________________ तिहां बरडा राक्षसने सोरट्ठ देसनो अधिष्टायक थाप्यो। तिहांथी भरतराजा आंसू ई आव्या, तिहां परमेश्वरनो प्रसाद कराव्यो। तिहांथी समेतसीखरें आव्या। तिहां परमेश्वरना परसाद कराव्या। इंम अनेक भरतराजाई तिर्थ थापना कीधी। प्रथम उधार भरत राजानोः। नमो सिधचल नमोनमः / 11 / / ए श्री सिद्धाचल वर्तमान चोवीसिंइं श्रीऋषभनो पुत्र द्रवणजी, तेहना बे पुत्र द्राविड-वारिषेल। ते बिहू भाई राज्यनें अर्थे कलेस करतां थका, चोमासुं आव्यु, तिवारें संग्राममां दस कोडि माणस क्षय थयुं। तेहवें सरद रीतु आवी, तिहां गंगातिरे तापसना उडवडा छे, तापस गुरुनें पगे लागवा गया। तापसना मुखथी वाणी सांभलि, प्रतिबोध पामी बे भाई तापस दस कोडि संघातें थया, ते वननें वीषे चारण मुनि आवी समोसस्यां। तिहां चारण मुनिना मुखथी श्री सिद्धाचलजीनुं माहतम सांभलि चारण मुनिना मुख थकी श्रीसिधाचलजी, माहतम सांभलि चारणमुनि संघातें श्री सिद्धाचलजीइं आव्या। आवतां मार्गमां घणा हंस एक तलावनें कांठे एकट्ठा थया छ। ते मध्ये एक वृध हंस सक्तिई मंद छे, ते तीहां रह्यो छे। बिजा सर्व मनूषनो पगरवो सांभलिने उडि गया। ते वृद्ध हंस छेलि अवस्ताई आव्यो। तेहने मुनिइं पाणि पाउं। तिहाथी हंसने साथे लीधो। ते हंसने सिद्धाचलजी उपरें अणसण कराव्यु। ते अणसण आराधीने आठमें देवलोकें देवता थयो। तिहांथी अवधिज्ञाने जोउं। श्री सिधाचलजीनो उपगार जाणी, श्री सिधाजलजी आवी नवो प्रसाद कराव्यो। तदाकालथी हंसावतार एहव नामें तिर्थ प्रवा। ते सिधाचलजीनो महात्तम देखी, चारण मुनि पासे चारित्र लेई सिद्धाचलजी उपरें अणसण करी कार्तिक शूदि पूनिम दिनें दसकोडि संघाते श्रीसिद्धाचलजी उपरें मोक्ष गया। नमोस्तुः श्री सिद्धांचलः, विमलाचलाय नमः। इति श्री ऋषभदेवनो वर्णव संपुर्णः। श्रीः / श्रीः / हिन्दी अनुवाद 1. ऋषभदेवजी श्री ऋषभदेवजी को नमस्कार। श्री सरस्वती-शारदा देवी को नमस्कार। श्री पुंडरीक गणधर को नमस्कार। श्री विमलाचल तीर्थ पर अतीत काल में अनंत भव्य जीवों ने आठ कर्मों का क्षय करके निरावरण रत्नत्रयी-केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलचारित्र इत्यादि अनेक गुण प्रकाशित करते हुए सिद्ध पद प्राप्त किया था, करते हैं और करते रहेंगे। वर्तमान चौबीसी में ऋषभदेव भगवान ने अव्याबाद्य सुख के लिए भव्य जीवों को सिद्धाचलजी का माहात्म्य प्ररूपित किया है। ऋषभदेवजी अशरण के लिए शरण-आश्रय स्वरूप, भव-भय हर्ता, भव्य जीवों को संसार समुद्र से तारने के लिए नाव के समान हैं। अज्ञान रूपी तिमिर को मिटाने के लिए सूर्य के समान है, भवरूप अटवी पार कराने के लिए सार्थ समान है। कर्म रूप रोग का निवारण करने धनवंतरी वैद्य समाय है। कषाय रूप अग्नि शांत करने पुष्करावर्त मेघ समान है। भगवान ऋषभदेव पृथ्वी को पवित्र करने के लिए, जीव रूप कमल को सुविकसित करते हए, भव्य जीवों को धर्मवाणी से प्रकाशित करते हुए अपने 84 गणधर, 84 हजार मुनिराज और समस्त चतुर्विध संघ परिवार के साथ सिद्धाचलजी पर पधारे उस समय चार निकाय के देव, चौसठ इन्द्र सब एकत्रित हुए। श्री ऋषभदेव स्वामी ने अपनी देशना में सिद्धाचलजी का माहात्म्य प्ररूपित किया। उस श्री सिद्धाचल के माहात्म्य को सुनकर उन अनेक जीवों ने परमानंद को प्राप्त किया। परमेश्वर का बहमान किया तथा अपनी भव्य जीवों को परम पद प्रदान करने वाला स्थान शत्रुजय हैं। आत्म पूछा। वे भव्य जीव ऋषभदेवजी की वाणी से प्रतिबोधित होकर स्वयं शरीर से निर्मोही बनकर, संसार त्याग करके, चारों प्रकार | के आहार त्याग-अनशन व्रत अंगीकार करके, सकल कर्म क्षय कर अजरामर-सुख-मोक्ष प्राप्त किया। अनुक्रम में विचरण करते अतीत काल में श्रीऋषभदेव सिद्धाचल पधारें। प्रथम गणधर पुंडरीकजी ने प्रभु से सिद्धाचल की। महिमा पूछी। प्रभु ने निर्देशित किया कि आपके आत्मा की सिद्धि यहां इसी स्थान पर है। पुंडरीक ने अपने अन्य पांच करोड़ - पटदर्शन