicarem chem "aho dhig astu hoh mujha nem je abalam stri kevaim tinem mujha nem jityo". imma mota aloca mam raja padyo. ehavem asa ughadinem jove, to gaya pana nahi, stri pana nahi, kati no prahara pani nahi. ehavo dekhi raja pina vicarava lago je "hum sunum desum chum ke im(dra)jala desu chum". ehavum jiham vicarem chem, tiham Ambika ehavem namem ramja ni gotra-devi pragata thainem kahem chem "haji tum dharma nem ajoga chem. cha mahina sudhi prathavi ma bhamisa, nana prakara na tirtha karisa, ghana dusa sahisa. tivarem tujha nem samata avasyem. tivarem hu tujha nem rudu thanaka battavisa". imma kahinem devi adrsa thai, rajaim te devi na vacana sabhali vicarava lago. pana samata na avi. tiham suddhi dharma ni vata vegali rahi. imma vicarinem raja vali agala calyo. marga nem vise anem(ka) prakara na kasta nem sahato cha masa thai gaya. ehavem eka parvata avyo. te hetthem vada-vrksa chem. tiham avyo. etalem surya asta thayo. tivarem rajaim cintavum "ratra iham rahiim". ehavam vicarinem tiha rahyo. vada na pamnada no santharo karinem uparem bettho. cimta nem visem alocem chem je "haji sudhi mujha nem samata na avi. jo samata avi hota to deviim mujha nem dharma-sthanaka bataveta". ima vicaratam raja nem nidra avi. ehavem eka raksasa avyo. kehava lago "arem raja, te rajya nem ahamkarem karinem mahari stri maharum dhana te lidhum. teha na phala jo tujha nem udayem avya chem". ima kahinem raksasem raja pratem upadinem calyo. parvata ni kamdharaim jainem raksasa vicarava lago "e raja nem bhaksana karum tatha samudra mam namsu tatha samdo-samda karum, pina toya maharo kasaya upasame nahim. etala 7. Life duration is missing in this list. 96 - पटदर्शन Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vana sida karum?" mota pathara ni sala uparem anialam loha na gosaru deva-mayaim vikuravya. te uparem dhobi jima lughadam jhapatem. tima raja nem raksasa jhikem tima pachadem tohi, pina raja nem lagara matra kasaya no udaya na thayo. imma cyara prahara raja nem upadravya karinem raksasa thako, raksasem vicarum je "e to ima marato nathi, hum sum sum karum" thakinem pacho vada talem mumkyoh. prabhata-kalem thayo. ehavem gotra-devi vali pragata thai. te kehava lagi "he raja, tu Sorathadeseh sriPudarika-parvata chem. tiham jai, caritra lei, te parvata na mahima thaki sata mem divasem karma-ksaya kari moksa jaisah". ehavum gotra-devi kahineh adrsya thai, tiham thi rajya-marge avatam muni milya desana sambhali, ca(ri)tra lei, Pumdarikagirii Kandu-rajarisi avya. giriraja nem bheti Risabha ni murtti naim vamdi sri Vira nem caranem nami ekate jai surja-sami atapana le chem. teha nem aje satamo divasa chem. devata te pota na mitra deva tenem kahem chem. te matem hamanam e muni nem kevalajnana upajasem. devata imma vata karatam te muniraja nem sukala-dhyana nem jogem kevala-jnana upanum. amtagada kevali thai Kamdumuniji sidha varya // namo namoh // sri Vimalagiri/Muktigiriji na(ma)skara karu chum. ehavem Junagadha no raja prabhu ne vandinem indra ni jodem betho. tehavem Saudharmaganadharajiim sriSidhacalaji no mahatma puchyo. tivarem Vira kahem chem "a raja bettho chem. eha na vamsa ne visem maha-kodhio Mahipala ehavem namem raja thasem. te raja ne kodhi-rogem sarira gandhasem. je nagara mam rahu na jaim, gamma bahira rahesyem, rata jasem. to divasa nahem jayem. kodha ni asyadhya vedana bhogavato rahesyem". Caitri no atthai mahochava karava nem ghana vidyadhara, ghani vadyadhario Setruja nem visem avya chem. te thekanem pota pota ni dise jaim chem. tiham eka vidya(dha)ri bharatara nem kahem chem "svami, apana bihum jana Suryakunda ma nahim Rsabha nem puji pachem apana gharem jaisum. je jaya tehanem java dyo". te sambhalinem vidyadhara-vidyadharani Surya-kunda mam nahi, puja kari, samtikalasa jalem bhari, vimana mam meli, tiham thi be janam calya, margem avata Mahipalaraja kodhe rogem maha akranda karem chem. te desi vidyadhari nem karuna avi "svami, a kuna kodhiyo talavalem chem?". tivarem vidyadhara kahem chem "he stri, Mahipala namem kodhio raja chem. purvakrta-karma udayem avya chem". tivarem vidyadhariim puchum "je e roga no eka upaya chem: sriSidhacalaji uparem Suryavana mam Suryakunda chem. te kunda na pani na bindu no pharasa thaya, to roga jayem". ehavum muni-raja na musa thi sambhalum che". te kunda na pani vidya vata sambhalinem vidyadhari harsa dharati kalasa thi santijala hatha mam lei, raja na sarirem chamta nasya. etalem adhara jatana kodha nikalata kehava laga "are raja, amare taharem sata bhava no vera hato. havem amaro joro thako. ama thi havem rehavaya nahim, etala matem havem amem jaiim chem". imma kehata thaka roga adrsya thayo. raja niroga thayo. prabhate harsa, vadhamana, uchava ghana thaya. ehavem carana-muni avya. ahara padilabhi roga num karana puchum. tivarem muni kahem "pachalem satamem bhavem te muni no ghata karyo hato, te papa dhota 2 kaika rahyum hatum tethi kodi-roga upano", te vata sa(m)bhali raja nem jati-samarana upanum. purava-bhava dittho. tivarem caturvidha-samgha leinem raja sriSidhacalaji avya. tiham atthai mahochava kari, caritra lei, anasana karinem, sidhi nem varya. namo namo sriSidhacalaji, sri Vimalacalaji. tiham Sodharma-imdrem srisetrumji nadi no mahima puchyo. tivare sri Virem nadi no mahima moto varnavyo chem. e nadi mam je nahem, te thaim bhavya ji(va) samsara thodo karem. tiham tirtha-uddhara kinem 2 karyo, te kahem chem. prathama uddhara Bharata-cakravartti no, पटदर्शन 97 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bijo udhara Dandabirja no, trijo Isana-indra no, cotho Mahendra no, pamcamo Brahmandra no, chattho Bhuvanapati no, satamo Sagara-cakri no, atthamo Vyantra-indra no, navamo Candrajasa no, dasamo Cakravudha no, igyaramo Ramacandra no, baramo 5 Pandava no, teramo Javada-Bhavada no, caudamo Bahadade mantri no, panaramo Samarasaranga no, solamo Karmasa no, sattaramo uddhara Dupasaha-acarya na upadesa thi Vimalavahana-raja karavasyem // 17 // e satara to mota, bija nahana ni samsya nahih // have sriSiddhacalaji na 21 ekavisa nama chem. te kahem chemh // 1. SriSetrumjaya 2. Pundarikagiri 3. Siddhasetrem 4. Vimalacala 5. Suragiri 6. Mahagiri 7. Punyarasi 8. Sripada 9. Parvendra 10. Mahatirtha 11. Sasvato 12. Drdhasakti 13. Muktilaya 14. Pupphadanta 15. Mahapadma 16. Prathavipittha 17. Subhadra 18. Kailasagiri 19. Patalamula 20. Akarmaka 21. Sarvakamada namaskara hajo sriSiddhacala nem namo namah // Colophon iti SriSiddhacala-pata sampurnamh// samvat 1859 na varsem sake 1725 pravarttamanem Posa Magasira vadi 2 dine krsna-pakseh // Agastapure Sumatinatha-prasadena prasadath// e pata vacem tehanemh// Pam/Kesaravijem ni vamdana 1008 vara chem // srih. भाग-2 पट अन्तर्गत कथाएं इस पट के अन्तर्गत की कथाएं मुख्यतः मौखिक रूप में मिल रही है। इस पट में उल्लिखित कथाएं शत्रुजय तीर्थ की पवित्रता और प्रचलितता की ओर निर्देश करती हैं। मध्यकालीन युग अर्थात् विक्रम शताब्दी 12 से 18 के बीच शत्रुजय तीर्थ विषयक अनेकविध कृतियों की रचना उपलब्ध हैं। विक्रम की 14वीं शताब्दी में धनेश्वर सूरि ने शत्रुजय माहात्म्य की रचना की। इसके अलावा नेमिचन्द्रसूरि ने 'प्रवचन सारोद्धार', हेमचन्द्राचार्य ने 'त्रेसठ श्लाका महापुरुष चरित्र', सोमतिलक सूरि ने 'सप्तति स्थान प्रकरण' इत्यादि अनेक ग्रन्थों की संस्कृत, प्राकृत भाषा में रचना की हैं, जिसमें शत्रुजय तीर्थ विषयक जानकारी उपलब्ध है। इसके अलावा प्रादेशिक भाषा में भी इस विषयक बहुत से जानकारीपूर्ण कृतियों की रचना उपलब्ध हैं जिसमें ये कथाएं किसी न किसी रूप में प्राप्त होती हैं। इन सब कथाओं के द्वारा तीर्थ जैन परम्परा में कितना पवित्र और महत्वपूर्ण है इसकी प्रतीति स्वतः ही हो जाती है। उपरोक्त पट में समाविष्ट कथाएं शत्रुजय स्थित प्रत्येक स्थल, ढूंक, नदी, कुंड, पर्वत इत्यादि विषयक एक छोटा सा इतिहास चमत्कारिक घटना से हमें परिचित करती हैं। माना जाता है कि उसकी प्रत्येक ईंट पावन, पवित्र है और उसके साथ कोई न कोई ऐतिहासिक घटना जुड़ी हुई हैं। उसके कुण्ड के पानी का माहात्म्य आदि-अनादि से ऐसा ही सुरक्षित हैं। उसके कुण्ड और तालाब के पानी का सविशेष महत्त्व है और उससे संदर्भित कथाएं इसके अन्तर्गत उपलब्ध हैं। इस तीर्थ पर सिर्फ मनुष्य ही नहीं मगर देव, देवी, विद्याधर, विद्याधरी, तिर्यंच और नारकी के जीव भी यात्रा करने आते हैं। उनके द्वारा प्रत्यक्ष स्वानुभव से भी इसका माहात्म्य जाना जाता है और इस तीर्थ की विशिष्टता पहचानी जाती है। उसके कुण्ड के पानी के स्पर्श मात्र से मानव जीवन में परिवर्तन हो सकता है और असाध्य, अति पीड़ित रोग भी क्षण मात्र में अदृश्य हो जाता है। इस तीर्थ में स्थित प्रत्येक टेकडी, ढूंक के साथ एक नाम जुड़ा हुआ है और उसके साथ एक ऐतिहासिक घटना घटित है उसी पर आधारित रहकर इसका नामकरण किया गया है। इसके अन्तर्गत कथाएं उपर्युक्त विषय पर आधारित हैं जो जैन भक्तों को इस तीर्थ के प्रति श्रद्धान्वित करती है। 98 पटदर्शन Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. पट अन्तर्गत उल्लिखित कथाएं 1. ऋषभदेव यहां ऋषभदेव तीर्थंकर अंतर्गत समाविष्ट कथाएं विस्तृत रूप से दी गई हैं। पुंडरीकतीर्थ ओसप्पिणीइ पढम, सिद्धो, इह पढम चक्की-पढम सुओ। पढम जिणस्स य पढमो, गणहारी जत्थ पुंडरीओ।। चित्तस्स पुण्णिमाए-समणाणं पंचकोडि परिवरिओ। णिम्मल जसपुंडरीअं-जयउ तं पुंडरीयतित्थं।। अर्थ- अवसर्पिणो काल के प्रथम चक्रवर्ती के प्रथम पुत्रप्रथम तीर्थंकर के प्रथम गणधर पुंडरीक ने जहां चैत्रमास की पूर्णिमा के दिन पांच करोड़ मुनियों के साथ मोक्षपद प्राप्त किया, वहीं निर्मलयश कमल समान पुंडरीकतीर्थ जयवंत रहो।। इस अवसर्पिणी के प्रारम्भ में प्रथम चक्रवर्ती भरत के प्रथम पुत्र पुंडरीक अर्थात् ऋषभसेन, प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के प्रथम गणधर ने श्रीशजयतीर्थ से मोक्ष गमन किया था। एक बार पुंडरीकजी ने भगवान से पूछा, ''मेरी मुक्ति कहां होगी?" प्रभु ने प्रत्युत्तर में सुराष्ट्र (सौराष्ट्र) स्थित शत्रुजय तीर्थ की महिमा दर्शाई। उन्होंने कहा कि वह तीर्थ अतीत में बहुत ही पावनपवित्र माना जाता था और भविष्य में इसका माहात्म्य इतना ही रहेगा। वर्तमान काल में यह तीर्थ आपके नाम से ही पुनः विशेष प्रचलित होगा। इसी तीर्थ में आपके आत्मा की सिद्धि होगी। प्रभु से ऐसा कथन सुनकर आपने साथी मुनियों से कहा, "यह गिरिवर क्षेत्र के प्रभाव से सिद्धि सुख का स्थान है और कषाय रूप शत्रुओं को अंकुशित करने वाला प्रमुख स्थान है। हमें यहाँ मुक्तिदायक संलेखना करनी होगी।' ऐसा कहकर आपने अपने पाँच करोड़ मुनियों के साथ आलोचना की और महाव्रतों को दृढ़ किया। आपने मुनियों के साथ निरागार और दुष्कर ऐसा अंतिम भव संबंधित अनशन व्रत ग्रहण किया। एक मास के अनशन-संलेखना करके चैत्री पूर्णिमा के दिन आप सर्व ने सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। तब से यह तीर्थ पुंडरीक तीर्थ से प्रचलित हुआ है और चैत्री पूर्णिमा पवित्र पर्व की तरह मनाई जाती है। क्रमशः संघ आगे बढ़ता रहा। इन्द्र भी संघ में शामिल हुए थे। इन्द्र और भरत ने परस्पर प्रेमालिंगन किया। इन्द्र ने अपनी माला सहर्ष भरत को पहनाई। रायण वृक्ष जहां श्री ऋषभदेवजी ने अपनी देशना दी थी। जिस तरह पुष्करमेघ दूध की वर्षा करता है, इसी तरह रायण वृक्ष शीतलता-शांति-पवित्रता की वर्षा करता है। वहां उन्होंने रायण वृक्ष की प्रदक्षिणा की और ऋषभदेवजी की पादुका का स्थापन किया। इन्द्र ने भी आने वाला समय जानकर लोगों के भावों की विशुद्धता अर्थ प्रभु की मूर्ति स्थापना करने का महत्त्व समझाया। भरत ने वहां ऋषभदेवजी के एक भव्य, विशाल प्रासाद का निर्माण करवाया। वहां उन्होंने पुंडरीक गणधर की मूर्ति स्थापित की। रायण वृक्ष नीचे ऋषभदेवजी की पादुका का स्थापन किया। वहां तीन प्रदक्षिणा दी और अन्य सर्व पूजादि क्रिया सम्पन्न की। भरतकुंड सिद्धाचलजी का माहात्म्य सुनकर भरत ने चतुर्विध संघ के साथ तीर्थयात्रा करने प्रस्थान किया। रास्ते में उन्होंने कुंड और पादुका जीर्ण हुए देखे। भरत ने इन्द्र से इस विषयक वार्तालाप किया। इन्द्र ने कहा कि यह महाकुंड सर्वतीर्थवितार नाम से प्रख्यात है। पूर्व उत्सर्पिणी काल में इस गिरि पर केवलज्ञान नामक प्रथम तीर्थंकर के पास सौधर्मपति इन्द्र पधारे थे। उन्होंने तीर्थ की भक्ति-पूजा के लिए इस कुंड में गंगा, सिंधु, पद्महृद इत्यादि नदियों के जल निर्माण किये थे। इस कुंड के जल से प्रभुजी का स्रात्राभिषेक करने से पाप क्षय होते हैं और सिद्धपद प्राप्त होता है। बहुत प्राचीन होने से यह जीर्ण तो है, फिर भी उसका प्रभाव सविशेष बढ़ता ही रहता है। इन्द्र से ऐसा सुनकर भरत चक्रवर्ती ने उस कुंड और पादुका का जीर्णोद्धार करवाया। तभी से यह प्रभावशाली कुंड भरतकुंड नाम से प्रचलित है। पटदर्शन 99 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-विनमि और चर्चगिरि णमि विणमी खयरिंदा-सह मुणि कोडीहिं दो हिं संजाया। जहिं सिद्ध सेहरा सइ-जयउ तयं पुंडरी तित्थं।। अर्थ-दो करोड़ मुनियों के साथ नमि और विनमि नामक खेचरेन्द्र जहां सिद्धों में शिरोमणि रूप हुए, वह पुंडरीक तीर्थ जयवंत हो। चक्रवर्ती भरत शत्रुजय तीर्थ पर चतुर्विध संघ के साथ क्रमशः आगे बढ़ रहे थे। गिरनार की ओर जाते हुए नमि-विनमि ने नम्र स्वर से निवेदन किया 'भगवान ऋषभदेव ने हमें आदेश दिया है कि हमें इसी सिद्धाचल से ही मोक्षपद प्राप्त होगा, तो हम यहां ही रहना चाहते हैं।' भरत ने सविनय प्रत्युत्तर देते हुए कहा, "आप भव्यात्मा हैं। आपके आत्मा की सिद्धि हो ऐसा ही आप करें।" तभी ये दोनों मुनि अन्य दो करोड़ मुनियों के साथ वहीं तीर्थ की निश्रा में रहे। फाल्गुन मास की शुक्ल दशमी के दिन आयुष्य-कर्म क्षय करते नमि-विनमि राजर्षि ने अन्य मुनियों के साथ मोक्षपद-सिद्धपद प्राप्त किया। तभी से यह स्थल पवित्र माना जाता है। कहा जाता है कि फाल्गुन पूर्णिमा के दिन उसी स्थान से दिया गया अल्प दान भी अति फलदायी प्रतीत होता है। भरत चक्रवर्ती और देवता ने वहां निर्वाण महोत्सव किया और उनकी रत्नमय मूर्तियां स्थापित की। नमि-विनमि विद्याधर की कनका, चर्चा आदि 64 पुत्रियां भी उसी पवित्र तीर्थ पर चारित्रधर्म ग्रहण करके निवास करती थीं। अपने कर्मों का क्षय करते हए उन्होंने चैत्र मास की कृष्णा चतुर्दशी के दिन अर्धरात्रि के समय वहां स किया, जिससे यह स्थान चर्चगिरि शिखर नाम से प्रचलित हुआ है। इससे चैत्र मास की कृष्णा चतुर्दशी पर्व तिथि की तरह स्वीकृत की गई है। अन्य मतानुसार भरत राजा ने वहां जो देवांगनाएं हुईं, उनकी स्थापना वहां की है। ऐसी भी मान्यता प्रचलित है कि ये देवियां भक्त के मनोवांछित पूर्ण करते हैं और प्रत्यक्ष भी होती हैं। बाहुबली ढूंक क्रमशः आगे बढ़ते हुए वे तलाध्वज नामक पर्वत पर पहुँचे। शक्तिसिंह ने बताया कि इसी स्थान से बाहुबलीजी ने मोक्षपद-सिद्धपद प्राप्त किया है। इसे देखते ही भरत प्रसन्न हुए और वहाँ उन्होंने बाहुबलीजी का प्रासाद बनवाया। तभी से यह स्थान बाहुबली ट्रॅक नाम से प्रचलित है। चंद्रप्रभु मंदिर चक्रवर्ती भरत अपने संघ के साथ यात्रा कर रहे थे। रास्ते में उन्हें एक तापस दिखाई दिया। वह एकाकी अपनी ध्यानावस्था में स्थित था। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने तापस को सादर वंदन किया और इस तरह एक कोने में एकाकी बैठने का कारण पूछा। तापस ने भी ये भगवान ऋषभदेव के चक्रवर्ती पुत्र भरत है, ऐसा जान लिया। उसने प्रत्युत्तर में कहा, "भगवान श्रीऋषभदेवजी ने मुझे आदेश दिया है कि आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभुजिन के शासनकाल में तू इसी स्थान से मोक्षपद पाएगा, बस तभी से मैं यहीं व्रत अंगीकार करके बैठा हूं।" भरतजी प्रसन्न हुए। श्री चंद्रप्रभ स्वामी के समवसरण की रचना यहीं होने वाली है, ऐसा जानकर तापस की धर्मास्था स्थिर रखने के लिए, लोगों को श्रद्धान्वित करने हेतु उन्होंने वहां एक चंद्रप्रभुजिन के मंदिर का निर्माण करवाया और प्रभु की मणिमयमूर्ति की स्थापना भी करवाई। वहां तीर्थ का स्थापन किया, जिससे वहां अनेक तापस मुनिजन, साधुगण और चंद्रयश नृप ने भी चारित्रधर्म अंगीकार करके केवलज्ञान (तदनन्तर) मोक्ष सुख प्राप्त किया है। इस तरह इस स्थान का प्रभाव अति निर्मल-पवित्र है। 100 पटदर्शन Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिकल्प तीर्थ चक्रवर्ती भरत चतुर्विध संघ के साथ क्रमशः प्रयाण कर रहे थे। वहां सतुदि नामक एक पर्वत दिखाई दिया, जहां से भरत पूर्व में चक्रवर्ती पद प्राप्ति के लिए, षट्खंड पर विजय प्राप्त करने निकले थे। वहां से गुजरते हुए उन्होंने देखा कि यहां बहुत लोग मृत्यु प्राप्त कर रहे हैं। वे सोचने लगे कि यहां न तो युद्ध संग्राम है, फिर भी ऐसे ही लोगों का विनाश क्यों हो रहा है? उतने में ही एक चारण मुनि प्रत्यक्ष हुए। मुनि ने भी भरत को इस विषयक पृच्छा की। तभी भरत ने कहा, "हे मुनीश्वर! यहां क्या हो रहा है, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।" तब मुनि ने समाधान करते हुए कहा, "हे राजन्! कुछ मलेच्छ राजाओं ने यहां एक उपद्रव फैलाया है। जिससे बिना कारण मनुष्यों का क्षय हो रहा है।'' भरत राजा ने मुनि से उसके निवारण के लिए पूछा। मुनि ने बताया, "हे राजन्! इस नदी का प्रभाव अत्यंत निर्मल-विशुद्ध है। इसी नदी के पानी के स्पर्श मात्र से यह रोग गायब हो जायेगा और मानव हानि-संहार बच पायेगा।" भरत राजा ने मुनि को सादर वंदन किया। उन्होंने वहां के लोगों-सैन्य को इस नदी के प्रभाव विषय में समझाया। सबने उसी नदी में सान किया। समग्र सैन्य तथा प्रजा रोग मुक्त हुए। भरत राजा प्रसन्न हुए। मगर उनका एक प्रिय हस्ती वहां काल प्राप्त हो गया। राजा बहुत दुःखी हुए। अपने हस्ती की याद में उन्होंने वहां एक गांव की स्थापना की और उसे हस्तिनागपुर नाम दिया। वहां उन्होंने ऋषभदेवजी का एक अनुपम मंदिर का निर्माण किया और उसमें प्रभु की रत्नमणिमय मूर्ति की स्थापना की, जिससे वह तीर्थ समान पवित्र, प्रचलित हो गया। उसी का नाम हस्तिकल्प तीर्थ प्रचलित है, जहाँ आज भी श्रद्धालू भक्त सादर वंदन-पूजा करते हैं और अपनी मनोवांछित कार्य की सिद्धि सम्पन्न कर सकते हैं। नेमिनाथ के तीन कल्याणक यात्रा करते क्रमशः चक्रवर्ती ससंघ गिरनार पहुंचे। उसी समय पांचवे देवलोक के स्वामी ब्रह्मेन्द्र करोड़ों देवताओं के साथ वहां उपस्थित हुए। बह्मेन्द्रदेव ने भरत राजा से निवेदन करते हुए कहा, "हे भरतेश्वर नृप! तुम्हारी जय हो! आप इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवजी के प्रथम पुत्र और प्रथम चक्रवर्ती भरतेश्वर हो। आपने विश्वोपकारी शत्रुजयतीर्थ का इस काल में प्रगटीकरण किया है। पूर्व उत्सर्पिणी काल के सगर नामक तीर्थंकर के मुखारविन्द से सुना था कि इस अवसर्पिणी काल के 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिजी के तीन कल्याणक यहीं होने वाले हैं और उनके शासनकाल में उनके मुक्तिपद-मोक्ष प्राप्त करूंगा। इसी कारण से मैंने यहां नेमिनाथजिन की प्रतिमा का स्थापन किया है। 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के तीन कल्याणक यहां होने वाले हैं, इससे विदित होकर हम उनका प्रतिदिन नियमित पूजन-अर्चन करते हैं। आज आपके दर्शन से मंगल प्राप्त हुआ।" भरत भी यह सुनकर प्रसन्न हुए और उन्होंने नेमिनाथ का प्रासाद निर्माण करवाया और नेमिनाथजिन की मंगलमूर्ति स्थापित की। तभी से यह गिरनारतीर्थ प्रचलित हुआ है। बरडागिरि तीर्थ गिरनार तीर्थ की वायव्य दिशा में एक गिरि शोभायमान भासित होता है, उसे देखते ही भरतनृप ने शक्तिसिंह को इस विषयक पूछा कि यह कौन-सा पर्वत है? शक्तिसिंह ने निरूपण किया, "एक दुष्ट-दुराचारी बरड नामक राक्षस, राक्षसी विद्या प्राप्त करके इस पर्वत पर निवास करता है। वह वहां चोमेर विस्तार में बहुत उपद्रव-अत्याचार करता रहता है। वह किसी से अंकुशित नहीं है, वह मेरा भी कुछ सुनता नहीं है।" यह सुनकर भरत राजा ने उस दुष्ट को पराजित करने हेतु अपने सेनापति सुषेण को वहां भेजा। बरडासुर भी अपने मिथ्या गर्व से अनेक राक्षसों के साथ युद्ध करने निकल आया, मगर सुषेण ने पलक झपकते ही सबको पराजित करके बरडासुर को अपने विमान में डालकर भरत नृप के पास ले आया। बरडासुर ने सबसे माफी मांगी और अपने किये पर पश्चाताप किया। भरत राजा ने उसे सदुपदेश से प्रतिबोधित किया। उसे भी सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। वहां भरत राजा ने आदिनाथ और नेमिनाथ के प्रासाद बनवाए और बरडा को उसके अधिष्ठायकदेव पद पर नियुक्त किया। तभी से यह स्थान बरडातीर्थ नाम से प्रचलित हुआ है। जो भी यात्रिक शुभ भावना-विशुद्ध मन से जिसकी चाहना करते हैं, उसे इस तीर्थ द्वारा इच्छित की प्राप्ति होती है। पटदर्शन -101 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्राविड़ और वारिखिल्ल का मुक्तिगमन और हंसावतार तीर्थ दसकोडि साह सहिआ जत्थ, दविड वालिखिल्ल पमुह निवा। सिद्धा नगाहिराए जयउ तयं पुंडरी तित्थं।। अर्थ-जिस गिरिराज पर द्राविड और वारिखिल्ल इत्यादि ने दस करोड़ साधुओं सहित सिद्धिपद-मुक्ति प्राप्त किया, वह पुंडरीक तीर्थ जयवंत हो। ऋषभदेव स्वामी के पुत्र द्रविड राजा को द्राविड और वारिखिल्ल नामक दो कुमार थे। द्रविड राजा ने चारित्र ग्रहण किया तब उन्होंने दोनों भाइयों के बीच में राज-सिद्धि का उचित बंटवारा किया था। बड़ा द्राविड राजा अपने राजलोभ-लालसा से वारिखिल्ल के साथ लड़ाई करता था। द्राविड ने वारिखिल्ल के सैन्य को धन की लालच में फंसाकर अपनी ओर खींच लिया था। भयंकर युद्ध हुआ। बारिश की ऋतु आई। चारों ओर पानी का उपद्रव हो रहा था। युद्ध तो चल ही रहा था। दोनों के सैन्य में दस करोड़ सैनिक मर गये। द्राविड राजा के सुबुद्धि मंत्री ने वहां नदी किनारे तापस गुरु का आश्रम है, वहां जाने का सुझाव दिया। मंत्री के साथ राजा वहां गये। गुरु ने उन्हें धर्मोपदेश द्वारा प्रतिबोधित किया। अपने पूर्वज-ऋषभदेव-भरत चक्रवर्ती, बाहुबली इत्यादि के उदाहरणों से उसे प्रतिबोधित किया। वैराग्य से परिपूर्ण द्रविडराजा अपने छोटे भाई वारिखिल्ल से प्रायश्चित करने गया तो उसका वैराग्य प्रेम भाव में रूपांतरित हो गया। दोनों परस्पर गले मिले और दोनों ने चारित्रधर्म ग्रहण किया। दोनों मुनि ने शत्रुजय तीर्थ का माहात्म्य सुनकर अन्य मुनियों के साथ शत्रुजय तीर्थ की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में एक तालाब किनारे विश्राम करने जा रहे थे। उसी स्थान पर हंस का एक झुंड था। मनुष्य के पदचाप सुनते ही हंस उसी स्थान से उड़ गये मगर एक वृद्ध हंस जो अशक्त, निर्बल था, वह उड़ नहीं पाया तो वह वहां ही रह गया। मुनि उसके पास गये। हंस की अवस्था देखकर करुणा प्रगट की। उन्होंने उसे पानी पिलाया। लगा कि यह उसकी अंतिम अवस्था हो रही है। दया भाव से उन्होंने उसे अपने साथ ले लिया और सिद्धाचल की ओर चल पड़े। सिद्धाचल पहुंचते ही मुनियों ने हंस को अनशन व्रत करवाया। नवकारमंत्र धर्माराधना करवाई। वह हंस भी वहां से मृत्यु प्राप्त कर आठवें देवलोक में पहुंचा। हंसदेव को अवधिज्ञान से यह घटना मालूम हुई। वह बहुत प्रसन्न हुआ। मुनि और सिद्धाचलजी का उपकार स्वीकार किया। वहां हंसदेव ने भगवान के एक मन्दिर का निर्माण किया और जिनप्रतिमा की स्थापना की। उसी समय से यह तीर्थ हंसावतार नाम से प्रचलित हुआ है। द्राविड और वारिखिल्ल ने भी चारित्र ग्रहण किया। मासक्षमण व्रत की तपाराधना की। अनुक्रम से समस्त मोहनीय कर्म का क्षय करके, त्रियोग से समग्र प्राणियों को मिच्छामि दुक्कडम् करते हुए आठों कर्म का क्षय से निर्मल केवलज्ञान प्राप्त करके दस करोड़ मुनियों के साथ मोक्षपद प्राप्त किया। हंसदेव ने सभक्ति, समृद्धि के साथ निर्वाण महोत्सव किया। कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्होंने शत्रुजय तीर्थ से सिद्धगति प्राप्त की। चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन पुंडरीक गणधर मोक्ष पहुंचे थे। इससे ये दोनों तिथियां कार्तिक पूर्णिमा और चैत्री पूर्णिमा पर्व माने जाते हैं। जो अर्हत् भक्त संघ सहित इन दिनों सिद्धाचल की यात्रा करते हैं, वे अनंत मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं। कंदबगिरि क्रमशः भरत राजा कंदबगिरि पहुंचे। वहां एक अनुपम अति प्रभावक गिरि-पर्वत को देखते ही वे प्रसन्नचित्त हो उठे। उन्होंने शक्तिसिंह को इस पर्वत विषयक पृच्छा की। शक्तिसिंह ने सविस्तार इसका माहात्म्य प्रदर्शित करते हुए कहा, "यह सिद्धाचलजी की एक मनोहर ट्रंक है। उत्सर्पिणी काल में संप्रति नामक चौबीसवें तीर्थंकर थे। उनके गणधर का नाम कंदब था। 102 पटदर्शन Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह कंदबमुनि अपना निर्वाण काल नजदीक जानकर एक करोड़ अन्य मुनियों के साथ सिद्धाचलजी पधारे। उन्होंने एक मास की संलेखना-आराधना की और इसी स्थान से एक करोड़ मुनियों के साथ सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। तभी से यह शिखर कंदबगिरि नाम से प्रचलित हुआ है। यह गिरि सर्व सिद्धि के स्थान रूप है। यहां अनेक प्रभाविक दिव्य औषधियां, रसकूपिका, कल्पवृक्ष इत्यादि पाये जाते हैं। यह गिरि सात्विक भक्तों के हर प्रकार के वांछित पूर्ण करता है और जो निःस्वार्थ अनासक्त भाव से आराधना करते हैं, उन्हें मोक्ष-सिद्धि प्रदान करता है।" तलाध्वज शिखर आगे चलने पर एक और विशिष्ट ट्रंक दिखाई दिया। शक्तिसिंह ने दर्शाया कि यह तलाध्वज नामक शिखर है। तलाध्वज नामक एक मुनि ने वहां से अन्य एक करोड़ मुनियों के साथ सर्व कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त किया था। वह स्वर्ग में तलाध्वज नामक देव के रूप में प्रचलित हुए। वहां उन्होंने ऋषभदेव भगवंत का एक मंदिर निर्माण करवाया था। तभी से यह शिखर तलाध्वज नाम से प्रचलित है। शक्तिसिंह से विदित होकर भरत राजा ने वहां तलाध्वज नामक देव की स्थापना की है। तालध्वज देव के हाथ में खड्ग, ढाल, त्रिशूल और सर्प अवस्थित होते हैं। यह देव सदैव भक्तों की हर इच्छा पूर्ण करते हैं। 2. अजितनाथ उलकझोल अजितनाथ प्रभु ने शत्रुजय पर चातुर्मास किया। उनके सुधर्मा नामक एक शिष्य अपने दूसरे शिष्य के साथ प्रभु दर्शनार्थ आ रहे थे। गर्मी का समय था। उनके हाथ में पानी (चावल धोया हुआ अचित्त पानी) का कलश था। मध्याह समय होने से थोड़ा आराम करने के लिए प्रथम शिखर पर बैठे। पानी का कलश उन्हीं के पास रखा हुआ था। एक क्षुधातुर कौआ कलश देखते ही वहाँ पहुंच गया और उस पर झपका तो कलश गिर गया और पानी नीचे गिर पड़ा। मुनि क्रोधित हो गये। मुनि ने सोचा जिस तरह इस कौओ के कारण मेरे मन के भाव बिगडे, कषाय उत्पन्न हुआ, इसी तरह भविष्य में अन्य के साथ इस घटना का पुनरावर्तन न हो, उनमें कषाय उत्पन्न न हों, इस दृष्टि से उन्होंने कौओ को श्राप देते हुए कहा, "रे दुष्ट काक! इस प्राणरक्षक जल का तूने क्यों नाश किया है? अब से इसी प्रभावशाली पवित्र तीर्थ पर तेरा कोई स्थान नहीं रहेगा।" उसी दिन से उस तीर्थ पर कोई कौआ दिखाई नहीं देता है। यहां मुनि द्वारा ऐसा भी आदेश दिया गया है कि दुष्काल और विरोध जैसे अनर्थ को समर्थ करने वाला काक पक्षी कभी भी आ जाये तो इस विघ्न का नाश करने के लिए शांति कर्म करना है। ___मुनि ने अपने तप के प्रभाव से सर्व मुनिगण को प्रासुक जल प्राप्त हो, ऐसा निर्माण किया। तभी से यह स्थान उलखझोल (उलफजल, उलखजल) नाम से प्रचलित है। सगर चक्रवर्ती सगर चक्रवर्ती के जिन्हुकुमार प्रमुख 60,000 पुत्र, पूर्वजों के तीर्थ की यात्रा करने को उत्सुक हुए। सबने शत्रुजयसिद्धाचलजी की ओर जाने का निर्धारण किया। उन्होंने पिता सगर चक्रवर्ती से तीर्थयात्रा की स्वीकृति के लिए विनती की और स्वीकृति मिलते ही यात्रा के लिए निकल पड़े। सिद्धाचलजी की यात्रा करते हुए जिन्हुकुमार ने सोचा कि भविष्य में मनुष्य इस तीर्थ का रक्षण कर पायेगा कि नहीं? अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित इस धर्मस्थान का नाश न होने पाये इस चिन्तन से उन्होंने तीर्थ की रक्षा करने का उपाय सोचा। उन्होंने अष्टापद की चौतरफ खाई बनाने का निर्णय किया। कार्यारम्भ हो गया। जमीन खुदते ही अंदर से मिट्टी निकलने लगी। नीचे भुवनपति देवता के भुवन-नागलोक में मिट्टी की वर्षा होने लगी। उत्पात होने लगा तो पटदर्शन -103 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनपति के देवता क्रोधायमान हो उठे। फिर भी नागदेव ने सगर चक्रवर्ती के पुत्र और अष्टापद पर्वत की रक्षा का विषय जानकर अपने आपको अनुशासित करते हुए नम्र स्वर में विनती स्वरूप खाई बनाने से इनकार कर दिया। सगर पुत्रों ने भी कार्य स्थगित कर दिया। बाद में सबने मिलकर सोचा कि चारों ओर खाई तो बन गई है, मगर फिर भी कभी भी किसी समय में यह खाई मिट सकती है, तो अच्छा है कि उसे पानी से पूर्ण कर दी जाये, जिससे अच्छी तरह से सुरक्षा हो पाये। जिन्हकुमार रत्नदंड द्वारा समुद्र से गंगा नदी का प्रवाह इस ओर खींच लाया और खाई को पानी से भरने लगा। पानी के प्रवाह से नागदेवता के घर में पानी आने लगा और कहीं दीवारें टूटने लगी, तो नागदेवता के देव ज्वलनप्रभ नाग घबरा उठे। वे क्रोध से तिलमिला उठे। ज्वलनप्रभ ने सोचा, "ये चक्रवर्ती के पुत्र मूर्ख और राज्यपद से उन्मत्त हुए हैं। उनसे विनती की, फिर भी वे समझे नहीं, ऐसे अहंकारी धिक्कार पात्र हैं।" वे पाताल से बाहर आये और अपनी विषैली फुफ्कार से उन सभी पूरे साठ हजार को भस्मीभूत कर दिया। अपने स्वामी का घात देखते ही सैनिकगण घबरा उठे। सोचने लगे, "चक्रवर्ती ने अपने पुत्रों की जिम्मेदारी हमें सौंपी थी और हमारी नजर के सामने ही सब भस्मीभूत हो उठे तो अब हम उनके सामने क्या मुंह लेकर उपस्थित हो सकेंगे? बेहतर यही होगा कि हम सब ही अपनी जान अग्निदेव को न्यौछावर कर दें।" सौधर्म इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से यह जाना। दयालु-करुणाशील इन्द्र वृद्ध ब्राह्मण का वेश बनाकर उधर उपस्थित हुए। सैन्य को स्वयं का बलिदान न देने तथा नाश न करने हेतु समझाया। इन्द्र ने अपना स्वरूप प्रकट किया और चक्रवर्ती से भय नहीं रखने की सूचना करके, उन्हें अभयदान दिया। सेनापति को अयोध्या पहुंचने का आदेश देकर स्वयं वहां उपस्थित रहेंगे, ऐसा विश्वास दिलाया। इन्द्र ने सगर चक्रवर्ती के महल के सामने वृद्ध ब्राह्मण का स्वरूप बनाया और अपने कंधे पर मृतपुत्र का पिंड रखकर विलाप करने लगे। सगर चक्रवर्ती ने उस विलाप का कारण पूछा तब उसने दर्शाया कि, "मेरा इकलौता बेटा सर्पदंश से मृत्यु की ओर जा रहा है। मैंने अनेक उपाय किए हैं, फिर एक भी उपाय सफल नहीं हो पाया है। आप तो प्रजापालक चक्रवर्ती हैं। आप ही मेरे बेटे को आयु-जीवन प्रदान करें। अब एक ही उपाय बचा है। अगर आप मुझे कुमारी भस्म अर्थात् जिसके घर में पूर्व किसी ने भी मृत्यु प्राप्त न की हो, उपलब्ध करवा दें तो वह अवश्य नव-जीवन प्राप्त कर सकेगा। आपसे बस एक ही उम्मीद है।" चक्रवर्ती उस ब्राह्मण के साथ कुमारी-भस्म ढूंढने निकल पड़ा। पूरे शहर में खोजा, मगर कहीं से भी ऐसी भस्म उपलब्ध न करा पाया। उसे विश्वास था कि मेरे घर में तो कुमारी भस्म मिल जायेगी, और मैं अपना फर्ज ठीक से निभा पाऊंगा। वह अपनी माता के पास पहुंचा और कुमारी भस्म की मांग की। माता ने भी बताया कि हमारे घर की भस्म भी कुमारी नहीं है। हमारे घर के पूर्वज भी मृत्यु प्राप्त हुए हैं। यह सुनते ही इन्द्र दुगुने वेग से विलाप करने लगा। चक्रवर्ती भी विप्र को अनित्य भावना, वैराग्य वचन से धीरज दे रहे थे, प्रतिबोधित कर रहे थे। इन्द्र रूपी ब्राह्मण ने कहा, "हे राजन्! यह सब बातें समझाने-बोलने को आसान है, सरल है मगर जब स्वयं को सहना पड़े, तब वह बहुत ही दुष्कर है, कठिन है।" चक्रवर्ती ने कहा, "दोनों सरल हैं।" ऐसे वार्तालाप चल रहा था कि द्वारपाल ने आकर साठ हजार पुत्रों की मृत्यु का समाचार दिया। चक्रवर्ती शोकमग्न हो गये। ब्राह्मण ने अपना असली स्वरूप प्रत्यक्ष किया और इन्द्र स्वयं चक्रवर्ती को आश्वासन देते हुए समझाने लगे। उतने में ही एक सेवक ने अजितनाथ तीर्थंकर के आगमन का शुभ समाचार दिया। इन्द्र स्वयं चक्रवर्ती के साथ प्रभु के समवसरण में गये। प्रभु ने अपनी देशना में चक्रवर्ती को संसार का असली स्वरूप बताया। उन्होंने सिद्धाचलजी तीर्थ का माहात्म्य बताया। तीर्थंकर की देशना श्रवण कर चक्रवर्ती प्रसन्न हुए। उन्होंने सिद्धाचलजी तीर्थयात्रा का निश्चय कर लिया। संघ यात्रा के लिए प्रयाण करने वाले थे, उतने में एक दूत उपस्थित हुआ। उसने निवेदन किया कि अष्टापद गिरि चौतरफ पानी से पूर्ण हो गया है और ऊपर से बहता हुआ पानी आस-पास के प्रदेश को नुकसान कर रहा है प्रलयकाल के समुद्र की तरह वृद्धिंगत होकर पृथ्वीतल को डूबो रहा है। सगर चक्रवर्ती ने जन्हु के पुत्र भगीरथ को बुलाया, अपने उत्संग मैं बिठाकर लाड से इस चुनौती युक्त कार्यभार हेतु नियुक्त करते हुए कहा, "हे पुत्र, कुल दीपक! अब तू ही 104 पटदर्शन Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकेला मेरा जीवनाधार है। लोगों की रक्षा के लिए तू गंगानदी के पास जा और ज्वलनप्रभदेवजी की सहायता और दंडरत्न से गंगानदी के मुख्य प्रवाह की दिशा बदल दे ताकि पृथ्वी को बचाया जा सके।" पितामह की आज्ञा शिरोधार्य कर भगीरथ अपने सैन्य के साथ चल पड़ा। अष्टापद पहुंचते ही पिता और चाचा की भस्म देखते ही शोकग्रस्त हो गया। पुनः स्वस्थ होकर ज्वलनप्रभ देव को आराधना से संतुष्ट किया। देव की सहायता से गंगा के उन्मार्गी दुःशक्य प्रवाह को दंडरत्न की सहायता से वैताढ्य पर्वत के नजदीक होकर गंगा नदी के मध्य में से मुख्य मार्ग की ओर प्रवाहित किया। सगर चक्रवर्ती संघ सहित सिद्धाचल पहुंचे। प्रसन्न होकर उन्होंने वहां आदिनाथ प्रभु का सात्र-पूजादिक महोत्सव किया। वहाँ इन्द्र भी उपस्थित हुए। उन्होंने सगरराज को अपने पूर्वजों की परम्परा-कर्त्तव्य का स्मरण करवाया चक्रवर्ती ने भी तीर्थोद्धार किया। उसी समय इन्द्र ने चक्रवर्ती को विनती युक्त स्वर में कहा, "हे चक्री! जिस तरह बिना सूर्य दिन, बिना पुत्र कुल, बिना जीव देह, बिना चक्षु मुख शोभित नहीं होता, ठीक उसी तरह बिना तीर्थ समग्र सृष्टि भूतल अर्थहीन है, निष्फल है। अष्टापद पर्वत का मार्ग अवरुद्ध हो गया है, तभी यह तीर्थ ही समग्र प्राणी जगत् के लिए तारक-उद्धारक है। मगर जो समुद्र के पानी से यह मार्ग अवरोधित होगा तो ऐसा अन्य कोई तीर्थ जगत् में नहीं है, जिससे जैनधर्म, तीर्थंकर देव सुरक्षित रह पाए। अगला काल तो अति विषम है, इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि आप समुद्र यहां ले आओ और उसे सुरक्षित करो।" भगीरथ भी गंगा को उचित स्वस्थान नियुक्त करके पितामह के पास आ पहुंचा। उन्होंने लवणदेव की आराधना की और वे प्रत्यक्ष हुए। उन्होंने स्वस्तिक देवता को आज्ञा दी कि समुद्र को सिद्धाचल द्वीप के पीछे की ओर ले आएं। स्वस्तिक देवता समुद्र लेकर उपस्थित हुए। इन्द्र ने समुद्र से अनुरोध किया कि समुद्र सिद्धाचल से बीस कोस की दूरी रखे। सगरचक्री ने भी समुद्र से बीस कोस दूर रहने की विनती की। लवणदेव ने उनकी इच्छा को स्वीकृति दी और तभी से समुद्र सिद्धाचल तीर्थ से बीस कोस अंतर पर स्थित बह रहा है। 4. अभिनन्दप्रभु शत्रुजय नामकरण उपर्युक्त कथानक तीर्थाधिराज शgजय के अर्थ की प्रतीति करवाता है। शत्रुजय अर्थात् शत्रु पर जय-विजय प्राप्त करना। यह कथा हमें भगवान अभिनंदन के समीप ले चलती है। अभिनंदन जिन के शासनकाल में मृगध्वज राजा के पुत्र शुकराजा जो पूर्वजन्म में जितशत्रु नामक नृप थे, उन्होंने आचार्य, चतुर्विध संघ के साथ शत्रुजय यात्रा-दर्शन के लिए प्रयाण किया। अभिग्रह किया कि शत्रुजय दर्शन के पश्चात् ही चारों प्रकार के आहार ग्रहण करूंगा। रास्ते में कश्मीर देश के घने जंगलों में पहुंचे। अन्न-पानी के अभाव से राजा के स्वास्थ्य पर विपरीत असर हुआ। संघ ने राजा को अभिग्रह भंग करके पारणाआहार ग्रहण करने का अनुरोध किया, फिर भी नृप तो अपने व्रत पर अडिग-दृढ़ रहे। सूर्यास्त का समय हो गया था। रात्रि के अंधकार में एक कवडयक्ष (कर्पदियक्ष) प्रगट हुआ। उसने राजा, प्रधान, आचार्य इत्यादि चार प्रधान पुरुषों को स्वप्न में सिद्धाचलजी के दर्शन के लिए अवगत करवाया। काश्मीर प्रदेश की बाहरी प्रदेश में यक्ष ने सिद्धाचलजी का निर्माण किया। जितशत्रु नृप ने अपने चतुर्विध संघ के साथ सिद्धाचलजी का दर्शन किया और अपना अभिग्रह पूर्ण हुआ। नृप ने संघ के साथ भगवान की पूजा-अर्चना यथोचित विधिपूर्वक सम्पन्न की। राजा सात-आठ बार मंदिर के अंदर-बाहर करते रहे। प्रधान ने नृप को उधर ही रुकने का सूचन किया। नृप ने सूचन का स्वीकार किया और वहां विमलपुर नामक गांव का निर्माण किया। नप को हंसी और सारसी नामक सात्विक पत्नियां थीं। सब प्रभु पूजा-भक्ति कर रहे थे। एक दिन एक सुन्दर शुक उधर आ पहुंचा। नृप को वह अति प्रिय हो गया। क्रमशः नृप वृद्ध हुए। उन्होंने सिद्धाचल पर अनशन व्रत आरम्भ किया। आंखों के पटदर्शन -105 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समक्ष अपना प्रिय शुक था, जिससे तिर्यंच आयुबंध उत्पन्न हुआ। हंसी और सारसी दोनों धार्मिक, सात्त्विक थी। दोनों ने चारित्र ग्रहण किया, अनशन व्रत ग्रहण करके सौधर्म देवलोक में देव बने। अवधिज्ञान से अपने पूर्वपति को शुक स्वरूप देखा। उनको प्रतिबोधित किया। शुक ने भी अपने पूर्वजन्म की स्मृति से अनशन व्रताराधना की और देवलोक प्राप्त किया। जितशत्रु नृप का जीव मृगध्वज राजा के वहां शुकराज कुमार रूप उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने शौर्य पराक्रम और द्रव्य से अनेक शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। शुक राजा ने अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर चारित्र धर्म अंगीकार किया। अपने आंतरिक शत्रु कषाय-क्रोध-मान-माया-लोभ इत्यादि पर विजय प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त किया। उसी दिन से उस तीर्थ का नाम शत्रुजय (शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाला) प्रचलित हुआ। 16. शांतिनाथजिन संघपति पद महिमा यह कथा तीर्थयात्रा में संघपति पदवी - संघपति की महिमा को निरुपित करती है। शांतिनाथ प्रभु विचरण करते हस्तिनापुर नगरी पधारे। सेवक ने आकर प्रभु के शुभागमन के शुभ समाचार दिए। नृप चक्रधर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सेवक को पंचांग द्रव्य से प्रतिलाभित किया। पंचांग द्रव्य अर्थात् प्रदेश, शस्त्र, नाणां, वस्त्र और आहार। नृप चक्रधर-शांतिनाथ पुत्र भी वहां अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ प्रभु दर्शनार्थ आए। प्रभु ने तीर्थ महिमा प्ररूपित किया। प्रभु ने चतुर्विध संघ के साथ यात्रा का सविशेष माहात्म्य दर्शाया और संघपति पदवी और उनके कार्य पर प्रकाश डालते हुए कहा, "जो भव्यात्मा अनेक संघ को एकत्रित करके ग्राम, नगर और तीर्थ स्थान पर अवस्थित जिनमंदिर, तीर्थंकर देव की पूजा-अर्चना करता है, वह संघपति कहलाते हैं। उन्हें सामान्यतः निम्न पांच कार्य सविशेष रूप से करने हैं 1. महासान, 2. महापूजा, 3. दंडयुक्त ध्वजपूजा, 4. संघपूजा और 5. स्वामी वात्सल्य।" चक्रधर नृप भी संघ लेकर तीर्थयात्रा के लिए उत्सुक हुए। उन्होंने चतुर्विध संघ के साथ तीर्थयात्रा प्रयाण का मनोमन निश्चय कर लिया। उन्होंने प्रभु से संघपति पदवी के लिए विनती की। प्रभु ने मूक सहमति दे दी। इन्द्र पूर्ण सामग्री लेकर उपस्थित हुए। प्रभु ने इन्द्र द्वारा प्रस्तुत किये गये सुवर्णथाल में से अक्षत युक्त वासक्षेप और इंद्रमाल से चक्रधर को संघपति पदवी पर नियुक्त किया। चक्रधर नृप ने भी बड़ा उत्सव मनाया। घर वापिस लौटते ही उन्होंने विविध देशों के संघ को निमंत्रण दिया। अनेक स्थलों पर निमंत्रण पत्रिकाएं भेजी गई। अनेक आचार्य यथोचित मान-सन्मान के साथ संघ में सम्मिलित किए गए। हर्षोत्सव और महोत्सव की बड़ी धूमधाम से तैयारियां होने लगी। इस तरह यहां संघपति पद, उसके कार्य और माहात्म्य निरूपित किया गया है। सिंहउद्यान नामकरण विचरण करते हए शांतिनाथ प्रभु सिद्धाचल शत्रुजय के समीपवर्ती सिंहोद्यान में पधारे। वे तो अपनी ध्यानावस्था में मग्न थे। उन्हें देखते ही एक सिंह प्रभु की ओर वार करने झपका, लंबी छलांग लगाई मगर वह वापस लौट पड़ा। सफल न रहा। सोचा "मैं जल्दी में, आवेश में आ गया हूं, इससे शायद पीछे लौट पड़ा।" उसने दूसरी बार दुगुनी शक्ति से वार किया, फिर भी वही, स्वयं असफल रहा और वापिस लौट पड़ा। अब उसे पूर्ण विश्वास था कि उसकी कोई गलती नहीं है। वह गुस्से से तिलमिला उठा। मन में अनेक कषाय उत्पन्न हो गये। अपनी सर्वशक्ति समेटकर क्रोध से आकुल होकर वह मुनि पर वार करने उछला, मगर फिर भी निष्फलता। वह असमंजस में पड़ गया। सोचने लगा, "मेरी शक्ति में कोई असर नहीं है। निश्चय ही यह कोई महापुरुष, भव्यात्मा है, जिसकी मैंने विराधना की है। अब मेरी कौन-सी गति होगी? मैंने पाप कर्म बंध किया है।" 106 -पटदर्शन Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह इस तरह चिन्तन में डूबा हुआ ही था कि प्रभु ने उसे अपना पूर्वजन्म स्मरण करवाकर प्रतिबोधित किया। पूर्वजन्म में वह मिथ्यात्वी ब्राह्मण था; जो यज्ञादि, हिंसादि क्रिया में प्रवृत्त रहता था। एक बार एक मुनि से उसकी भेंट हो गई। मुनि ने उसे ऐसे हिंसात्मक यज्ञादि कार्य न करने के लिए सदुपदेश दिया। वह सदुपदेशं सह न पाया और क्रोधित होकर मुनि को मारने दौड़ा मगर इतना क्रोधांध था कि यज्ञस्तम्भ से टकराया और मृत्यु को प्राप्त हुआ। अपने आर्त्तध्यान के कारण उस विप्र ने सिंहोद्यान में सिंह का जन्म प्राप्त किया। सिंह ने अपना पूर्वजन्म देखा। वह मुनि की शरण में आ गया। ____ मुनि ने उसे प्रतिबोधित करते हुए कहा, "सर्व प्राणी पर समभाव अवधारित करके यहीं रहो। इस क्षेत्र के प्रभाव से तुझे अवश्य स्वर्गगति प्राप्त होगी।" प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए सिंह समतासागर में डूब गया। प्रभु का ध्यान करते हुए दया भाव में स्थित हआ। श्री प्रभु से उसने अनशनादि व्रत ग्रहण किये और आठवें देवलोक को प्राप्त किया। सिंहदेव ने अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव जाना। उसने पवित्र तीर्थ और परमोपकारी शांतिनाथ प्रभु के उपकार को याद किया। प्रभु के निवास से पवित्र-निर्मल स्थान पर सिंहदेव ने शांतिनाथ जिन की प्रतिमा सह एक सुन्दर-अनुपम चैत्य का निर्माण करवाया। तभी से यह स्थल 'सिंहोद्यान तीर्थ' नाम से प्रचलित है। सिंहदेव अधिष्ठित यह सिंहोद्यान तीर्थ शांतिनाथ प्रभु के भक्तों की सर्वकामना पूर्ण करते हैं। 20. मुनिसुव्रतजिन रामचन्द्रजी द्वारा जीर्णोद्धार श्रीमुनिसुव्रत प्रभु के शासनकाल में रामचन्द्रजी ने शत्रुजय का तीर्थोद्धार किया है। उस विषयक जानकारी उपलब्ध होती है। कयजिणपडिमुद्धारा, पंडवा जत्थ वीसकोडिजुआ। मुत्ति निलयं पत्ता, तं सित्तुंजयमह तित्थं।। अर्थ- जिसने जिन प्रतिमा का उद्धार किया है, उन पांडवों ने जहां बीस करोड़ मुनियों के साथ मुक्तिरूप आवास-घर प्राप्त किया है, वह शत्रुजय महातीर्थ है। मुनिसुव्रत प्रभु सिद्धाचलजी पधारे। देवता ने समवसरण की रचना की। प्रभु ने धर्मोपदेश में शत्रुजय तीर्थ का माहात्म्य निरूपित किया। रामचन्द्रजी प्रभु की देशना से अत्यन्त प्रभावित हो गये। उन्होंने भी चतुर्विध संघ के साथ तीर्थयात्रा का आयोजन किया। संघ के साथ वे सिद्धाचलजी पहुंचे। वहां के तीर्थ, प्रतिमाजी की जीर्ण अवस्था देखी। अपने पूर्वज भरत चक्रवर्ती की परम्परा को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भी वहां तीर्थोद्धार किया। अनेक स्थानों पर प्रतिमाजी की स्थापना की। मन प्रसन्नता से भर गया। सूर्यकुंड महिमा यहां शत्रुजय तीर्थ पर स्थित सूर्यकुंड का माहात्म्य निरूपित किया गया है। बलिराज को अपनी विमाता वीरमती ने दुष्ट इरादे से अधम विद्या से, तंत्र-मंत्र, कूट-कपट से कुर्कुट में परिवर्तित कर दिया था। चंदराजा ने इसी अवस्था में 15 साल पूर्ण कर दिये थे। सोलहवां साल चल रहा था। चैत्र मास की अठाई का महोत्सव शत्रुजय तीर्थ पर चल रहा था। वहां चारों प्रकार की पर्षदा-मनुष्य, तिर्यंच, देव-नारकी महोत्सव में शामिल थे। सर्वत्र हर्ष-उल्लास का माहौल हो रहा था। विविध धार्मिक प्रवृत्ति में सब तल्लीन-मग्न थे। चंदराजा कुर्कुट की पत्नी प्रेमलालछी ने शिवमाला नट से कर्कट युक्त ताम्रचूड पिंजर लिया और वहां शत्रुजय तीर्थ पर महोत्सव में शामिल होने आई। वहां प्रेमलालछी पटदर्शन -107 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने अपनी सखियों के साथ विविध धार्मिक विधियां सम्पन्न की। अपनी सखियों के साथ वह सूर्यकुण्ड पहुंची और उसने कुर्कुट वाला पिंजर खोल दिया। चंद्रनृप रूपी कुर्कुट अपनी इस अवदशा से बहुत दुःखी था। उसने सोचा, “सोलह साल से इसी अवस्था में जी रहा हूं, फिर भी मेरे कोई कर्म क्षय नहीं हए हैं। न जाने कितने और कर्म भुगतने होंगे? यह संसार तो पूरा स्वार्थी है, स्वयं माता ने ही मेरी यह अवदशा की है। यह तीर्थ स्थल अनुपम, पावन, पवित्र है, सद्भाग्य से मुझे यहां आने का शुभावसर प्राप्त हुआ है। न जाने दूसरी बार ऐसा शुभावसर मिले या नहीं? अच्छा तो यही होगा कि यहीं मैं अपने प्राण न्यौछावर करूं, ताकि इस क्षेत्र के प्रभाव से मेरे कुछ कर्म क्षय होंगे।" ऐसा सोचकर उसने सूर्यकुंड में अपने आपको समर्पित कर दिया। प्रेमलालछी यह देखते ही अवाक् हो गई। उसने सोचा, “अगर मेरा पति ही आत्मघात कर रहा है, तो मुझे जिन्दा रहने की जरूरत ही क्या है? मेरा जीना भी क्या होगा? मैं भी उसी के साथ ही अपने प्राण दे दूँ।" और वह भी पानी में कूद पड़ी। उसने कुर्कुट को झपट लिया। कुर्कुट अब जिन्दा रहना नहीं चाहता था। उसे क्या पता कि प्रेमलालछी भी उसी के साथ अपने प्राण न्यौछावर करने, बलिदान देने स्वयं उसके पीछे कूद पड़ेगी? उसने सोचा कि, "यह पकड़कर फिर मुझे पिंजर में कैद कर देगी, इससे बेहतर है, मैं स्वयं को मिटा दूं।" कुर्कुट स्वयं उससे छूटना चाहता था। दोनों झपाझपी कर रहे थे कि उसके गले का धागा टूट गया और उसने अपना असली स्वरूप मनुष्य रूप प्राप्त कर लिया। उसके कर्म पूर्णतः क्षय हो चुके थे। शासन देवता ने दोनों को कुंड से बाहर निकाला। देवताओं ने कुसुम वृष्टि से दोनों का अभिवादन किया। प्रेमलालछी और चंदराजा ने ऋषभदेव भगवान और सिद्धांचल तीर्थ और सूर्यकुण्ड के चामत्कारिक पानी का माहात्म्य, चमत्कार स्वयं महसूस किया। दोनों ने भगवान की पूजाअर्चना की। खुशखबरी मकरध्वज नृप तक भी पहुंची। नृप खूब प्रसन्न हुए और चतुर्विध संघ के साथ तुरन्त ही उस तीर्थस्थान पर पहुंच गये। संघ के साथ उन्होंने भी शत्रुजयतीर्थ पर महोत्सव किया। अनेकविध धर्मकार्य-पूजा-अर्चना इत्यादि क्रियाएं सम्पन्न कीं। महोत्सव के खत्म होते ही चंदराजा भी विमलापुरी पहुंचे। उपर्युक्त प्रसंग से शत्रुजय तीर्थ और सूर्यकुंड की महिमा स्वतः सिद्ध हो जाती है। 22. नेमिनाथ शाब-प्रद्युम्न मोक्ष गमन पञ्जुन-संब प्रमुहा कुमरवरा सइढअदठ कोडि जुआ। जत्थ सिवं संपत्ता, जयउ तयं पुडरीतित्थ।। अर्थ- प्रद्युम्न और शांब प्रमुख साढे आठ करोड़ सहित ने जहां से मोक्ष पद प्राप्त किया, उस पुंडरीक तीर्थ की जयजयकार हो। कृष्ण मुरारी के महापराक्रमी पुत्र शांब और प्रद्युम्न नेमिनाथ जिन के दर्शनार्थ आये। प्रभु ने देशना में शत्रुजय तीर्थ की महिमा प्ररूपित की। प्रभु के धर्मोपदेश सुनते ही उनके कर्मक्षय होने लगे। दोनों को चारित्र ग्रहण करने वाले उत्तम भाव उत्पन्न होने लगे। उन्होंने चारित्र धर्म अंगीकार किया। वे आठ करोड मुनियों के साथ सिद्धांचल पहुंचे। वहां उन्होंने उत्तम धर्माराधना से अपने आत्मतत्त्व को निरावरण किया। अनशनादि विविध धर्माराधना करते मोक्षपद-सिद्धगति प्राप्त की। 108 पटदर्शन Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद मुनि मोक्ष गमन जहि रामाइतिकोडी-इगनवई, नारयाइ, मुणिलक्खा। जाया य, सिद्धराया, जयउ तयं, पुंडरी तित्थ।। अर्थ- जिस स्थान से राम आदि तीन करोड़ और नारदमुनि आदि 91 लाख सिद्धों के राजा हुए, वह पुंडरीक तीर्थ जयवंत हो। नारद की देहकांति अनुपम, दैदीप्यमान थी। वह अरिहंत धर्मप्रेमी थे। वे प्रतिदिन चारित्रधारक मुनियों-भगवंतों की भक्तिभावपूर्वक वंदना-पूजा करते थे। उन्होंने शौच धर्म विषयक अच्छा संशोधन किया था। उनके मतानुसार शौच स सच है, इन्द्रिय निग्रह है, दया भाव है और पानी शौच है। उन्होंने अपने काल के तीर्थकर भगवंतों से शत्रुजय तीर्थ की महिमा को जाना। पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए लोगों को प्रतिबोधित करते रहे। नेमिनाथ प्रभु से द्वारिका दहन और यादवकुल क्षय के समाचार प्राप्त करते हुए नारद शत्रुजय गिरि पहुंचे। वहां ऋषभदेवादि तीर्थंकर की पूजा-अर्चना भक्ति की। वहां रामपुरी नगरी के नृप मदनमंडप सात करोड़ श्रावकों के साथ तीर्थयात्रा के लिए आये थे। नारद ने उन सबको शत्रुजय तीर्थ की महिमा से अवगत किया। इससे प्रतिबोधित होकर अनेक लोगों ने संयम-चारित्र धर्म अंगीकार किया। अपनी शाश्वतता की निंदा करते हए संसार भ्रमण अवरोधक अनशनव्रत ग्रहण किया। चार शरण अंगीकृत करते हुए मन, वचन, काया का शुद्धिपूर्वक चार कषायों का त्याग किया और नारद ने दस लाख साधुओं के साथ शत्रुजयगिरि पर मोक्षपद प्राप्त किया। इस तरह अन्य आठ नारद क्रमशः अपने अन्य मुनिगणों के साथ कर्मक्षय करते हुए मुक्तिनगरी पहुंचे। इस तरह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में कुल नव नारदों ने कुल 91 लाख मुनियों के साथ शत्रुजय तीर्थ पर मोक्ष प्राप्त किया है। नव नारद 91 लाख मुनियों के साथ शत्रुजय से सिद्धगिरि पहुंचे हैं। पांच पांडव मोक्ष गमन कय जिण पडिमुद्धारा, पंडवा जत्थ वीसकोडिजुआ। मुत्ति निलयं पत्ता, तं सित्तुजयं मह तित्थं।। अर्थ- जिन्होंने प्रतिमा का उद्धार किया है, उन पांडवों ने जिस स्थान से बीस करोड़ मुनिगणों सहित मुक्ति रूपी आवास प्राप्त किया है, वह शत्रुजय तीर्थ महातीर्थ है। एक बार जराकुमार ने पांडवों को द्वारकादाह प्रसंग से अवगत किया। उसने एक श्रेष्ठतम, कांतियुक्त कौस्तुभ मणि भी पांडवों को दिखलाया। यह देखते ही युधिष्ठिर प्रमुख पांडव शोकार्त हो गये। उन्होंने सोचा, "हमने अनेक बार युद्ध-संग्राम किया है। दुर्योधन के साथ युद्ध करते समय अनेक प्राणों का घात किया है, जिससे तीव्र पापानुबन्ध कर्म किये हैं। लंबे समय तक हमने राज्य-ऋद्धि-समृद्धि का उपभोग किया है। अब तो समय आ गया है विरक्त-अनासक्त होने का। अगर अब जो राज्य नहीं छोड़ेंगे, तो निश्चित रूप से हमें नरकवास ही भुगतना होगा।" कहा गया है विना न तपसा पाप-शुद्धिर्भवति कर्हिचित्। वसनं मलिनं शुद्ध-वारिणा नैव जायते।। अर्थ- बिना तप कृत पापों की शुद्धि नहीं होती है, जैसे मलिन वस्त्र बिना पानी शुद्ध नहीं होता। पांडवों ने द्रौपदी और कुंती के साथ चारित्रधर्म अंगीकार किया। जिनागम शास्त्राभ्यास करते हुए तीव्र तपाराधना करने लगे। लोगों को प्रतिबोध करते हुए विचरण करते थे। मासखमण की तपश्चर्या चालू ही थी। विचरण करते हुए क्रमशः हस्तिनापुर पटदर्शन 109 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुंचे। पारणे का दिन था। मनोमन प्रतिज्ञा की, "इस मासखमण का पारणा अभी तो यहीं करते हैं, मगर अगले मासखमण का पारणा नेमिनाथ प्रभु के सान्निध्य में ही करेंगे।" पारणा के लिए आहार ग्रहण किया। वापिस लौटते समय रास्ते में नेमिजिन के मोक्षगमन के समाचार सुने। शोकमग्न हुए। ग्रहण किया हुआ आहार कुंभकार के वहाँ छोड़ दिया। सिद्धाचलजी पहुंचे। वहां अनशन व्रत ग्रहण किया। अनुक्रम में माता कुंती के साथ घाती कर्मों का क्षय करके पांच पांडव बीस करोड़ मुनियों के साथ सिद्धपद-मोक्ष पहुंचे। 24. महावीर स्वामी करकंडू नृप यह कथा दो मित्रदेव के प्रश्नोत्तर रूप निरूपित की गई है। यहां शत्रुजय स्थित पुंडरीक पर्वत का माहात्म्य स्थापित किया गया है। सिद्धाचल तीर्थ पर महावीर प्रभु का समवसरण देवताओं द्वारा निर्मित किया गया। स्वर्गलोक से दो देवमित्र वहां प्रभु दर्शनार्थ आये। वहां रास्ते में उन्होंने एक मुनिराज को सूर्य आतापना लेते हुए देखा। एक मुनि ने दूसरे मुनि को, तपस्वी मुनि संबंधित अगर कुछ जानकारी है, उस बारे में पूछा। उस देव मुनि ने प्रत्युत्तर रूप में करकंडू नृप की कथा प्रारम्भ की। उसने कहा, "आज से सात दिन पूर्व मैं सीमंधर स्वामी के दर्शनार्थ महाविदेह क्षेत्र में गया था। वहां मैंने सुना कि दुष्ट, सप्त व्यसनी, अधम कृत्यकर्ता, प्रजापीडक करकंडू नामक नृप अपनी राज्यसभा में बैठा था। इसी समय कल्पवृक्ष का एक पत्ता वहीं राजसभा में गिरा, जिसमें श्लोक लिखा था धर्मादधिगतैश्चर्यो, धर्ममेव निहंति यः। कथं शुभायतिर्भावी, स स्वामिद्रोहपातको।। अर्थ- धर्म द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त करने वाले मनुष्य अगर स्वयं ही धर्म का नाश करता है, तो धर्मरूपी स्वामी द्रोह करने वाले पापाचरण करने वाले का भविष्य शुभ कैसे होगा? अर्थात् निश्चित वह मनुष्य अधोगति ही प्राप्त करेगा।" _श्लोक पढ़ते ही नृप कांपने लगा। उसे लगा कि यह मेरे लिए ही लिखा-भेजा गया है। वह स्वयं को ही कोसने, निंदा करने लगा। स्वकृत दुष्कृत्य नजर समक्ष चलचित्र की तरह दृश्यमान होने लगे। सब दिशाएं धुंधली-सी महसूस होने लगी। आत्मघात के सिवाय और कोई चारा ही न था, तो उसने आत्मघात करने का निश्चय कर लिया। रात्रि के अंधकार में वह अकेला ही नगर से निकलकर अटवी में निरन्तर चलता रहा, मगर आगे क्या करना है, कुछ निर्णय नहीं कर पाया। थका हुआ आम के वृक्ष तले विश्राम करने बैठा, और आत्मघात करने का तरीका सोचता रहा। उतने में यकायक एक गाय अपने सींग उंडेलती राजा के समक्ष आकर उस पर प्रहार करने दौड़ी। अकस्मात् वार से राजा की मति भ्रांत हो गई। आदतानुसार उसने अपना खड़ग निकाला और गाय पर प्रहार किया तो गाय दो टुकड़ों में विभाजित हो गई। तब उसमें से एक शृंगारित नवयौवना राजा के प्रत्यक्ष दृश्यमान हुई। उसने नृप को ललकारा, "अरे दुष्ट! एक अबोलदुर्बल पशु गाय की हत्या करके तूने गौहत्या का पाप क्यों अपने सिर पर लिया? क्षत्रिय कभी दुर्बल-असहाय पर वार नहीं करते। अगर तू पराक्रमी क्षत्रिय है तो मेरे साथ युद्ध कर।" एक स्त्री के ऐसे ललकार युक्त वचन सुनते ही नृप का क्षत्रियत्व जागृत हो उठा। वह अपनी खड्ग निकालकर स्त्री पर वार करने दौड़ा। मगर स्त्री ने उसे पराजित कर दिया और तत्क्षण ही वह जमीन पर गिर पड़ा। स्त्री ने हंसी करते हुए कहा, "कहां गया तेरा क्षत्रियत्व? तुझमें क्या कोई शौर्य है?" एक अबला के ऐसा विजयी व्यंग्य से अभिमानी नृप तिलमिला उठा। उसने फिर से स्त्री पर वार करने का सोचा मगर उठ ही नहीं पाया। क्या हो -पटदर्शन 110 - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया, कुछ समझ नहीं पाया। आंखें मूंदकर आत्मनिन्दा करने लगा'' धिक्कार है मुझे! क्या मैं एक अबला से पराजित हो गया?" जब आंख खुली तब न तो वहां गाय थी, न तो स्त्री और न ही तो खड्ग का प्रहार। वह सोचने लगा, यह स्वप्न है या और कुछ। उसी समय उनकी गोत्रदेवी अम्बिका प्रत्यक्ष हुई। उसने नृप को संबोधित करके कहा, "हे राजन्! अभी तू धर्मकार्य के लिए योग्य नहीं है। तेरे पाप कर्मोदय का क्षय नहीं हआ है। अभी तू छह मास तक पृथ्वी पर अपने पापों की आलोचना करता घूमता रहेगा। अपना दुःख क्षमा, समताभाव से निर्वहन कर। विविध तीर्थों की यात्रा-पूजा इत्यादि धर्मकाय में प्रवृत्त हो। जब तेरे पापकर्म क्षय हो जायेंगे, तुझमें समता-क्षमाभाव जागृत होगा, तब मैं स्वयं तुझे उत्तम स्थानक पर ले चलूंगी।" और वह अन्तान हो गई। नृप ने देवी के कथन पर चिन्तन किया। उसे छह मास का समय पूरा करना था। वह समता भाव से सब कष्टों को सहन करता रहा। छह मास पूर्ण हो गये थे। चलते-चलते सूर्यास्त हो गया। घने वन में रात्रिवास का निर्णय किया। वृक्ष तले पत्तों का बिछौना बनाकर बैठा और सोचने लगा, "अभी भी मेरे कर्मों का क्षय नहीं हुआ है, मुझमें समता-भाव जागृत नहीं हुआ है। अगर ऐसा होता तो देवी स्वयं आकर मुझे धर्मस्थानक की ओर ले जाती।" सोचते-सोचते निद्राधीन हो गया। उसी समय पूर्वजन्म का वैरी राक्षस उधर आ पहुंचा और कहने लगा, "पूर्वजन्म में तूने कामांधता से मेरी स्त्री को ग्रहण किया था, और मेरा सर्वस्व लूट लिया था इस कुकर्म का फल अभी उदय में आया है। आज तूझे उस कार्य की शिक्षा मिलेगी।" वह उस नृप को उठाकर पर्वत की ओर ले जाने लगा। उसने सोचा, "इसका क्या करूं? इसकी जान ले लूं या इसके सहस्र टुकड़े करूं, फिर भी मेरा क्रोध शांत होने वाला नहीं है।" उसने अपनी दैवमाया से पर्वत के पत्थर पर नुकीले धारदार लोहे के कीलें बनाई। जिस तरह धोबीकार कपड़े धोते समय कपड़े को फटकते हैं, उसी तरह वह राक्षस नृप के शरीर को नुकीली कीलों पर फटकने लगा। उसने राजा के साथ अति क्रूर अत्याचार किया, फिर भी राजा क्षमाशील ही रहा, उसमें जरा भी कषाय उत्पन्न नहीं हुआ। अब उसका कषाय-पापकर्म क्षय हो रहा था। इस तरह राक्षस ने राजा को चार प्रहर तक विविध उपसर्ग किये, फिर वह स्वयं थक गया और राजा को उसी वृक्ष के नीचे छोड़कर चला गया। प्रभात हुआ। अब गोत्रदेवी अंबिका प्रत्यक्ष हुई। उसने कहा, "सोरठ देश के पुंडरीक पर्वत पर तू यात्रा करने जा। वहां तू चारित्र ग्रहण करके सूर्य आतापना कर। आज से सातवें दिन तेरे सर्व कर्मों का क्षय हो जाएगा और तू मोक्ष-सि करेगा।" आज उसका सातवां दिन है, ऐसी बात चल रही थी, उतने में ही उसे केवलज्ञान प्राप्त हुआ। यह पुंडरीक गिरिसिद्धाचलजी का मुख्य प्रताप है, यह तीर्थ अनुपम सौन्दर्य एवं पवित्रता का प्रतीक है, जहां ऐसे भारी कर्मी जीव भी सरलता से कर्म क्षयोपशम से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। सूर्यकुंड महिमा महिपाल नृप कथा प्रस्तुत महिपाल नृप कथा में शत्रुजयगिरि स्थित सूर्यकुंड की महिमा को प्रदर्शित किया गया है। वास्तव में जैन परम्परा में महिपाल नृप कथानक एक विस्तृत और विख्यात कथानक है। यहां इस कथानक संक्षेप में सूर्यकुंड का माहात्म्य प्रतिपादित करने निरूपित किया गया है। सौधर्म गणधर ने भगवान महावीर से शत्रुजयतीर्थ माहात्म्य विषयक प्रश्न पूछा, इसी के प्रत्युत्तर में यह कथा प्रस्तुत की गई है। पटदर्शन - 111 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व कर्मोदय से महिपाल नृप के पूरे शरीर में यकायक कुष्ठ रोग-चर्मरोग उत्पन्न हो गया। उसकी प्रचण्ड बदबू कोई नहीं सह पाते थे, जिससे स्वयं नगर के बाहरी प्रदेश में चले गए। शत्रुजय तीर्थ पर चैत्र मास की अट्ठाई का महोत्सव चल रहा था। अनेक विद्याधर-विद्याधरियां, विद्याधर युगल महोत्सव में शामिल हुए। सब प्रभु भक्ति-पूजा में लीन थे। चारों ओर प्रभु की पावन निश्रा का हर्षोल्लासमय-पुनीत वातावरण उभर रहा था। उसमें एक विद्याधर युगल भी शामिल था, जो अपने भक्तिभाव से प्रसन्नतापूर्वक विचरण कर रहा था। विद्याधर ने अपने प्रियतम से विनम्र स्वर में थोड़ा और रुकने को कहा। उन्होंने सूर्यकुण्ड में सान किया, विद्याधर युगल ने ऋषभदेवजी की स्नात्रपूजा शुरू की। प्रभु की मणिमय प्रतिमाजी को पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से शांतिकलश के जल से प्रक्षालन किया। अन्य विविध पूजा विधि सम्पन्न की। जाते समय विद्याधर ने शांतिकलश को शांतिजल से भर लिया। अप्रतिम श्रद्धा से सूयकुंड का पानी उन्होंने शांतिकलश में अपने साथ ले लिया। दोनों ने प्रस्थान किया। रास्ते में उन्हें महिपाल नृप की तीव्र वेदनायुक्त आवाज सुनाई दी। तीव्र वेदना से वह छटपटा रहा था। पीडायुक्त आवाज से विद्याधरी का करुणाशील हृदय हिल गया। उसने विद्याधर से पूछा, तब उन्होंने बतलाया कि ये महीपाल नृप हैं। उनके पूर्वजन्म के वेदनीय कर्म उदय में आये हैं। उनका पूरा शरीर कुष्ठरोग से व्याप्त है। उसकी पीड़ा भयंकर तीव्र होती है। यह असाध्य रोग है, फिर भी उसका एक उपाय है। सूर्यकुंड के पानी के स्पर्शमात्रा से ही रोगीष्ठ निरोगी, स्वस्थ हो जाता है। विद्याधरी की खुशी की कोई सीमा न रही क्योंकि वह पानी तो उनके पास मौजूद ही था। विद्याधरी ने शांतिकलश के पानी से छिड़काव किया और चामत्कारिक रूप से महिपालनृप सम्पूर्ण निरोगी हो गये। सूर्यकुंड के पानी के स्पर्शमात्र से राजा के शरीर वासित अट्ठारह प्रकार के कुष्ठ रोगों ने आकाश की ओर जाते हुए कहा, "राजन्! अब तेरी जयकार हो। अब तू हमसे मुक्त है। तुझसे मेरा सात जन्मों से वैर था मगर इस पवित्र सूर्यकुंड जल के प्रभाव से हमारा प्रभाव निरर्थक हुआ, जिससे अब हम यहां नहीं ठहर सकते।" और वे चले गये। विविध प्रकार से हर्षोल्लास मनाया गया। एक बार चारण मुनि वहां पधारे। राजा ने भक्तिभावपूर्वक वंदन किया और आहार से प्रतिलाभित किया। मुनि ने कुष्ठरोग के कारण का निवारण करते हुए कहा, "इस पूर्व के सातवें जन्म में आप राजा थे और मृगया के अति शौकीन थे। मृगया खेलते हए आपने एक मुनि का घात किया था, जिससे आपने मुनि हत्या का पाप ग्रहण किया था। क्रमशः पापकर्मों का क्षय होता गया मगर जो बचे थे, उनके कारण तुम्हें यह कुष्ठ रोग हुआ था। राजा को जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वजन्म देखते ही मन के परिणाम में बदलाव आ गया। चतुर्विध संघ के साथ शत्रुजय तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया। वहां प्रभुजी के विविध प्रकार के महोत्सव मनाए। स्वयं चारित्र ग्रहण किया। आमरणांत अनशन व्रत ग्रहण किया। मोक्ष-सिद्ध पद प्राप्त कर लिया। 112 पटदर्शन Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) शत्रुजय महिमा प्रस्तुत पट का नाम है शत्रुजयपट। प्रारम्भ में भगवान ऋषभदेव को विविध उपमा से उपमानित किया गया है, यह पटकर्ता की अनन्य भक्ति-श्रद्धा की प्रतिरूप है। ऋषभदेव भगवान अशरण के शरणरूप शरणागत वत्सल, भवभय हरण, भवभय विघ्न निवारक, भव्य जीवों को संसार समुद्र पार करवाने के लिए धर्मरूप नाव समान, अज्ञान रूप तिमिर-अंधकार को मिटाने वाले अर्क-तेज पुंज समान, चौरासी लाख भव रूप अटवी पार करवाने के लिए सार्थ-सुरक्षित रक्षक समान, कर्मरूप रोग मिटाने वाले धनवंतरी वैद्य समान, कषाय-आंतरिक शत्रु रूप प्रज्ज्वलित अग्नि को शांत करने हेतु पुष्करावर्त्त मेघ समान है। ऋषभदेव वंदन के बाद सिद्धाचल-शत्रुजय तीर्थ की महत्ता सिद्ध की गई है। सिद्धाचल शब्द सामान्यतः किसी भी पवित्र तीर्थ स्थान के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यह पवित्र तीर्थ सौराष्ट्र के भावनगर जिले के पालीताणा शहर में स्थित है। शत्रुजयो नाम नगाधिराजः, सौराष्ट्र देशे प्रथित प्रशस्तिः। तीर्थाधिराजो भुवि पुण्य भूमि-स्तत्रादिनाथं शिरसा नमामि।। अर्थ-सौराष्ट्र देश में प्रसिद्ध है प्रशस्ति जिसकी, यह पृथ्वीतल पर पवित्र भूमि रूप तीर्थाधिराज शत्रुजय नामक गिरिवर है, वहां विराजमान आदिनाथ भगवंत को मैं नतमस्तक वंदन करता हूं। सामान्यतः ऐसे पट लंबचोरस या चोरस आकार में उपलब्ध है। उसमें शत्रुजय तीर्थ का सांगोपांग वर्णन समाविष्ट होता है। प्रायः वे भित्तिचित्र की तरह दीवाल पर लटकाये जाते हैं। चतुर्विध संघ की दैनिक धार्मिक क्रिया में उसका निजी स्थान है। इसका सविशेष माहात्म्य कार्तिक पूर्णिमा के दिन है। उसी दिन आदिनाथ भगवान के प्रपौत्र द्रविड मुनि के पुत्र द्राविड और वारिखिल्ल ने दस करोड़ मुनियों के साथ सिद्ध पद प्राप्त किया था, तब से यह पर्व-दिन माना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की महिमा अपार है। मगर समग्र संघ वहां जा नहीं सकते तो उसी दिन ऐसे शत्रुजय पट एक खास स्थान पर रखे जाते हैं, जहां चतुर्विध संघ विशेष महिमा के साथ पूजा-चैत्यवंदन, स्तुति आदि धार्मिक क्रिया के साथ भाव तीर्थ यात्रा करते हैं। मगर प्रस्तुत पट इससे भिन्न हैं। यह पट 12 मीटर लंबा और 24 से.मी. चौड़ा है। इसमें वर्तमान 24 तीर्थकरों के चित्रांकन के साथ उनके संबंधित जानकारी दी गई है। उन 24 तीर्थंकरों के परिवार अर्थात् दीक्षा के समय साधुओं की संख्या, गणधर, मुख्य गणधर, साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका संख्या, मुख्य साध्वीजी, देहमान, कुल आयु, वर्ण, लांछन विषयक माहिती समाविष्ट है। उसमें से कई जगह पर प्रमुख गणधर, प्रमुख साध्वीजी के नाम प्राप्त नहीं हैं। अनुमान करते हैं कि शायद गलती से लिखा नहीं गया होगा। उन 24 तीर्थंकरों में से तीर्थंकर 1, 2, 4, 16, 20, 22 और 24 विषयक विस्तृत जानकारी प्रदान की गई है। सामान्यतः इसमें उन तीर्थकरों के शासनकाल समय में जो विशेष घटना घटी है, उसे कथात्मक शैली में निरूपित किया गया है। इस पट का मुख्य उद्देश्य शत्रुजय तीर्थ का माहात्म्य प्रकाशित करना है। परम्परा से शत्रुजय तीर्थ की महिमा सविशेष है। प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव के आदेश से उनके गणधर श्री पुंडरीकजी ने भव्य जीवों के कल्याणार्थ परम पावक तीर्थ श्रीशत्रुजय की महिमा सवा लाख श्लोक में प्ररूपित की थी। उत्सर्पिणी काल और मनुष्य की अल्पायु का ध्यान करते हुए भगवान श्रीमहावीरस्वामी के आदेश से सुधर्मा स्वामी ने उसका संक्षिप्तार्थ 24,000 श्लोक में किया। तत्पश्चात् जैनाचार्यों ने उनमें से आम जनता के सदुपदेशार्थ शत्रुजय महिमा को बोधक स्वरूप सारार्थ ग्रहण किया है। पटदर्शन 113 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो अरय छगम्मि, असी सत्तरि सट्ठी पन्न बार जोयणाए। सगरयणी वित्थिन्नो, सो विमलगिरि जयउ तित्थं।। अर्थ-जो छः आरा-कालचक्र में 80, 70, 60, 50, 12 योजन और सात हस्त जितनी विस्तारयुक्त है, उस विमलगिरि तीर्थ की जय जयकार हो। जिस तरह इस तीर्थाधिराज की ऊंचाई क्रमशः कम होती जा रही है, ठीक इसी प्रकार उनके माहात्म्य दर्शन श्लोकविवेचन भी क्रमशः कम होता जा रहा है। जैन परम्परा में तीर्थाधिराज सिद्धाचल की महिमा अपार है। जैन समाज असीम श्रद्धा, भाव और आदर से इस तीर्थ की यात्रा करते हैं। अनादिकाल से इस तीर्थ ने अपना माहात्म्य सुरक्षित रखा है। सर्वज्ञ अर्हत् प्ररूपित वीतराग देव के शासन में ऐसी लोकोत्तमपूर्ण उपासना श्रद्धा-भक्ति के साथ की जाए तो भव्यात्मा उसके आलंबन, दर्शन, स्पर्शन द्वारा निश्चित रूप से संसार सागर पार करके मुक्तिपद-मोक्ष के शाश्वत सुख प्राप्त कर सकें, यह निःशंक है। वर्तमान समय में भी इसी तीर्थस्थान पर अनेकविध धार्मिक प्रवृत्तियां, जैसे निन्यान्वे यात्रा, वर्षीतप, चातुर्मासिक तप आदि विविध तपाराधनाएं विपुल मात्रा में हो रही हैं। इस विषमकाल, जहां भौतिकवाद अग्रसर है, पश्चिमीकरण का प्राधान्य है, वहीं विपुल संख्या में भव्य जीव तीर्थाधिराज शत्रुजय के दर्शनार्थ अभिग्रह और श्रद्धा के साथ नंगे पांव जाते हैं, वह उनकी अप्रतिम, अनन्य श्रद्धा का प्रतीक है। शत्रुजय यात्रा का माहात्म्य आगम ग्रंथों में भी उपलब्ध है। कालिकाचार्य ने शत्रुजय माहात्म्य विषयक कहा है श्री शत्रुजय तीर्थे-यात्रा संघ समन्वितः। चकार तस्य गीर्वाण-शिवश्रीनहि दुलभा।। वस्त्राान्नजलदानेन, गुरोः शत्रुजये गिरौ। तद् भक्त्याऽत्र परत्रेह-जायन्ते सर्व सम्पदः।। शत्रुजयाभिधेतीर्थे-प्रासादात्-प्रतिमाश्च ये। कारयन्ति हि तत्पुण्यं, ज्ञानिनो यदि जानते।।" अर्थ-श्री शत्रुजय तीर्थ विषयक संघ सहित जिन्होंने यात्रा की है, उसे देवलक्ष्मी और मोक्षलक्ष्मी दुर्लभ नहीं है। श्री शत्रुजयगिरि पर गुरुजनों को वस्त्र, अन्न और जलदान करने से और उनकी भक्ति से लोक और परलोक में सर्व-सम्पत्ति प्राप्त होती है। शत्रुजय तीर्थ विषयक जो प्रासाद और प्रतिमाएं, जिनबिम्ब का निर्माण करवाते हैं, उससे प्राप्त पुण्य ज्ञानी ही जान सकते हैं। इसी तरह ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के पांचवे अध्ययन के थावच्चापुत्र कथाधिकार में शत्रुजय का माहात्म्य प्रदर्शित किया गया है। "तएणं से थावच्चापुत्रे अणगार सहस्सेणं सद्धिं संपुरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छिता पुडरीयं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहति, दुरहित्ता मेघघण सन्निकासं देवसन्निवायं पुढविसिला पट्टयं जाव पाओ गमणं उवावन्ने।" "तएणं से सुए अणगारे अन्नया कयाइं तेण अणगार सहरसेणं सद्धि संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए जाव सिद्धे।'' 114 -पटदर्शन Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अनगार एक हजार साधु परिवार के साथ श्रीपुंडरीक पर्वत पर आते हैं। आकर वह पुंडरीक पर्वत पर धीरे-धीरे चढते हैं। चढकर मेघ के बादल जैसी देव सन्निपात पृथ्वी शिला पर आते हैं, और यावत् पादोपगम अनशन व्रत ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् वह शुक्र अनगार कोई एक समय एक हजार साधुवृन्द के साथ पुंडरीकगिरि पर आते हैं, यावत् सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त करते हैं।" इससे प्रतीत होता है कि शत्रुजय महिमा ने परम्परा से अपना माहात्म्य ऐसे ही अनुपम-अद्वितीय बना रखा है। इस तीर्थ की पवित्रता निःसंदेह है क्योंकि इस तीर्थस्थान पर नेमिनाथ के सिवाय अन्य 23 तीर्थकर भगवंतों के समवसरण की रचना इन्द्र देवों द्वारा की गई है। सिरिनमिनाह वज्जा, जत्थ जिणा रिसह पमुहवीरंता। तेवीस समोसरिआ, सो विमलगिरि जयउ तित्थं।। अर्थ- श्री नेमिनाथ भगवान के सिवा ऋषभदेव से महावीर प्रभु इन 23 तीर्थकरों जहां समवसृत हए जहाँ इन्द्रदेवों ने समवसरण की रचना की थी, वह विमलगिरि तीर्थ सदा जयवंत हो। पुंडरीक गणधर ने कहा है वैरिण्यपि च नो वैरं नो जिघांसा त्रसादिषु / द्यूतादिषु न चासक्तिनकुलेश्याविचिन्तनम्।। अर्थ- इस तीर्थ में वैरी प्रति वैरभावना न रखने, सादि प्राणियों के घात की इच्छा भी न करने, द्यूतादि पाप विषयासक्ति न रखने और कुलेश्या का चिंतन नहीं करने का उपदेश दिया गया है अनंता यत्रा संसिद्धा, भूमिसंस्पर्शयोगतः। भाविकालेऽपिसेत्स्यन्ति, तत्तीर्थ भावतः स्तुवे।। अर्थ- जिस गिरिराज की भूमि के स्पर्शमात्रा के योग से भूतकाल में अनंत आत्माओं ने निर्वाण पद-मोक्ष प्राप्त किया है, भविष्य में भी अनंत आत्माएं सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त करेंगे। उस तीर्थाधिराज की मैं भावपूर्वक स्तुति करता हूँ। यह पवित्र तीर्थ मोक्षलक्ष्मी संगम स्वरूप में पृथ्वीतल पर सदा तिलकवंत, जयवंत स्वरूप अवस्थित है। प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री आदिनाथ प्रभु ने इसे शाश्वत तीर्थ माना है। यह तीर्थ त्रिकाल है और अनंत केवलज्ञान की तरह सर्वत्र उपकारक है। यह तीर्थ मुक्तिधाम रूप स्थिर, निर्मल और निराबाध है, जो पापसमूह का नाशकर्ता है। संसार समुद्र अनादि है। शत्रुजय तीर्थ सर्व तीर्थों से विलक्षण-भिन्न है, जहां निर्मल आत्मा सिर्फ उसके दर्शनमात्रा से ही दुर्गति को दूर कर सकते हैं, मोक्षपद प्राप्त कर सकते हैं भव्या एव हि पश्यन्ति, त्वभव्यैर्नहि दृश्यते। विलक्षणं परात्तीर्था-लक्षणं यस्य युज्यते।। अर्थ- (यथार्थ स्वरूप में) इस गिरिराज-तीर्थाधिराज को मुक्तिगमन के योग्य भव्यात्मा ही देख-जान सकती है। अभव्य-अभवी जीव तो उनके दर्शन भी प्राप्त नहीं कर सकते। अन्य सर्व तीर्थों से विलक्षण इस गिरिराज का यही तो प्रधान लक्षण है। पटदर्शन 15 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तीर्थ से निर्वाण प्राप्त करने वालों के लिए मुक्ति सहज-सरल है। जिसने शत्रुजयतीर्थ का स्पर्श किया, यात्रा की है, उन्हें रोग, संताप, दुःख, शोक, दुर्गति नहीं होती। उनके सब पापकर्मो का क्षय होता है। तीर्थयात्रा के फल पर प्रकाश डालते हुए आचार्यों ने कहा है कि आरम्भाणां निवृत्तिविणसफलता संघवात्सल्यमुच्चै, निर्माल्यं दर्शनस्य प्रणयिजनहितं जीर्ण चैत्यादिकृत्यम्। तीर्थोन्नत्यं सम्यक् जिनवचनकृति स्तीर्थसत्कर्मसत्त्वं, सिद्धेरासन्नभावः सुरनरपदवी तीर्थयात्रा फलानि। अर्थ- तीर्थयात्रा की फलश्रुति में आरम्भकार्य से निवृत्ति अर्थात् अनासक्त वैराग्य की प्राप्ति, द्रव्य की सफलता अर्थात् द्रव्यवृद्धि होती है। संघ का विशेष वात्सल्य हो सके (चतुर्विध संघ के साथ यात्रागमन), सम्यक्त्व भाव से निर्मलता-शुद्धता प्राप्त हो सके, प्रेमीजनों का हित-कल्याण कर सकें, जीर्णोद्धार आदि महाकार्य का का निर्माण हो सके, स्वयं से उन्नति-वृद्धि हो सके, जिन-वचन का समुचित स्वरूप में पालन हो सके, तीर्थ के सत्कार्य में प्रवृत्त होने का संयोग हो सके, मोक्ष के आसन्न भाव अर्थात् मोक्ष गति लायक भाव हो सके, देव और मनुष्य की पदवी प्राप्त हो अर्थात् तिर्यंचगति प्राप्त न हो। कहा जाता है कि तीर्थ का ध्यान मात्र करने से एक हजार पल्योपम का कर्म क्षय हो सके, अभिग्रह व्रत धारण करने से एक लाख पल्योपम का कर्म क्षय हो सके, और तीर्थमार्ग पर प्रयाण करने से एक सागरोपम से एकत्रित हुआ कर्म क्षय होता है। अर्थात् यह तीर्थ-तीर्थाधिराज प्रभावक तीर्थ है, जो पापकर्म क्षय कर्ता है। शत्रुजय माहात्म्य स्थापित करने के लिए विविध आचार्यों द्वारा जो प्रशस्ति की गई है, उसमें से अंशतः पाठकों की जानकारी हेतु उद्धृत की गई है। माना जाता है कि चंद्र और सूर्य साक्षात् प्रत्यक्ष रूप शत्रुजय तीर्थ के दर्शनार्थ आते हैं। वे आकाश से ही उनका दर्शन करते हैं और पुष्प अर्पण करते हैं। जिस गिरिराज में धर्माराधना करते भव्य प्राणी निज आत्मा में सम्यक्त्व रूपी बीज को अंकुरित करते हैं और पाप रूपी अंधकार को दूर करते हैं, वह तीर्थेश्वर परम श्रद्धेय, वंदनीय है। जिस लघुकर्मी आत्मा ने तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा भंग की हो, धर्म-विराधना की हो, वे विराधक आत्माएं भी इस तीर्थ के प्रभाव से विशुद्ध होकर निर्मल-विमल बुद्धि प्राप्त करते हैं, उस तीर्थेश्वर को भावपूर्वक वंदन। जिस गिरिराज की सेवा-पूजा के प्रभाव से प्राणी के कर्मों का क्षय होता है, आत्मा कर्मरहित होता है, उस अकर्मक तीर्थराज को भावपूर्वक वंदन। जिस गिरिराज का स्मरण करते, उसके स्मरण प्रभाव से भव्य जीवों के द्रव्य और भाव शत्रु का नाश होता है और जिससे वह शत्रुजय नाम से प्रचलित है, उसे भावपूर्वक वंदन। 116 -पटदर्शन Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) शत्रुजय तीर्थोद्धार कारयन्ति मरुदगेहं - ख्यात्यर्थ केचनात्मनः। केचित्रवस्यैव पुण्याय, स्वश्रेयोऽर्थं च केचन।। प्रासादोद्धारकरणे, भूरि पुण्यं निगद्यने। उद्धारान्न परं पुण्यं विद्यते जिनशासने।। अर्थ- कुछ आत्माएं अपनी निजी प्रशंसा पाने के लिए जिनमन्दिर का निर्माण करते हैं, कुछ पुण्य प्राप्ति के लिए करते हैं और कुछ अपने कल्याणार्थ देवमन्दिर का निर्माण करवाते हैं। प्रासाद-तीर्थ प्रासाद का जीर्णोद्धार करने से विशेष पुण्योपार्जन | होता है। तीर्थोद्धार से श्रेष्ठ पुण्यकार्य जिनशासन में और कोई नहीं है। शत्रुजय तीर्थ अनादि अनंत है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में काल के प्रभाव से उसमें वृद्धि-हानि होती रहती है, कहीं उनका सत्त्व क्षीण होता रहता है मगर वह कभी सर्वथा क्षय नहीं होता। इसलिए उनका जीर्णोद्धार करना आवश्यक है। नया मंदिर निर्माण कराने की बजाय पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार करने से दुगुने पुण्य की प्राप्ति होती है। शत्रुजयतीर्थ के अनेक छोटे-बड़े उद्धार देव और मनुष्य द्वारा किये गए हैं। पंचम आरा के अंत तक ऐसे उद्धार होने वाले ही हैं। उनमें से कुछ 17 उद्धार विशेष है। अवसर्पिणी काल के चौथे आरे (कालचक्र) में बारह जीर्णोद्धार हुए हैं। महावीर के शासनकाल के बाद पाँच जीर्णोद्धार हुए हैं, जो निम्नलिखित हैं अस्मिंस्तीर्थवरे भूताः श्री तीर्थोद्धारकारकाः। एतस्याण्वसर्पिण्यां; पूर्वो भरतचक्रय भूत।। इस अवसिर्पणी काल में इस शत्रुजय तीर्थ के 17 प्रमुख उद्धार हुए हैं और अन्य भी होंगे। उसमें से प्रथम उद्धार भरत चक्रवर्ती ने किया है। द्वितीयो भारते वंशे, दंडवीर्यो नृपो यतः। ईशानेन्द्रस्तृतीयो हि, माहेन्द्रश्च चतुर्थकः।। इस तीर्थ का दूसरा उद्धार भरत चक्रवर्ती के वंशज दंडवीर्यनृप ने किया है। तीसरा उद्धार ईशानेन्द्र ने करवाया है। चौथा उद्धार माहेन्द्र ने करवाया है। पंचमो ब्रह्म कल्पेन्द्रश्चमरेन्द्रस्तु षष्ठकः। अजित जिन काले हि सगरराट् च सप्तमः।। पांचवां उद्धार पांचवे देवलोक के इन्द्र ब्रह्मेन्द्र ने करवाया था। ब्रह्मेन्द्र के बाद छट्ठा उद्धार भवनपति के इन्द्र चमरेन्द्र ने करवाया था। सातवां उद्धार द्वितीय तीर्थंकर के शासनकाल में सगर चक्रवर्ती ने करवाया था। अष्टमो व्यन्तरेन्द्रो हि - तीर्थोद्धारकः खलु। चन्द्रप्रभप्रभोस्तीर्थे चन्द्रयशा नृपस्तथा।। पटदर्शन - 117 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तीर्थ का आठवां उद्धार व्यन्तरेन्द्र ने करवाया था। नौवां उद्धार श्री चंद्रप्रभु के शासनकाल में श्री चंद्रयशा ने करवाया था। उसी समय श्री चंद्रप्रभास (प्रभासपाटण) तीर्थ में चंद्रप्रभस्वामी के प्रासाद का निर्माण उन्होंने ही करवाया था। श्री शान्तिनाथ तीर्थे हि, चक्रायुधश्च राडवरः। उद्धर्ता तीर्थनाथस्य सदुपदेशयोगतः।। श्री शांतिनाथ भगवान के शासनकाल में उनके पुत्र चक्रायुध राजा ने प्रभु के सदुपदेश से यह दसवां तीर्थोद्धार करवाया था। एकादशो बलो रामस्तीर्थे श्री सुव्रतस्य हि। पांडवा द्वादशोद्धार-कारका नेमि तीर्थके।। श्री मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में बलदेव श्रीरामचन्द्र ने तीर्थ का ग्यारहवां उद्धार करवाया था। नेमिनाथ भगवान के शासनकाल में पांडवों ने इस तीर्थ का बारहवां जीर्णोद्धार करवाया था। वर्धमान विभोस्तीर्थे - जावडस्तु त्रयोदशः। वाग्भटो वा शिलादित्य-श्चतुर्दशस्तु श्रूयते।। श्री वर्धमान स्वामी के शासनकाल में महवा के श्रेष्ठी जावडशा ने इस तीर्थ का तेरहवां तीर्थोद्धार करवाया था। शत्रुजय माहात्म्य के कर्ता धनेश्वरसूरि के कथनानुसार चौदहवां तीर्थोद्धार शिलादित्य ने करवाया था। कुमारपाल चरित महाकाव्यानुसार उदयनमंत्री के पुत्र बाहडमंत्री ने यह चौदहवां उद्धार करवाया था। समरश्चौशवंशीयो-मान्य पंचदशस्तु हि। षोडशः कर्मसिहस्तु-साम्प्रतोद्धारकारकः।। यह तीर्थ का पन्द्रहवाँ उद्धार समराशा ओसवाल ने करवाया था। सोलहवां उद्धार जो वर्तमान समय में चालू है, जो अभी मूल है, वह करमाशा ने करवाया था। दुष्प्रसहमुनीशस्य काले विमलवाहनः। उद्धरिष्यत्यदस्तीर्थ, चरमोद्धारकारकः।। इस तीर्थ का अंतिम उद्धार पांचवे आरे के अंतिम समय में होने वाला सत्रहवां उद्धार श्री दुप्पसहसूरि के सदुपदेश से विमलवाहन नृप करवाएंगे। 17. तीर्थोद्धार निम्नलिखित है 1. प्रथम उद्धार भगवान ऋषभदेव के शासनकाल में उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती ने करवाया था। 2. दूसरा उद्धार छः करोड़ वर्ष के बाद भरत चक्रवर्ती की आठवीं पीढ़ी के दंडवीर्यनृप ने करवाया था। 3. उसके बाद एक सौ सागरोपम समय के बाद ईशानेन्द्र ने तृतीय उद्धार करवाया था। उसके पश्चात् एक करोड़ सागरोपम समय के बाद महेन्द्रेन्द्र ने चौथा उद्धार करवाया था। 118 पटदर्शन Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. उसके पश्चात् दस कोटी सागरोपम समय के बाद ब्रह्मेन्द्र ने पांचवां उद्धार करवाया था। 6. उसके पश्चात् एक कोटी सागरोपम समय के बाद भवनपति चमरेन्द्र ने छट्ठा उद्धार करवाया था। आदिनाथ प्रभु के पश्चात् 50 लाख कोटी सागरोपम समय के बाद सगर चक्रवर्ती ने श्री अजितनाथ प्रभु के शासनकाल में सातवां उद्धार करवाया था। 8. उसके पश्चात् चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनंदन स्वामी के शासनकाल में व्यंतरेन्द्र ने आठवां उद्धार करवाया था। 9. श्री चंद्रप्रभु स्वामी के शासनकाल में चंद्रयशा ने नौवां उद्धार करवाया था। 10. श्री शांतिनाथ प्रभु के शासनकाल में उनके पुत्र चक्रायुधनृप ने दसवां उद्धार करवाया था। 11. श्री मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में रामचन्द्रजी ने ग्यारहवां उद्धार करवाया था। 12. श्री नेमिनाथ स्वामी के शासनकाल में पांडवों ने बारहवां उद्धार करवाया था। पांडवों ने कौरवों के साथ भयानक हिंसायुध करने से गोत्रदोह-पापकर्म बंधन किया था। उस पाप को नष्ट करने हेतु तीर्थोद्धार किया था। इस अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणीकाल - भगवान् महावीर के शासन में जो तीर्थोद्धार हुए, वे निम्नलिखित हैं। 13. महावीर निर्वाण की 470 वर्ष बाद वि.सं. 108 में जावडशा श्रेष्ठी ने शत्रुजय तीर्थ का तेरहवां उद्धार करवाया था। 14. वि.सं. 1213 में श्रीमाली बाहडदेव ने चौदहवां उद्धार करवाया था। 15. वि.सं. 1317 में ओसवाल श्रेष्ठी समराशा ने पन्द्रहवां उद्धार करवाया था। 16. वि.सं. 1587 में करमाशा ने सोलहवां उद्घार करवाया था। 17. अंत में पंचमकाल का विषम स्वरूप समझकर यह सत्रहवां उद्धार श्री दुप्पसहसूरि के प्रतिबोध से राजा विमलवाहन करवाएंगे। पटदर्शन 119 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) शत्रुजय के विविध नाम इस पट में शत्रुजय तीर्थ, सिद्धांचल तीर्थ के 21 नाम प्रतिपादित किये गए हैं। शत्रुजय तीर्थ के 21 और 108 नाम विविध प्रकार से उपलब्ध होते हैं। सामान्यतः ये नाम उनके विशिष्ट गुण, लक्षण, वर्ग, कारण पर से नामांकित किये गये हैं, ऐसा प्रतीत होता हैं। उपलब्ध नामों में से एक नाम 'सहस्त्राख्य' मिलता है, जिससे माना जाता है कि प्राचीन समय में इस पावन तीर्थ के 1008 नाम प्रचलित होंगे, मगर अब 108 नाम प्राप्त हैं, उसमें से पटकर्ता ने 21 नामों का उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित हैं सुयधम्मकित्तिअं तं तित्थं देविंद वंदिअं थुणिमो। पाहडए विजाणं, देसिअमिगवीसनामं जं।। श्रुत धर्म में कहे गये और देवेन्द्रों द्वारा वंदित उस तीर्थ को और विद्या के प्राभृत में जो 21 नाम निर्दशित किये गए हैं, उसी की हम स्तुति करते हैं सुरनरमुणिकयनामो, सो विमलगिरि जयउ तित्थं। माना जाता है कि तीर्थाधिराज शत्रुजय के ये नाम देव, मनुष्य और मुनि द्वारा किये गये हैं, वह विमलगिरि तीर्थ जयवंत हो। पट में निर्देशित शत्रुजय तीर्थ के 21 नाम निम्नलिखित हैं 1. शत्रंजय- इस पावन तीर्थ के प्रभाव से शुक्र राजा ने बाह्य और आंतरिक दुश्मनों पर विजय प्राप्त की थी, इससे शत्रुजय नाम प्रचलित हुआ है। 2. पुंडरीकगिर- आदिनाथ भगवान के प्रथम गणधर श्री पुंडरीक स्वामी ने इसी तीर्थ पर चैत्री पूर्णिमा के दिन पांच करोड़ मुनियों के साथ सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया था, इससे पुंडरीकगिरि नाम प्रचलित हुआ है। 3. सिद्धक्षेत्र- इस तीर्थ के प्रत्येक कंकर पर से अगणित-अनंत, भव्यात्मा ने सिद्धिपद-मोक्षपद प्राप्त किया था, इससे सिद्धक्षेत्र नाम प्रचलित हुआ है। विमलाचल- इस तीर्थाधिराज पर यात्रा करने वाले प्रत्येक भक्त, यात्रिक निर्मल-विमल-पापरहित होते हैं। उनमें पाप का एक अंश भी मौजूद नहीं रहता है, इससे यह विमलाचल नाम से प्रचलित हुआ है। 5. सुरगिरि- पर्वत में सुरगिरि अर्थात् मेरुगिरि जो सबसे बड़ा है, जिस पर प्रत्येक तीर्थंकरों के जन्माभिषेक होते हैं मगर वहां से किसी ने भी मोक्षपद प्राप्त नहीं किया है। शत्रुजय तीर्थ से अनंत जीवों ने मोक्षपद प्राप्त किया है, इससे यह सुरगिरि नाम से प्रचलित हुआ है। 6. महागिरि- महिमा की दृष्टि से यह तीर्थगिरि सबसे महान्, महानोत्तम है, इसलिए यह महागिरि नाम से प्रचलित हुआ है। पुण्यराशि- इस तीर्थाधिराज की सेवा-पूजा, यात्रा करने से पुण्यराशि-पुण्यपुंज (ढग) प्राप्त होता है। अतः यह .. पुण्यराशि नाम से प्रचलित हुआ है। 1. 120 - पटदर्शन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. श्रीपद- वास्तव में नारदमुनि ब्रह्मचारी हैं, फिर भी वे कलहप्रिय हैं, परस्पर कलह-विवाद करवाते हैं। इस तीर्थ के प्रभाव से उन्हें श्रीपद-मोक्ष रूपी लक्ष्मी प्राप्त हुई है, इससे यह श्रीपद नाम से प्रचलित हुआ है। पर्वेन्द्र- इस तीर्थ पर चैत्री पूर्णिमा के दिन पुंडरीक स्वामी ने मोक्षपद प्राप्त किया था। द्राविड और वारिखिल्ल ने कार्तिकी पूर्णिमा के दिन मोक्ष पद प्राप्त किया था। तब से ये दोनों दिन पर्व की तरह मनाये जाते हैं। ऐसे विविध पर्व इस तीर्थ पर प्रसिद्ध हुए हैं, जिससे यह तीर्थ पर्वेन्द्र नाम से प्रचलित हुआ है। 10. महातीर्थ- जो तीर्थ साधुगण और पापीजनों के समूह के पापकर्म से दूर करते हैं, मुक्तिपद प्राप्त करवाता है, जिस कारण यह तीर्थ महातीर्थ नाम से प्रचलित हआ है। अन्य मतानुसार- अणुव्रतधारक दस करोड़ श्रावकों को भोजन देने से जो फल, पुण्योपार्जन होता है, उससे ज्यादा पुण्योपार्जन इस सिद्धाचल भूमि स्थित सिर्फ एक ही मुनि को आहार दान देने से होता है, ऐसा यह महाप्रभावी, महान है। इस कारण यह तीर्थ महातीर्थ के नाम से प्रचलित हुआ है। 11. शाश्वतगिरि (शाश्वतो)- यह तीर्थाधिराज तीनों काल भूत, भविष्य एवं वर्तमान में शाश्वत है। यह अनादि-अनन्त है। यह बोधिबीज और मोक्षराज्य प्रदाता है, इससे यह तीर्थ शाश्वतगिरि नाम से प्रचलित है। 12. दृढशक्ति (वृढसक्ति)- यह तीर्थ की सेवा-पूजा करने से आत्मा शक्ति दृढ़-अमाप होती है। इससे यह दृढशक्ति नाम से प्रचलित है। अन्य मतानुसार विविध पापकर्मी जीव-अभव्य जीव इसकी तीर्थयात्रा करते हुए अपने दृढ़-गाढ़ पापकर्मों को सेवापूजा आदि धार्मिक क्रियाओं द्वारा क्षय करते हैं। उनके दृढ़ पाप कर्मबंधों का क्षय होता है, इससे यह दृढशक्ति नाम से प्रचलित है। 13. मुक्तिनिलय (मुक्तिलय)- इस भुवन-विश्व के मानव के लिए यह तीर्थाधिराज ही मुक्तिदायक मुक्तिमार्ग रूप है। यह तीर्थ साक्षात् मुक्तिधाम स्वरूप है, जिससे यह मुक्तिनिलय नाम से प्रचलित है। 14. पुष्पदंत-चंद्र और सूर्य आकाश से इस तीर्थ के दर्शन से प्रसन्नता, आनन्द प्राप्त करते है। इस तीर्थ की पुष्पों से पूजा करते हैं। इससे यह पुष्पदंत नाम से प्रचलित है। 15. महापद्म- जिस तरह कमल कीचड़ से उभरता है, उसी तरह जो भव्य जीव सच्चे मन और श्रद्धा से भक्तिभावपूर्वक तीर्थाराधना करते हैं, वे संसार रूप कीचड़ के समुद्र को पार करके मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं, जिससे यह महापद्म नाम से प्रचलित है। अन्य मतानुसार कमल कीचड़ से उत्पन्न होता है और पानी से उसकी वृद्धि होती है, फिर भी कमल-पदम (पानी और कीचड़) दोनों से भिन्न-विभक्त रहता है, उसी तरह इस तीर्थ के सेवन से भव्य जीव कीचड़ रूप संसार समुद्र को पार करते हुए मोक्ष पद प्राप्त करते हैं, जिससे यह महापद्म नाम से प्रचलित है। 16. पृथ्वीपीठ (प्रथ्वीपीठ)- आत्मा से चिपके हुए कर्मों का क्षय करते हुए मोक्ष रूप लक्ष्मी के साथ शादी करनी है तो शादीमण्डप और बैठक होनी आवश्यक है। इसी तरह शिवरूपी स्त्री की शादी में मुनिवरों के लिए यह तीर्थ ही मण्डप और बैठक रूपी कार्य करता है, जिससे यह पृथ्वीपीठ नाम से प्रचलित है। पटदर्शन -121 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य मतानुसार, यह गिरिराज समग्र पृथ्वी का आधार रूप है। उसका प्रत्येक कण सुन्दर-पवित्र है, जिससे यह पृथ्वीपीठ नाम से प्रचलित है। 17. सुभद्रगिरि- यह परम पवित्र गिरिराज सर्व को पवित्र करते हैं। उसकी रज, वृक्ष, पानी आदि सर्व पवित्र-मंगलमय है। यह भद्र अर्थात् कल्याणकारी है। उसके दर्शन मात्र से कल्याण होता है, जिससे यह सुभद्रगिरि नाम से प्रचलित है। 18. कैलाशगिरि- यह तीर्थ साक्षात् मुक्तिनगरी समान है। यहाँ मानव, विद्याधर, देवता, अप्सरा भी अपने पापकर्मों के क्षय करने आते हैं। इससे यह कैलाशगिरि नाम से प्रचलित है। अन्य मतानुसार इस पवित्र गिरिराज के स्पर्श से शेर्बुजी नदी का पानी पवित्र, पापहर्ता होता है, जिससे यहां विद्याधर, मुनि, मनुष्य आदि अपने पापकर्म क्षय करने आते हैं। पवित्र नदी में स्नान करते आनन्द-विलास से मोक्ष सुख-मोक्ष निरंजनी प्राप्त करते हैं, जिससे यह कैलाशगिरि नाम से प्रचलित है। 19. पातालमूल- इस गिरिराज का मूल पाताल में है। यह गिरि रत्नमय और मनोहर है, जिससे यह पातालमूल नाम से प्रचलित है। 20. अकर्मक-इस महान् तीर्थ पर आठ प्रकार के कर्म तीव्र विपाकरूप उदय में आते नहीं हैं, कृत कर्म का क्षय होता है और आत्मा कर्मरहित होता है। यह इस तीर्थ का प्रभाव है। यहाँ कौआ भी नहीं आता है, जिससे यह अकर्मक नाम से प्रचलित है। 21. सर्वकामद- यह गिरिराज पर यात्रिक-भक्त की सर्व आकांक्षा, मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। द्रव्य और भाव दोनों की पूर्ति होती है, इससे यह सर्वकामद नाम से प्रचलित है। पटदर्शन Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) कठिन शब्दार्थ ट. 0 अभाव थयानी खबर ह मृत्यु प्राप्त होने की खबर (पृ. 1) अव्याबाध ह अनंता (पृ. 2) असक्तछेदीह्न आसक्ति दूर कर, वैराग्य प्राप्त करके (पृ. 11) अस्याध्यह्न असाध्य (पृ. 13) आलोचह्न आलोचना, पश्चात्ताप (पृ. 12) आंसूछूईह्न शत्रुज्य पर्वत स्थित स्थल विशेष नाम (पृ. 2) उडवडाह्र पानी का झरना, पानीकुंड (पृ. 3) उपघातह्न उपद्रव, विनाश (पृ. 3) उपद्रव्यह्न उपद्रव, उपसर्ग (पृ. 4, 13) उलखझोलह्न शत्रुजय पर्वत स्थित स्थल विशेष नाम (पृ. 3) कातील करवत (पृ. 12) काल प्राप्तिह्न मृत्यु प्राप्ति (पृ. 2) कुमारीभस्मह्न जिसके घर कभी किसी की मृत्यु न हुई हो उस घर की भस्म (पृ. 4) के वराणोह कहा गया (पृ. 3) कोपसमाविनेह्न गुस्से को शांत करते (पृ. 3) गरडाह्न वृद्ध (पृ. 4) गाउह्न दूरि दर्शक एकम (पृ. 2) चय खडकीनेह्न अग्नि प्रज्वलित करके (पृ. 4) च्यार अर्हर छांडिनेह चारों प्रकार के आहार त्याग करना (पृ. 1) छल्लि अवस्ताईह्न मृत्यु समये (पृ. 3) जथोस्तित यथोचित (पृ. 4) जिरणह्न जीर्ण, पुराना (पृ. 1) जुधह्न युद्ध, लड़ाई (पृ. 12) जोरोह्न शक्ति (पृ. 13) झंपापातह्न कुदी लगाना (पृ. 10) तलाध्वजह्न शत्रुजय पर्वत स्थित स्थल विशेष नाम (पृ. 2) टुकह पर्वत स्थित शिखर विशेष (पृ. 2) ठामठामह्न अनेक/विविध स्थल (पृ. 10-12) थानकह्न स्थानक (पृ. 12) निमाडेह्न कुम्भकारकी भट्ठी (पृ. 11) निराबाध पदह्न अजरामर पद (पृ.) पडिलाभीह्न प्रतिलाभित (पृ.) परठविह्न भूमिग्रस्त करना (पृ. 11) परिणामीह्न प्रणाम करके (पृ. 3) पाठाराप्रखह्न जैन साधु के लकड़ी के बर्तन (पृ. 11) प्रजायह्न दीक्षा, प्रव्रज्या (पृ. 7) फरसङ्ग स्पर्श (पृ. 15) फाल देईह कुदी लगाकर (पृ. 9) फासुपाणिह्न प्रासुक जल (पृ. 3) मुर्छा उतारीनेहमोह त्याग करके, विरक्त भाव धारण करके(पृ. 1) मोहोछवह्न महोत्सव (पृ. 9, 14) रोखोयुंह रक्षण (पृ. 3) लवजवह्न हंसातुसी (पृ. 10) वस्य आवतो नथीह्न अंकुश में नहीं आता है (पृ. 2) वंछितपुरेत मनोकामना पूर्ण करे (पृ. 9) विकस्वरह्न विकसित (पृ. 1) विकुयाह्न दैवी माया से उत्पन्न करना (पृ. 13) शांतिजलह्न स्नात्रपूजा में शांतिस्रोत अभिसिंचित प्रभु प्रक्षालन जल (पृ. 13) सपरसङ्ग स्पर्श (पृ. 2) समथह्न समस्त (पृ. 2) समोसरयाह्न बिराजमान हुए (पृ. 2) संथारोह संस्तारक (पृ. 13) संलेखणाह्न उपवास, अनशन (पृ. 1) संबलत कलश (पृ. 3) सिद्धवधुत मुक्ति, मोक्षपद (पृ. 2) सुणुर स्वप्न (पृ. 12) स्तानके स्थानक (पृ. 12) स्वामिवछलह्न स्वामीवात्सल्य (पृ. 9) पटदर्शन - 123 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III. English Section This Siddhacalapata, as it is called in the final colophon, is a long and narrow document on paper which was meant to be rolled. It is kept at the Jain Vishva Bharati, Ladnun (Rajasthan) with the shelfmark "Aa 97". It is 12 metres long and 24 cms. broad. It dates back to 1803 C.E. (Saka 1725 = V.S. 1859) and comes back from a Jain Svetambara Murtipujak surrounding as is shown by the only person name found in the colophon (-vijaya) and a representation of a Jain monk in Svetambara Murtipujak attire (as a devotee to Abhinandanasvami). It was made in Agastapura (location uncertain) and probably comes from Gujarat or more broadly Western India. Siddhacala is one of the common names of the sacred hill otherwise known as Shatrunjaya. The text of the scroll, which is written in Gujarati, emphasizes the main feature of this hill as a place par excellence for reaching Emancipation. This feature is underlined here in the recurring phrase "X siddhavadhu or siddha varya", i.e. "X selected Emancipation as his bride" = reached Emancipation. The present pat systematically connects each of the 24 Jinas in turn with the sacred hill. Each of them is represented individually in a painting (see section 3. below) which is followed by a portion of Gujarati text ending with a phrase of homage to the corresponding Jina. Hence it is different from the usual Shatrunjaya pats where the iconographic programme shows elements of the mythical or topographical landscape of the hill and which are often used as hangings in many Jain temples. Their iconography is not uniform and has changed over the centuries (see Hawon Ku Kim 2007, chap. 5). While the earlier ones represent Shatrunjaya as a mythical place through the depiction of a few key episodes (the Emancipation of the Five Pandavas on the hill being one of them), the later ones depict it "as a topographically and architecturally accurate site" (ibid. 157). All of them are meant to be "embodiments of the site" to be looked at and worshipped on Kartik Purnima by lay devotees, especially those who are unable to go for a pilgrimage themselves, or by mendicants who are not allowed to go from one place to another during the rainy season. Such pats are still being made in the village of Palitana. 1. Contents of the text The Jinas' identity cards: analysis and charts Each of the textual portions of the present pat starts with a formulaic sentence of the type "And now the Lord X". Each of the 24 sections includes a certain amount of basic information relating to a given Jina presented in a fixed sequence in the form of a list. In its complete form it covers the following items: number of ganadharas, name of the chief-ganadhara, number of monks, number of nuns, name of the chief-nun, number of laymen, number of laywomen, size, life-duration, colour and identifying symbol (lanchana). In a number of cases, however, there are gaps: the names of the chief-ganadhara are missing from Jina 16 to 24, the name of the chief-nun is missing for Jinas 13 and 15 to 24. In one case, the size is missing, which is probably just the result of chance. When, however, the gaps are more numerous, it is difficult to account for them. The available information has been collected in a chart (see below and section 3). For Jinas No. 3, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 17, 18, 19, 21 and 23, there is nothing more than that. The tradition of giving a systematic identity card to the Jinas which can be visualized in tabular presentations is not new. The Avasyakaniryukti has such a presentation dealing with the following parameters: number of monks and nuns, number of ganas/ganadharas, life duration (total and with subdivisions), names of father and mother, places for the first fast-breaking, names of donors on this 124 -पटदर्शन Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ occasion, size of the body. This type of presentation culminates with works such as Somatilaka's Saptatisatasthanaprakarana (1330 C.E.) which is a remarkable and extreme instance: it covers everything relating to the maximum possible number of Jinas (cf. Bruhn 1983). An intermediate representative of this taste for exhaustivity in the Svetambara tradition is provided by Nemicandrasuri's Pravacanasaroddhara, a classic of Jain dogmatics, which covers the following topics: Names of the Jinas: dvara 7 Names of the ganadharas of the 24 Jinas of the present in Bharata: dvara 8 Names of the chief-nun of the same: dvara 9 Names of the fathers and mothers of the same: dvara 11 Number of ganadharas of the same: dvara 15 Number of monks of the same: dvara 16 Number of nuns of the same: dvara 17 Number of those possessing vaikriyalabdhi : dvara 18 Number of debating monks (vadin): dvara 19 . Number of those possessing avadhijnana: dvara 20 Number of Omniscien: dvara 21 Number of those possessing manahparyayajnana: dvara 22 Number of those knowing the 14 Purvas: dvara 23 Number of laymen: dvara 24 Number of laywomen: dvara 25 Names and characteristics of their yaksas and yaksis: dvara 26 and 27 Size of the body and identifying symbol: dvara 28 Colour and number of people who took dikna along with them: dvara 29 Life duration and number of people who reached Emancipation along with them: dvara 30 Place of Emancipation: dvara 31. Information of a similar type is integrated in the narration in works such as Hemacandra's Trisastisalakapurusacaritra, where, however, the names of the chief-nuns are never mentioned. Thus, on the one hand, the tradition on topics relating to the Jinas' lives is fairly well established, on the other hand, some of the headings are probably less commonly known than others: names of the yaksas and yaksis are more familiar than the names of the chief-nuns; information relating to Mahavira, Rsabha and a few others is more familiar than what concerns, for instance, Padmaprabha. Thus discrepancies in names and numbers can occur, as the comparison of our document with parallel sources shows. In case of names, they are sometimes orthographic/phonetic variants, which might have been favoured by the coexistence of Sanskrit, Prakrit and vernaculars, or variations of a type that might suggest a form which has undergone modifications during the transmission. When they are radically different from one source to the other, to account for this difference is almost impossible (e.g., name of the chief-ganadhara of Jina No. 6). In the case of numbers, difficulties in the written transmission (inversion of figures or misreadings or even misunderstandings resulting from the way of listing figures in verses which can provoke ambiguities) could be the explanation (for instance 105 in the Ladnun document instead of the usual 102 for the number of Sambhavanatha's ganadharas, 80 instead for 88 for those of Suvidhinatha). In fact, the textual tradition itself is aware of such divergences, which are recorded, for instance, in Siddhasenasuri's commentary on the Pravacanasaroddhara with some embarrassment, as in one case the conclusion is: tattvam punah kevalino vidanti, see the annotations to the chart below. पटदर्शन 125 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jinas' charts - I Jina Ganadharas Name of chief gdh. monks nuns Name of chief nun laymenlaywomen size life duration Simhasena 100000 298000 7200000 p. 450 dhanus 130000 but Phala330000 acc. guna to AVN 260, Pravac. dvara 17 and T. II. 6.666 (trimsatsahasra-yuk laksatrayam) 554000 but 545000 according to T. II. 6.670 (pancacat varimsatsamkhyaih sahasrair adhikani tu, sravikanam pancalaksani) 636000 3 200000 336000 Syamya 400 dh. 6000000 p. 105 but 102 Carudatta according to but Caru AVN 266, acc. to Pravac. 14 Pravac. dvara & T. III. dvara 1375 8 and T. 4 116 Vajranabha 300000 630000 Ajita 527000 350 dh. 5000000 p. 228000 but 288000 acc. to Pravac. dvara 24 and T. 5 100 320000 530000 300 dh. 4000000 p. Tapi but 218000516000 Kasavi acc. but to Pravac. 281000 dvara 9 acc. to Pravac. and T. 6 107 505000 250 dh 3000000 p. Jasa but 336000 420000 Rati 276000 Pajjoya acc. but to Pravac. 330000 dvara 8 and acc. to Suvrata acc. AVN. 256 to T. and Pravac. Vidarbha 300000 493000, Samma but 257000 but 430000 Soma acc. acc. to Av to Pravac. N 261, dvara 9 Pravac. and Tr. here 7 95 493000 200 dh. 2000000 p. 126 पटदर्शन Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jina Ganadharas | Name of chief gdh. monks nuns laymenlaywomen size life duration Name of chief nun perhaps a confusion with the number of laywomen 8 93 250000 380000 Sumana 250000491000 150 dh. 1000000 p. Dina but Dinnaprabhava acc. to Pravac. and Datta acc. to T. 9 200000 120000 Varuni 229000 80 but 88 Baraha according to (usual AVN 266, form: Pravac. dvara Varaha) 15 & T. 471000 100 dh. 200000 p. (= Pravac., but 472000 асс. to T.. III. 7.246: sravikanam catur-laksi dvasaptatisahasrayuk 10 81 Sujasa 289000458000 90 dh. 100000 p. Nanda but 100000 106000 Pahunanda acc. to Pravac. and Ananda acc. to T. 1176 1: 84000 279000 448000 80 dh. 8 400 000 years 76, like Pravac. (chavattari) but AVN 72 (buvattari); difference resulting from graphic confusion Kastubha; Kotthuha acc. to Pravac. and Gosubha acc. to T. 130000 but Dharani 103000 acc. to AVN 261, Pravac. and T. 12 66 100000 Dharani 215000 436000 70 dh. 7200000 years Subha, Subhoma acc. to Pravac. and Suksma acc. to T. 13 57 68000 100800 208000 Mandira; usual form: Mandara 424000 60 dh. 6000000 years (= Pravac., but 434000 acc. to T. IV! 3.222: sravi पटदर्शन 127 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ monks nuns laymenlaywomen size life duration Jina Ganadharas Name of chief gdh. Name of chief nun kanam catur laksi catustrimsatsahasra-yuk Johnson's transl. " 430000" is a mistake) 14 50 Jasa Jasa 62 000 Padmavati 206000 3 000000 years 410000 but 50 dh. 414000 acc. to Pravac. and T. 50000 but 66000 acc. to AvN. Pravac. and T. 64000 15 43 Arista 62400 45 dh. 1 000000 413000 years 204000 but 240000 acc. to 7 and Saptatisata gatha 241 (ref. given in Pravad. ed. n. 1 p. 249) 290000 393000 16 36 62000 40 dh. 100000 years 62600 but 61600 acc. to AVN 262, Pravac. and T. 17 35 60000 60600 381000 35 dh. 95000 years 179000 but T. different 184000 50000 60000 40000 183000 55000 50000 30000 172000 372000 30 dh. 84000 years 370000 25 dh. 55000 years 350000 to be 30000 years supplemented: 20 348000 15 10000 years 336000 10 dh. 1000 years but T. transl. V p. 312: 339000 170000 20000 18000 41000 40000 169000 1 According to Pravac. dvara 28, the principle is that from Dharmanatha to Neminatha the number decreases from 5 units. This is also the reason why "22" as the size of Mallinatha given here is very likely to be a mistake. 128 पटदर्शन Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jina Ganadharas monks nuns laymenlaywomen size life duration Name of chief gdh. Name of chief nun 23 10 16000 38000 164000 327000 but 9 hasta 100 years 339000 acc. to Pravac. and 377000 acc. to T. 24 11 14000 36000 159000 327000 but 7 hasta not given 318000 acc. to Pravac. and T. There is probably a confusion in the Ladnun scroll because the number of laywomen belonging to Parsva's and Mahavira's community should not be identical Jina number of accompanying persons at diksa number of accompanying persons at Emancipation 1000 1000 1000 1000 1000 1000 1000 1000 1000 803; 308 acc. to Pravac. dvara 33, but the variant 803 is recorded in the comm.: Padmaprabhasya triny astottarani satani, anye try-uttarany astau satani vyakhyayanti. Avasyaka-tippanake tu "Padmaprabha-tirthakrd-vicaye triny astottara-satani sadhunam nirvrtanity avagantavyam, trigunam astottaram fatam ity arthah, trini satani caturvimsaty-adhikanity yavat" iti vyakhyatam. tattvam punah kevalino vidanti 500 1000 1000 1000 1000 600 6000 7000 108 *1000 1000 1000 1000 1000 600 1000 1000 1000 ucagfa 129 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jina number of accompanying persons at diksa 1000 1000 1000 300 1000 1000 1000 number of accompanying persons at Emancipation 900 1000 1000 500 1000 1000 536 33 - Mahavira was alone at that time. 300 The narrative material: miracles, names and landscape The sections relating to Jinas No. 1, 2, 4, 16, 20, 22 and 24, are not restricted to the Jinas' biodata. They also include embedded narratives (see below). The connecting thread of all the material contained in the document is Shatrunjaya. This document dates back to the beginning of the 19th century; as a highly important sacred place Shatrunjaya has given birth, in the course of time, to a number of literary compositions, whether they are hymns, legends, historical records, inscriptions, etc. The present pat draws on the wealth of traditional materials connected with this tirtha which it hands down in its own way, that is in simple narrative Gujarati prose, where the ordinary pattern of the sentences is made of a chain of verbs in the absolutive finally leading to the main verb at the end of the sentence. The style is lively and close to the movement of the oral sentence. The main narrative classic connected with Shatrunjaya is Dhanesvarasuri's Satrunjayamahatmya written in the 14th century. Several of the embedded stories found in the Ladnun document are also found in Dhanesvarasuri's work. We do not mean to say that the author of our pat used this mahatmya directly or had it in front of him. But it can be considered as a kind of vulgate containing standard material on Shatrunjaya, which was transmitted from generation to generation and was known to all directly or indirectly. For instance, reporting about his visit to Shatrunjaya in November 1822, the British officer and scholar James Tod writes: "My researches in this interesting spot were materially aided by an introduction through my own Yuti (= yati) to some learned priests, now here on a pilgrimage, who gave me much information on points connected with their religion, as well as details concerning the teerut (tirtha), from the Shatrunjaya Mahatma (sic), a portion of which work they had with them". 3 . Although it is not the only work to have the same stories, we treat it here as a convenient reference. Compared to Jinaprabhasuri's Satrunjayakalpa or a work such as the Kumarapalaprabodhaprabandha, where the main concern is to name and list for celebration those who reached Emancipation at Shatrunjaya, without expanding on their adventures, Dhanesvarasuri narrates them at length. Our document stands midway between these two tendencies. The role of oral sources connected with Shatrunjaya should also not be underestimated. But it is more difficult to assert precisely. The striking feature of our text is the exclusive legendary and traditional perspective and the absence of any topographical or historical information which would specifically relate to the period when the pat was painted and written or to earlier historical periods. It is neither the account of an actual 2 I have not been able to consult Subhasilagani's Satrunjaya Kalpa and its commentary (ed. by Labhasagaragani, Ahmedabad, 1969, Agamoddharaka Granthamala No. 41: see Granoff 1999) for this investigation. 3 Travels in Western India, p. 275. 130 UCG2fa Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pilgrimage, nor a tour of the temples (caityaparipati). It does not provide any precise evidence on the architectural layout of the site or the localization of buildings (as it is done, for instance, in the second half of Jinaprabhasuri's Satrunjayakalpa, even though it does not result into a very clear picture). The embedded stories reflect how the sacredness of the place was perceived by the Jain devotees. The function of many of them, whether short or long, is to explain how a given spot (ksetra) became sacred through the presence of various characters, who, at one stage of their lives, had religious feelings or acted in a religious way. Hence the stories are miracle stories which have a memorial aspect and are meant as commemorations for events that are supposed to have occurred in the past. The etiological function is equally important: the names of the hill itself and the names given to the various places leading to the hill or located on top of it are a basic concern of our document, which has its place in the tradition of mahatmyas. All features of the landscape, whether it is the ground or the water, have become significant within the religious context because they are associated with heroic and religious characters. The most commonly mentioned component is the tunka, a sacred enclosure. But the river Setrunji or water tanks such as the Suryakunda (Suraj Kund) found on the hill, which are traditionally known to possess curative powers, are also sacred places. The sacred character of a given place is marked by the erection of a temple. In brief, it is an object of worship which combines celebration of the 24 Jinas with the celebration of Shatrunjaya, a two in one. Analysis of the stories in sections 1, 2, 4, 16, 20, 22 and 24 1) Vimalacala as a sacred place for Emancipation in the past, the present and the future. Various comparisons applied to Rsabha: refuge for those who have none, remover of the dangers of rebirth, similar to a boat for helping qualified people to cross over, similar to a sun for dispelling the darkness of ignorance, similar to a caravan for crossing the jungle of rebirth, similar to the doctor Dhanvantari for removing the disease of karma, similar to the large cloud Puskaravarta for removing the fire of passions, he who opens the lotuses in the form of qualified souls, who expounds the voice of dharma to the qualified souls. Accompanied by his 84 ganadharas, by 84000 monks and by the complete fourfold community Rsabha reached Vimalacala where the four groups of gods organized his samavasarana. After having listened to the Jina's preaching, where he described the glory of Vimalacala hill, a lot of people felt a supreme joy. They heard from the Jina that they would get emancipated at this place. Thus they became avert to the world, fasted unto death and reached Emancipation. > SatrMah. V.30ff. 3) The 24 Jinas of the past, among whom Kevalajnanin and Nirvana/Nirvani, revealed this sacred place. 4) Origin of the name Pundarika. It comes from the fact that this is the place where Rsabha's leading ganadhara, Pundarika, reached Emancipation together with five crores of monks on the full moon day of Caitra, as it had been predicted to him by Rsabha himself. 4 Among the numerous works belonging to these categories, see, for instance, "Somatilakasuri-krta Satrunjaya-yatra vrttantah" in Anusandhan (Ahmedabad) 10, pp. 10-11 narrating a pilgrimage which took place in V.S. 1395; "SriSiddhacalatirtha-Caityaparipati", in Anusandhan (Felicitation Volume for H.C. Bhayani), 18, pp. 117-187, dated V.S. 1817; "Srisatrunjayacaityaparipatika-stotram" in Anusandhan 26, pp. 116-118. 5. ">" is used to indicate the existence of parallel versions of a given story or episode in other works. पटदर्शन 131 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > SatrMah. V. 154; SatrKalpa 4. Origin of the name Bharata given to an enclosure. During a pilgrimage to Siddhacala, Bharata asked Indra the reason why the footprints (paduka) and the enclosure of Kevalajnanin were so decrepite. The Indra of Saudharma explained that he was the first Jina of the past and that these spots have now become old. Bharata undertook their restoration (this is not stated clearly in our document, but is clearly expressed in the SatrMah, and has to be implied). > SatrMah. V. 366-376. Restoration and construction of a new temple dedicated to Rsabha on the top of the hill and installation of the ganadhara Pundarika. - Installation of Rsabha's footprints under the Rayana. > SatrMah. V.19 for the tree, called rajadani in Sanskrit; Kanchansagarsuri (1982) p. 9: mention of Rsabha's footprints at this place; Gunratna Surishwar (1998) p. 91. Rayana is the holy tree of Shatrunjaya where Lord Rsabha gave his sermon. It is of high value to the pilgrims and all its parts are considered sacred. Here it is mentioned in a surprisingly brief manner. An episode showing the sacred character of the place. The vidyadharas Nami and Vinami came to Bharata and told him that Rsabha had predicted that their Emancipation would happen on Siddhacala. Bharata agreed. Nami and Vinami became mendicants and were emancipated on the 10th day of the bright half of Phalguna after having fasted unto death for two months. They were accompanied by two crores of monks. > SatrMah. V.736-738; SatrKalpa 23; Gunratna Surishwar (1998) pp. 45-46. 8) Topographical elements. Bharata bathed in the river Setrumji. In each of the four directions there are four parks: Suryavana in the east, Candravana in the west, Laksmivana in the south and Kusumavana in the north. > SatrMah. 1.56-57. Further on, king Bharata built a temple dedicated to Candraprabhu because an ascetic who was sitting there had been told by Rsabha that he would reach Emancipation on this spot at the time of the eighth Jina, Candraprabhu. > SatrMah. V.752-762 (where the ascetics met by Bharata were told that this place would be the place of Candraprabhu's samavasarana). 10) Origin of the name Carcagiri: the place where Carca and the other 63 daughters of Nami and Vinami reached Emancipation. > SatrMah. V.744-745: vratinyo Nami-putryo 'tha catuhsasty-anka-sammitah srnge 'parasmin Kanaka-Carcadyas tasthur udyatah / 744/ krsna-caturdasyam nisithe tatra tah samam yayuh svargam tatah khyatah Carcakhyah sa girir mahan /745/ Another mention of these 64 daughters' Emancipation is found, for instance, in the Gujarati hymn Calo calo ne jaie, Soratha desa mam: Nemi putri cosatha kahi, karati atama thama (in Jaina Ratna Samgraha p. 77). 132 - पटदर्शन Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11) Episode adduced to account for the name of the place known as Kadambagiri. It is narrated by king Bharata in answer to the question asked by Saktisimha, an ascetic who was his nephew. The hill owes this name to the fact that it was the place of Emancipation of Kadamba, the chief-disciple (ganadhara) of the Jina Nirvana, the second among the 24 Jinas of the past, and that this had been predicted to him by the Jina. > SatrMah. V.714ff. 12) Origin of the name Bahubala given to an enclosure: Bharata built a temple dedicated to Bahubali on the mountain Taladhvaja (sic), the place where his nephew Saktisimha told him that Bahubali had reached Emancipation. > SatrMah. V.695ff. The mountain named Taladhvaja (sic) is mentioned in V.711. - From here up to 15) below, a few episodes are not related to Shatrunjaya but to Girnar: under the conduct of Saktisimha, Bharata travels to various places of pilgrimage and learns about their tradition. The same narrative frame is found in SatrMah, chap. V. 13) The mountain Satudi. There people started to die without reason. A flying ascetic came and explained that this was caused by a barbarous king who had sent a disease. The ascetic went away after having advised the people to bathe in the curing waters of the river, saying that contact with its water would cause the disappearance of the disease. They did so and were cured. 14) Episode meant to explain the origin of the place Hastikalpa. Bharata had an elephant who was his favourite. He founded the village of Hastinagapura at the place where the elephant died. There he built a temple dedicated to Rsabha. From that time the place was known as Hastikalpa. >SatrMah. V.730: the name of the hill is Hastisena. 15) A story meant to explain the origin of the name Baradagiri at Girnar. Girnar has its origin in the temple that was built in honour of Neminatha to celebrate three of the five auspicious events (kalyanaka) of his life. Four temples were built on each of the mountains located in each of the four directions. From there the mountain called Barada or Varada can be seen. On this mountain lived a raksasa who used to trouble the population. Nobody was able to have power over him. Bharata sent Susena his commander-in-chief who was able to defeat the raksasa. Bharata built a temple dedicated to the Lord at this place. > SatrMah. V.890ff. 16) A story meant to explain the origin of the name Hamsavatara. Dravana, one of Rsabha's sons, had two sons, Dravida and Varisena. The two brothers were fighting for the kingdom. The rainyseason came. Millions of people had died in the battle. Then autumn came. There on the bank of the Ganga, there was a gathering of ascetics. After having heard the teaching of a leading ascetic, the two brothers became ascetics. They were accompanied by ten crores of persons. A flying ascetic came to the forest where they were staying and told about the power of Siddhacala. They went there. On the way, they came across a pool where swans had gathered. One of them, who was old and weak, stayed there, while the others flew away when they heard the noise of approaching men. The monk gave water to the old swan and took it with him. After having fasted unto death the swan died and was reborn as a deity. A new temple was built at this place which then got the name Hamsavatara. > Satr Mah. VII, esp. 188-220 (episode of the swan); Satr Kalpa 24; Kanchansagarsuri (1982) p. 13; Gunratna Surishwar (1998) pp. 35-36. पटदर्शन 133 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1) Ajitanatha spent the rainy season on Siddhacala. His disciple named Sudharma came on the top of the mountain for darshan taking some water for the trip. The monks sat to take rest in the middle of the day, putting their water dish aside. Suddenly a crow made a quick swoop and the water was spilled. The monk rebuked the bird and threw a curse. From this time on, crows disappeared from this place. The monk thought that his homage had been polluted and that it should never again happen to anybody else. He wished that pure water would always be available there. From this time the place was known as Ulasajhola (such is the spelling of the document; commonly known as Ulkhajal or Ulkajal; see Kanchansagarsuri [1982] captions to plates 94-95; Gunratna Surishwar [1998] p. 138). Ajitanatha predicted that Shatrunjaya would be the place where the monks would be emancipated. They performed ritual death and were emancipated. > SatrMah. VIII.232-244: emphasis on the fact that crows will disappear from the place and on the curative and purifying power of the water found on the hill. The 60000 sons of the second Cakarvartin, Sagara, with Jinakumara at their head, asked permission from their father to undertake a pilgrimage to the Astapada where the memorial to their ancestor Rsabha is located. Considering that future times were going to be difficult and that this memorial might be endangered, they decided to make use of the staff-jewel to dig a moat memorial behind the Astapada in order to protect it. 2) Their digging activity disturbed the Bhavanapati deities (= the Nagas) underneath. They were inflamed with anger. Seeing on the one hand the sacred Astapada and on the other the behaviour of the princes, they came to them, explained the situation to Jinakumara and then went back to their living place. The princes then thought that the moat had to be filled with water in order to be useful. They filled the moat with the water from the Ganga. Now, the Bhavanapatis' homes were flooded by this water. This time the chief of the Nagas, inflamed with anger, killed the princes by burning them. Seeing this, the chiefs (of Sagara's army) decided to take revenge. But Indra, seeing through his avadhi knowledge that some disaster was going to happen, took the disguise of a Brahmin, with the aim to convince everybody that death is not something that can be avoided. He appointed some soldiers, told them what to do, took an army and entered Ayodhya. He entered the city in the disguise of a Brahmin, carrying a corpse on his shoulders. He approached the door of Sagara's royal palace and started lamenting aloud. To the Cakravartin's questions, he answered that he had only one son who had died of a snake bite, that all solutions to revive him had proved useless. Only one remained: to find a kumari-bhasma "virgin-ashes". i.e. a house where death had never happened, which as a powerful emperor he should be able to find. The Cakravartin took the Brahmin in the town in search for this, finally going to his mother, who said that there is no such thing in the house. When the Brahmin started to cry even louder, Sagara tried to explain him the impermanence of the world. The Brahmin answered through a striking sentence: "To explain is easy, to understand is difficult". Sagara did not agree, answering that both things are easy. While both were chatting, the news that Sagara's 60000 sons had died came to the palace. Indra, leaving the disguise, reverted to his true form, and explained the situation to Sagara. Ajitanatha arrived for the samavasarana and preached the dharma. He celebrated the greatness of Shatrunjaya. Everybody was full of joy and serenity. > SatrMah. VIII. 244ff.; Hemacandra, Trisasti. II.5.51-11.6.219. But the means suggested by Indra as a Brahmin to revive his dead son is not identical in these versions. In Hemacandra's work, the 134 पटदर्शन Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Brahmin has been told by the family deity to bring fire from an auspicious house where no one has died, and believes that Sagara can offer this since he is more powerful than anybody else, but the Cakravartin tells his family history and explains that no ancestor has survived death in his house. In the Satr Mah. VIII.323 bringing ashes from a house where death has never occurred is the solution suggested but inapplicable as every household, even the king's, has had experience of death. Then the news came that the course of the Ganga flowed everywhere. Sagara came to Shatrunjaya with Bhagiratha, the son of Jinakumara. They undertook a restoration of the sacred place. Indra requested Bhagiratha to bring the Ganga (overflowing from the moat) into the ocean in order to protect Shatrunjaya from difficult times further ahead. Bhagiratha gave a command to the deity called Svastika to bring the Ganga on earth, and then to the hill. Indra requested Sagara who requested the deity that the Ganga should be at a distance of 20 gavyutas. > Trisasti. II.6.533ff. (no mention of the deity there); SatrMah. VIII.436ff. 4) Basic information about Ajitanatha: see the chart above and section 3. below. Story meant to explain the name "Satrunjaya", i.e. victory over enemies, which dates back to the time of the fourth Jina, Abhinandana. This name comes from the fact that the king Suka could have victory on his enemies in this place. Sukarajan was the name of king Mrgadhvaja's son, and was earlier known as Jitasatru. This king had decided to abstain from the four types of food. He went on a pilgrimage to Siddhacala. On the way, the Kashmir forest came. His companions encouraged him to break his fast, saying that a body, which is made of matter, cannot survive without food and drink, and underlining that the Jinas have differentiated between the rules for general situations and those for exceptional ones. But the king did not change his mind. The community was full of anxiety. The sun set. At night all were sleeping. A false yaksa appeared in a dream to the religious teacher, to the king, to the chiefs and to the four heads (of the sangha), reassuring them that he would get them see Siddhacala on the next day. In the morning all of them woke up. They were full of joy: the yaksa had built a new Siddhacala within Kashmir. With the king at their head the group made a pilgrimage and their resolution was fulfilled. Jitasatru worshipped the Lord. He went away and came back seven or eight times, and then was advised to stay there. He founded the town of Vimalapura. The king and his two wives, Hamsi and Sarasi stayed there and worshipped the Lord. In the meantime a parrot came. It was beautiful and attracted the king's mind. His last hour came. He fasted unto death on Siddhacala. His two wives assisted him. The king's mind was still attached to the parrot. After his death he was reborn as a parrot. His wives had a pious death and were reborn as deities, who had the ability to see the rebirth of their former husband through their avadhijnana. They enlightened him. After having understood his own nature from them he fasted unto death and became a god. King Sukarajan had victory over his enemies with the help of his wealth. From this day the place was known as Shatrunjaya. After having had victory over the internal enemies, namely passions, he reached Emancipation. This was also one reason why the place was known as Shatrunjaya. > Kanchansagarsuri (1982) pp. 10-13 for a narration of the story of Sukarajan, but the episodes are different from what we have here and the textual source is not indicated as such. The story is not found in Dhanesvarasuri's work. ucapfo 135 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2) King Candrasekhara also visited this sacred place and was emancipated after fasting unto death. > A similar allusion in the Gujarati hymn Siddhacala gavum re by Sakalacandra: bhagini bhogi uddharyo, je Candrasekhara narinda (in Jaina Ratna Samgraha p. 71). Basic information about Abhinandana: see chart above and section 3. below. 3) 16 1) 2) Basic information about Santinatha: see chart above and section 3. below, At the end of santinatha's sermon where he celebrated the greatness of Shatrunjaya, the king Cakrayudha (who is also santinatha's son) asked from him the favour of getting the title sanghapati to go to this extraordinary place. This permission was granted. The Lord poured vasaksep from the golden tray which was being held by Indra and granted the title of sanghapati to Cakrayudha. The latter came back home in joy. He wrote messages to all countries. The community met. Indra ordered a temple. An image of Santinatha made of precious stone was installed there. The whole community went to Shatrunjaya and performed various religious acts. Then they came down the hill. They saw the old temple of the Lord. They got a new one made, in a way similar to what Bharata had done. Back home, Cakrayudha gave the kingdom to his son and took the vows at the feet of Santinatha. He was emancipated at Sammetasikhara after having fasted unto death for one month. > SatrMah. VIII.625ff. The story is adduced as an explanation of the name of a site called Simha-udyana on Shatrunjaya. A very aggressive lion tried to jump on santinatha. Each time, he failed and had to recede. Each time his anger increased and he jumped again. This happened thrice. Seeing that santi remained fully quiet, the lion gave up and started to think that he was a great man. He was worried about what his next birth would be since he had insulted this great man. Santi narrated his earlier birth (where he was a Brahmin who practiced sacrifice and killed animals) and enlightened him. As a result the lion performed fast unto death and was reborn in the eighth heaven. Through avadhiknowledge he wondered which good action was the cause of his rebirth as a god. He understood that this was due to santinatha's help. He got a temple dedicated to the Lord installed within Simhavana. Those who are devoted to the Lord's worship will see their desires fulfilled. From this time this sacred place became known as Simhavana. > SatrMah. VIII.586ff.; Kanchansagarsuri (1982) p. 13. 20 3) Sto 1) Basic information about Munisuvrata: see chart above and section 3. below. 2) Pilgrimage of Ramacandra to Shatrunjaya, renovation and Emancipation. Story of king Candraraja who was a contemporary of Munisuvrata. From this rather complicated story only the elements which are relevant to Shatrunjaya, and more precisely, to the power of the water of its Suryakunda, are retained in the Ladnun scroll Candraraja had been transformed into a cock by his step-mother the queen Viramati who was in possession of some magic powers. He had to suffer this condition for almost 16 years. The sixteenth 6 See below section 24 the story of king Mahipala who also benefited from the curative power of the water of Suryakunda. 136 -पटदर्शन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ year was not yet completed. A great festival was being performed on the eighth day of the month of Caitra on Siddhacala. His wife Premalalacchi, who got the cock from Sivamala the daughter of an acrobat, was very religious. She went to Shatrunjaya, taking the cock with her in a cage and accomplished various rituals there in a joyful atmosphere. They bathed in the Suryakunda. Then her friends and herself opened the cage. Reflecting about his sad life and the hate of his stepmother, the cock-Candraraja jumped into the water of Suryakunda in order to kill himself. Premalalacchi plunged into the water to save her dear husband, without whom she would not be able to live. She took the cock. As they each pulled in a different direction, the cord around his neck broke and he recovered his original human form. The Sasanadevata took both of them out of the water. Both were honoured through a rain of flowers. Premalalacchi's father, king Makaradhvaja, celebrated their return. After having been able to rule for a long time, because of the greatness of Shatrunjaya, Candraraja decided to lead a religious life after he had heard Munisuvrata's teaching and was finally emancipated. > This story cannot be traced in Dhanesvara's SatrMah (chap. IX devoted to Munisuvrata and Rama). But it is well known under the title Candraraja no ras and known from several versions. Its connection with Suryakunda accounts for its mention in various hymns to Shatrunjaya: see, for instance, one written in Gujarati by Sakalacandra (Siddhacala gavum re): kurukata mati raja thayo, je Surajakumde Canda (in Jaina Ratna Samgraha p. 71). A summary (in rather poor English) is available in Kanchansagarsuri (1982) pp. 15-16 (no original source mentioned); see also Gunratna Surishwar p. 65 about Suraj Kund: a bird (Candraraja) is carved on the tank. 1) 2) 3) 22 Basic information about Neminatha: see chart above and section 3. below. - Mention of Taleti, the place where the holy hill of Shatrunjaya begins. After having heard Nemi's teaching, Krsna's sons samba and Pradyumna decided to lead a religious life. They went to Siddhacala with eight crores and a half monks and reached Emancipation. > SatrKalpa 26. Narada reached Emancipation together with 9 100 000 persons. > SatrKalpa 25. Siddhacala is also the place where the Five Pandavas reached Emancipation. They were at the origin of a restoration there. After having taken to religious life, they were keeping a month's fast and went to Hastinapura to break it. They took the resolution to break the next fast at the feet of Neminatha. After having taken this resolution and having cleaned their religious vessels, they went in search for alms in Hastinapura. But, when they reached outside the village, they heard that Neminatha had reached Emancipation. They decided to go to Shatrunjaya, the glory of which they had learnt from him, and took to fasting unto death. They were accompanied by twenty crores of persons. > SatrMah. XIII, end; SatrKalpa 30. 4) 24 1) Basic information about Mahavira: see chart above and section 3. below. - During his travels Mahavira reached Siddhacala for the samavasarana which was built by the gods. On this occasion he delivered his teaching. पटदर्शन 137 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Story of the king (Kara)Kandu: it shows how going to Shatrunjaya and worshipping the Jinas there can save even a misbehaving person. The starting point is as follows: two gods who were friends met in Siddhacala and saw a monk taking the heat of the sun. One friend asked the other whether he knew the story of this monk. His reply was negative, but he said that when he had gone to pay homage to Simandharasvami in the Mahavideha, Simandhara narrated the following story to him. There was a king named Karakandu who was extremely bad, who was addicted to the seven addictions and who was a tormentor of his subjects. Once, while he was sitting in the main hall, he happened to read a verse which was written on the flying leaves of a kalpavrksa. After reading it, he became extremely frightened and disturbed, wondering how he could be freed from this evil and knowing that he would certainly die after having committed violence. During the night, he went out alone and walked continuously. At dawn he sat under a tree to take rest wondering in which manner he would commit violence. Suddenly a cow came raising its horns. The frightened king pulled out his sword and struck the animal violently so that it was split into two parts. From the inside a beautiful young lady with ornaments came out. She rebuked the king for having killed a poor and weak animal. She challenged him, saying that if he was really courageous he should fight against her. Mocking her, he took his sword to fight. The lady gave a strong blow, and the king was knocked down, having no strength to get up. Totally depressed, he was immersed in reflection. When he opened his eyes, there was no cow, no lady and no strike of a sword. He wondered whether he had seen a dream or a mirage. His family goddess Ambika made herself known to him, telling him that for six months he would have to wander about, to visit various sacred places and to endure various difficulties, but that equanimity would come to him and that she would then tell him the proper place where to stay after that much time has passed. Then the goddess disappeared. Six months passed like this. The king went on. Once he had reached a mountain at the foot of which there was a banyan tree. The sun was setting, night was coming. He decided to stay there, having made for himself a bed with the leaves of the tree. He was anxious, thinking that if he had gained equanimity, the goddess would have appeared to him. He fell asleep. Then a raksasa, who was his enemy, because the king had taken his wife and wealth, came to rebuke him, saying that he was now getting the result of his karma. He took the king and went back to his cave wondering what to do with him: should he eat the king, put him into pieces and throw him into the sea? Finally through his divine power he made iron nails and started beating the king as strongly as a washerman beats clothes. But the king did not show the slightest anger. The raksasa troubled the king like this for the whole night, without success. Realizing that the king would not die he left him at the foot of the banyan tree. The next morning, the family goddess appeared. She advised the king to go to Pundarikagiri in Saurashtra and to adopt right conduct. This would guarantee him the destruction of karmas after seven days and Emancipation. Then she disappeared. On the way the king met some monks and listened to their teaching. He reached the hill, worshipped the image of Rsabha, and is there taking the heat of the sun at the feet of Mahavira. The king would reach Emancipation while the two gods who narrate the king's story are talking to each other. > SatrMah. 1.65-162: the king's name is Kandu; Kanchansagarsuri (1982) p. 10. The story of Mahipala: a very long story of which only the episode focusing on the curative power of the water of Suryakunda on Shatrunjaya is retained here. It is narrated by Mahavira to the king of Junagadha who had come to pay his respects with regard to king Mahipala who was sitting in the assembly 2) 138 . . -पटदर्शन UCGAT Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ King Mahipala will be suffering from a severe skin disease (leprosy/leucoderma). Because of it his body will have a bad smell, so that he will not live inside the city, but outside in a village. He will not know the difference between day and night and will have to suffer intolerable sufferings. Once, numerous vidyadharas and vidyadharis were returning to their respective homes after having come to Shatrunjaya in order to celebrate the festival of the eighth day of Caitra. Among them, a vidyadhari suggested to her husband that they both bathe in Suryakunda and worship Rsabha before going. The vidyadharas did so, filling ceremonial pitchers with water. Then they sat in their celestial carts and went. On the way they saw and heard the lamentations of Mahipala. The vidyadhari took pity on him and asked who he was. Her husband explained that he was king Mahipala and that this disease was the result of previous karma. But they had heard from a monk that there was one means to cure it: the contact with one drop of the water of Suryakunda, a tank located in the Suryavana of Shatrunjaya. Full of joy, the vidyadhari took some of this sacred water in her hands and sprinkled it on Mahipala. As the 18 varieties of the skin disease were disappearing, the vidyadhara said: "We had hatred with you for seven births. Now our power has stopped. Therefore we cannot stay here and we are leaving". Upon these words the disease became totally invisible and the king recovered full health. The next day was for celebrations. A monk came. The king offered him some food and asked about the cause of his former disease. The monk narrated his previous birth to the king: in his seventh birth he had killed some Jain monks. He had made efforts to wash up the sins, but some karma had remained, as a consequence of which he had to suffer as he did. The king remembered his previous birth, went to Shatrunjaya where he performed various rituals, fasting unto death, and was emancipated. > SatrMah. II.595-605; Kanchansagarsuri pp. 14-15; Gunaratna Surishwar p. 65 about Suraj Kund. To the Indra of Saudharma who asked about the power of the river Setrumji, Mahavira described its enormous powers: the qualified souls who bathe there will make their way out of the world of rebirths. The 17 restorations of Shatrunjaya. This traditional topic when it comes to Shatrunjaya is treated at length, for instance, in Dhanesvara's Satrunjayamahatmya (Kanchansagarsuri pp. 17-21), or, more briefly, in Jinaprabhasuri's Satrunjayakalpa (37ff., 69ff.). Here it is dealt with very briefly, only in the form of a list, as a kind of reminder and summary. The first twelve restorations were made by kings who were contemporary to one or the other Jina. Hence they have been mentioned in the relevant sections of the preceding development: Restoration No. 1; cf. Section 1 No. 2; cf. Section 1 No. 3; cf. Section 1 No. 4; cf. Section 1 No. 5; cf. Section 1 No. 6; cf. Section 1 No. 7; cf. Section 2 No. 8; cf. Section 4 No. 9; cf. Section 8 3) 4) पटदर्शन 139 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. 10; cf. Section 16 No. 11; cf. Section 20 No. 12; cf. Section 22 The five others are ascribed to historical persons. They are not detailed in the present scroll. No. 13: Javada was a rich Jain merchant from Saurashtra. He was clever enough to gain influence and benefits from the political power, which enabled him to invest money for the restoration of Shatrunjaya. He honoured Cakresvari. Along with Vajrasvami he and his party reached the hill, They worshipped Shatrunjaya and installed a new image of Lord Adinatha. Javada and his wife died on the hill and became emancipated. This event is ascribed to ca. 105. No. 14: This restoration happened in V.S. 1213 at the time of King Kumarapala and Hemacandra. Bahada was a minister of the king, and the son of the minister Udayana. He started converting the wooden temples of Shatrunjaya into stone temples. No. 15; This restoration happened in V.S. 1371 under the guidance of Siddhasenasuri who had described the glory of Shatrunjaya and the preceding 14 restorations. Samarasaha, who was instrumental in this process, received a written permission from the Mughal power to be allowed to restore Shatrunjaya. No. 16: This happened in V.S. 1587 under the leadership of Karmasah, the youngest son of the wealthy Tolasah from Chittor. He was able to gain the favour of Prince Bahadurkhan and received from him a written permission to renovate Shatrunjaya. He managed to get the state tax on pilgrims abolished. No. 17: This is presented as a coming event, not as something already realized, as it is in Dhanesvara's Satrunjayamahatmya (XV.224) or Jinaprabhasuri's Satrunjayakalpa (39): it will be done by king Vimalavahana following the advice of the teacher Dupasaha. The 21 names of Shatrunjaya. As it is said in Dhanesvarasuri's Satrunjayamahatmya (I. 333-335) the hill is known by 108 names, an auspicious number among all which well applies to anything endowed with sacredness. Yet, Dhanesvara gives a shorter list of 23 names. On the other hand, the tradition has established itself that there are 21 main names for the hill; see, for instance, Satr Kalpa 5-8 (Chojnacki 1991: n. 8 p. 116 for some other references; Tod p. 277). They are part of the "21 Khamasamanas" recitations composed by various religious teachers (see Virvijaya quoted in Kanchansagarsuri (1982) p. 28 or Gunaratna Surishwar 21 Khamasamnas of Kartik Poonam"). There is such a vast range of names that it is no wonder that the selections of 21 can vary. A comparison of the present list with other hymns would show that there are some names which are found in all lists, while others might be different. 2. The colophon 5) End of the scroll on Siddhacala. In the year Vikrama Samvat 1859, in the course of the year Saka 1725, the 'second day of the dark fortnight of the month of Posa Magasira, in Agastapura, with the favour of Sumatinatha, this scroll for the reading of Pam. Kesaravije, homage to him 1008 times. 140 पटदर्शन Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. The paintings Although the textual portions of the Ladnun pata contain a reasonable wealth of narrative material and episodes starring various characters, the iconography is one-sided in tune with the general perspective: the 24 Jinas are the only ones to be depicted, each in turn. Thus the paintings have nothing to do with The Ladnun pata has 24 illustrations of each of the 24 Tirthamkaras in connection with its depiction and celebration of Siddhacala. Each of the Jinas is seated in padmasana inside a temple-structure, a garbhagrha or under a canopy (chattra like). All the Jina images do not have the same size. Some (of the intermediate Jinas) are smaller. They all have their eyes open. Some of them are adorned with a garland, or/and a necklace in the usual Svetambara style. They also wear a red tilaka. Each of the painting is located in a rectangle which immediately precedes the section of the text where the given Jina is going to be celebrated. of a Jain temple with a richly colored roof, in red, orange and yellow with ornamental motives. The first Jina, Rsabha, easily recognizable through his cognizance, the white bull, is seated in padmasana. The painting conveys an atmosphere of exuberant joy. An equally colorful dhvaja in bright red is floating in the wind. Small bells, one easily imagines tinkling, are attached to it. A goddess-like figure dressed in colorful clothes is seen flying above the temple. It has features of an angel, having kinds of wings. Could it be Cakresvaridevi, the yaksi of the first Jina, Rsabhanatha? This painting stands out as the largest and the brightest. The lanchana or characteristic symbol associated which each of the 24 Jinas is not systematically represented on the scroll. It is found only in the five following cases: * the bull for the first Jina, Rsabha, * the elephant for the second Jina, Ajitanatha, the moon crescent for the eighth, Candraprabha, * the conch for the twenty-second, Neminatha, and the snake, for the twenty-third, Parsvanatha. In some other cases, the space for depicting the lanchana has been prepared below the Jina's throne, but has remained empty (No. 9, 10, 11, 12, 15, 16, 19, 20, 21). The antiquity of the concept of lanchana has been discussed by art historians, such as U.P. Shah. It does not seem to be attested in the oldest Jina images. However, from the 12th century onwards, the lists of lanchanas appear to have become fixed. They are enumerated, for instance, in Hemacandra's Abhidhanacintamani, one of the standard sources for the full list of lanchanas. The colors of the bodies of each Jina also fully correspond to the traditional complexions as given by the Abhidhanacintamani and other sources. They are not a matter of chance. The identifying marks of the Jinas found in the Ladnun painting can be summed up in the following chart and can be compared with the chart given, for instance, by U.P. Shah, Jaina Rupa-Mandana (Delhi, 1987), p. 84: ucata 141 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jina complexion Complexion and lamchana in text Lanchana painted bull elephant 1. Rsabha 2. Ajita Golden Golden 3. Sambhava (text: Sambhava) Golden 4. Abhinandana Golden 5. Sumati Golden 6. Padmaprabha Red kamcanavarnasarira gajalamchana kamcanavarna turamgalamchana, horse kamcanavarna kapilamchana, monkey kamcanavarnasarira kraumcalamchana, heron raktavarna padmalamchana, lotus svastikalamchana kamcanavarna svetavarna sasilamchana, moon svetavarna magaralamchana, crocodile kamcanavarna srivachalamchana kamcanavarnasarira khamdagalamchana, rhinoceros raktavarana mahisalamchana, 7. Suparsva 8. Candraprabha 9. Suvidhi Golden White White moon crescent 10. Sitala (text: Sitala) 11. Sreyamsa Golden Golden 12. Vasupujya Red bull 13. Vimala 14. Ananta Golden Golden 15. Dharma (text: Dharama) Golden 16. santi Golden 17. Kunthu (text: Kuntha) Golden 18. Ara Golden hemavarana suaralamchana, pig kamcanavarna simcanolamchana, falcon kamcanavarnah vajralamchana, thunderbolt kamcanavarna mrgalamchana, antelope kamcanavarnasarira chamgalamchana, goat kamcanavarna nandavarttalamchana nilavarna kumbhalamchana, pot krsnavarna kurmalamchana, tortoise kamcanavarna padamalamchana, lotus krsnavarna samkhalamchana, conch nilavarna nagalamchana, snake (lion) 19. Malli 20. Munisuvrata Green Blue 21. Nami Golden 22. Nemi Blue/grey conch snake 23. Parsva 24. Mahavira Green Golden 142 - पटदर्शन Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ As it often happens, nila and krsna are not clearly distinguished and can be represented as green, blue, or blue/grey. Five Jina images (No. 2-6) are represented flanked on each side by devotees. They are laymen and laywomen (sravaka and sravika) who are holding fly-whisk or implements for worship (ladle containing water or some other liquid for ritual aspersion, flower garland, recipient of some kind). On the left of * Abhinandana (No. 4), the devotee is a Svetambara Jain monk, clothed in white robe and holding the monastic staff (danda). Sambhava (No. 3) is worshipped by a lady holding a fly-whisk, but the figure on the left may be a god (rather than a human being) as it is depicted with four hands. Padmaprabha (No. 6) is worshipped by two men who are kneeling down and appear as Saiva devotees: they are wearing a cloth which reminds of the goat-skin, and seem to hold a type of snake in their hands. Their hair-style is also typical of Hindu ascetics. When the Jina is alone, the image can be set within a natural landscape: Suparsva (No. 7) is flanked on each side by two large trees. On both sides of the image of Vimala (No. 13) are nice panels adorned with sophisticated floral motives in the Mughal style. Ananta's image (No. 14) is surrounded by pillars. In some cases, the Jina image is alone in the centre, but there is some blank space on the left and on the right. It is possible that this blank space was meant to be occupied by figures of devotees, which have not been painted (see Dharma, Ara, Nami, Nemi and Parsva). As for Rsabha, although he is not flanked by devotees, the performance of worship is suggested by implements located on his right and left side. The paintings have been executed with care and are lively. The individual paintings are surrounded by richly colored floral borders which are present all along the scroll, or separated from the text portions by red or yellow lines. Abhinandana's image (No. 4) is set on a nice green background which matches the floral border where green flowers are also seen. The figures of the devotees are lively and realistic. The depiction of their costumes shows variety and precision. The prevalent atmosphere is one of joy and celebration to the Jinas. The feeling of deep and exuberant worship is conveyed both by the paintings and the text. References TEXTS Jaina Ratna Samgraha (Gujarati) collected by Srimati Panabai, Bhavnagar, 1931. Pravac. = Nemicandrasuri, Pravacanasaroddhara with Siddhasenasuri's commentary. Ed. Muni Padmasenavijaya, Muni Municandravijaya. Prathama-khandah. Bharatiya Prayatattva Prakasan Samiti, Pindavada, 1979. With Gujarati translation by Munirajasri Amitayasavijayaji Maharaja. Sri siva Jain Sve. Murtipujak Samgha, Siva, Mumbai, 1992. - With Hindi translation by Sadhvi Hemaprabhasri, Prakrit Bharati Academy, Jaipur, 1999. SatrKalpa (reference to the verse number) = Jinaprabhasuri, Satrunjayakalpa (No. 1) in Vividhatirthakalpa. Ed. Muni Jinavijaya, Shantiniketan, 1934 (Singhi Jain Series 10). - Hindi translation by Agarchand Bh. Nahata, Sri Jaina Svetambara Nakoda Parsvanatha Tirtha, 1978 (cf. also Dr. Shivaprasad, Jain tirthom ka aitihasik adhyayan, Varanasi, 1991; Parshvanath Vidyashram Granthamala 56, based on Jinaprabhasuri's work) - Gujarati translation: Sri Jinaprabhasuri viracita sacitra Vividhatirthakalpa transl. by Muni Ratnatraya Vijaya & Muni पटदर्शन - 143 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ratnajyoti Vijaya. Jalor, V.S. 2056.- English translation by John E. Cort in Ph. Granoff (ed.), The Clever Adulteress, Oakville, 1990, pp. 246-251 - French annotated translation by Christine Chojnacki, pp. 113-141 in Vividhatirthakalpah. Regards sur le lieu saint jaina, vol. I, Pondichery, 1991 (Publications du Departement d'Indologie 85). SatrMah. (reference to the chapter and verses) = Dhanesvarasuri, Satrunjayamahatmya, printed in Ahmedabad, V.S. 1995 (also publ. Hiralal Hamsaraj, Jamnagar, 1908). - A. Weber, Ueber das Satrunjaya Mahatmyam. 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Ajitaji 4 Ajitanatha 2 Anantanatha 13 Abhinandana 4 Ayodhya (place) 2 Aranatha 18 Arista 15 Astapada 2 Asuchuim (place) 1 Isana 24 Ulakhajhola (place) 2 Rsabhadeva 1, 16, 24 Kandurajarisi 24 Kadambagiri (place) 1 Kadambarisi 1 Karakandu 24 Karmasa 24 Kastubha 11 Kartika sudi purnima 1 Kasamira (place) 4 Kunthunatha 17 Kuradesa (place) 16 Kusama-udyana (place) 16 Kusumavana (place) 1 Krsnamorari 22 Kevalajnani 1 Kesaravije, col. Kailasagiri (place) 24 Gamga (place) 1, 2 Giranara (place) 1, 22 Cakrayudha 16, 24 Candaraja 20 Candrajasa 24 Candraprabhu 1, 8 Candravana (place) 1 Candrasekhara 4; 8 Candrodyana (place) 8 Camara 5 Campa (place)12 Carcagiri (place) 1 Carca 1 Index of proper names (reference to the section number, 1-24) Caitripurnima 1 Jasa 14 Jasah 6 Javada-Bhavada 24 Jitasatru 4 Jinakumara 2 Junagadha (place) 24 Taladhvaja (place) 1 Taleti (place) 22 Tapi 5 Dandabirja 24 Dina 8 Dupasaha acarya 24 Drdhasakti (place) 24 Dravanaji 1 Dravida 1 Dhanvantari 1 Dharani 12 Dharmanatha 15 Dharani 11 Nanda 10 Naminatha 21 Nami-Vinami 1 Narada 22 Nirvani 1 Nilayagiri (place) 17 Neminatha 1, 22 Padmaprabhu 6 Padmavati 14 Parvendra (place) 24 Pandava 22, 24 Patalamula (place) 24 Parsvanatha 23 Pundarika 1, 4 Pundarikagiri, -parvata (place) 7, 10, 12, 13, 14, 16, 24 Punyarasi (place) 24 Puspadanta (place) 24 Prathavipitha (place) 24 Pradomana 22 Premalalachi 20 Phaguna sudi dasama 1 Phalguna 2 Barada-parvata (place) 1 Baraha 9 Carudatta 3 UCGFG 145 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bahadade mantri 24 Bahubalagiri (place) 17 Bahubala-tumka (place) 1 Bahubali 1 Brahmendra 24 Bhagiratha 2 Bharata 1, 16, 20, 24 Bhuvanapati 2, 24 Makaradhvaja 20 Mandira 13 Mallinatha 19 Mahagiri 24 Mahatirtha (place) 24 Mahapadma (place) 24 Mahavideha 24 Mahipala 24 Mahendra 24 Muktigiri (place) 2, 8, 17, 24 Muktilaya (place) 24 Munisuvrata 20 Mrgadhvaja 4 Rati 6 Ramacandra 20, 24 Rayana (tree) 1 Laksmivana (place) 1 Vajranabha 4 Varada 1 Vardhamanasvami 24 Varisena 1 Varuni 9 Vasupujya 12 Vidharbha 7 Vimalagiri (place) 10, 12, 13, 15, 16, 20, 22, 23, 24 Vimalanatha 13 Vimalapura (place) 4, 20 Vimalacala (place) 1, 2, 5, 6, 9, 11, 14, 15, 18, 24 Vimaladri (place) 7 Vimalavahana 24 Viramati 20 Virasvami 24 Vyantara 24 Satrumjaya (Setrumja) (place) 5, 24 Santinatha 16 Sarada 1 Sitalanatha 10 Sukarajan 4 Syamya 3 Sripada (place) 24 Srimandhara 24 Sreyamsanatha 11 Saktisiha 1 Sagaracakravartin 2, 24 Satudi (place) 1 Samaramga 24 Sambhavanatha 3 Sammetasikhara (place) 1, 2, 4, 5, 6, 7, 9, 10, 11, 13, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 23 Sarvakamada (place) 24 Samba 22 Samma 7 Sarasi 4 Sasvato (place) 24 Simha-udyana (place) 16 Simhavana (place) 16 Simhasena 2 Siddhaksetra (place) 24 Siddhagiri (place) 13, 19 Siddhacala (place) 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 23, 24, col. Siddhadriparvata (place) 1, 2, 7, 9, 12 Sivanata 20 Sivamala 20 Sujasa 10 Sudharma 1, 2, 4, 24 Suparsva 7 Subhadra (place) 24 Sumatinatha 5, col. Sumana 8 Suragiri (place) 24 Suryakunda (place) 20, 24 Suryavana (place) 20 Suvidhinatha 9 Susena 1 Surya-udyana (place) 20 Suryavana (place) 1 Setrumji nadi (place) 1, 24 Soratthadesa (place) 1, 24 Saudharma 24 Svastika-devata 2 Hamsavatara (place) 1 Hamsi 4 Hastikalpa (place) 1 Hastinagapura (place) 1, 16, 22 146 पटदर्शन Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr. Kalpana K. Sheth got her PhD from Ahmedabad Gujarat University under the supervision of the late H.C. Bhayani, a top scholar of Prakrit and Gujarati. She has published several books and articles. Few books as co-editor with late D.Lit. H.C. Bhayani. She has translated Jain canons and narrative literature in Gujarati, Hindi and English. She has worked on cataloguing various manuscript collections in India and abroad (United Kingdom, Italy). She is currently engaged in the project Vardhaman Jinaratnakosha, sponsored by the Jain Vishva Bharati University, Ladnun, and has organized several workshops there. Prof. Dr. Nalini Balbir teaches Sanskrit, Prakrit and Jainism at the University of Paris-3 Sorbonne-Nouvelle (France). She has published several books and articles, dealing especially with Jain narrative literature and early commentaries (such as the Avasyaka-niryukti and curni), see www.iran-inde.cnrs.fr. Among other projects, she is currently engaged in cataloguing various Jain manuscript collections. Part of her studies took place at the L.D. Institute of Indology, Ahmedabad, where Dr. Kanubhai V. Sheth was the head of the manuscript department. Nalini Balbir, Kanubhai V. Sheth and Kalpana K. Sheth have published together the Catalogue of the Jaina Manuscripts of the British Library (Institute of Jainology & British Library, 2006, 3 volumes). Serving Jin Shasan gyanmandirikobatirth.org