________________ मुनियों के साथ अनशन व्रत के साथ एक मास की संलेखना से अपने समग्र कर्मों का क्षय किया और चैत्रमास की पूर्णिमा के दिन मोक्ष प्राप्त किया, तभी से उसी स्थान ने पुंडरीकतीर्थ नाम अभिधारण किया। भरत चक्रवर्ती ने चतुर्विध संघ के साथ सिद्धाचलजी की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में केवलज्ञानी नामक परमेश्वरजी के पादुका और कुंड जीर्ण देखे। उन्होंने इंद्र महाराज को पादुका और कुंड के जीर्णत्व के बारे में पूछा। सौधर्म इन्द्र ने निराकरण करते हुए निर्देशित किया, "यह अतीत चौबीसी के केवलज्ञानी नामक तीर्थंकर की पादुका और कुंड है, जिससे जीर्ण है।" भरत चक्रवर्ती ने उसका पुनरोद्धार किया, तभी से यह कुंड भरतकुंड नाम से प्रचलित है। अनुक्रम में वहां से प्रस्थान करते ऋषभदेवजी के नये मन्दिर का निर्माण करवाया और वहां पुंडरीक गणधरजी की स्थापना की। रायण (राजद) वृक्ष नीचे ऋषभदेवजी की पादुका का यथोचित विधि-विधान से स्थापन किया। वहां नमिविनमि विद्याधर मुनियों ने भरत राजा से निवेदन किया कि ऋषभदेवजी ने हमें अपने आत्मोद्धार के लिये यहां रहने का आदेश दिया है, तभी राजा भरत ने भी अपनी स्वीकृति दे दी। दोनों राजेन्द्र मुनियों ने दो मास की संलेखना के बाद फाल्गुन सुदी दशम के दिन दो करोड़ मुनियों के साथ सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त किया। राजा भरत शत्रुजय नदी पहुंचे। वहां विधिवत् सान किया। नदी की चारों दिशाओं में चार वन हैं। पूर्व दिशा में सूर्यवन, पश्चिम दिशा में चंद्रवन, दक्षिणा दिशा में लक्ष्मीवन और उत्तर दिशा में कुसुमवन। चारें वनों का सौन्दर्यपान करते हुए आगे एक तापस को अकेला देखा। भरतजी ने उससेह्न "अकेला क्यों बैठा है?" इस विषयक पूछा। तापस ने दर्शाया कि ऋषभदेवजी ने आदेश दिया है, "आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु के शासन में यहां से ही मैं सिद्ध पद प्राप्त करूंगा। इसलिए मैं यहां हूं।" भरत राजा ने वहां चंद्रप्रभुजी के प्रासाद का निर्माण कार्य किया। थोड़े आगे नमी-विनमी विद्याधर की कनक-चर्चा इत्यादि 64 पुत्रियों ने अनशन व्रत ग्रहण करके वहीं से मोक्ष प्राप्त किया है। अन्य मतानुसार वहां देवांगना हुई है। चक्रवर्ती भरत ने उनका स्थापना कार्य किया। तभी से यह स्थान चर्चगिरि नाम से प्रचलित है। आगे चलकर गिरि शिखर पहुंचे। भरत नृप शक्तिसिंह तापस से मिले। नृप भरत ने शक्तिसिंह से शिखर विषयक पूछा। शक्तिसिंह ने दर्शाया कि अतीत काल के दूसरे निर्वाण नाम के तीर्थंकर के शिष्य कदंब ऋषि ने सपिरवार इसी स्थान से अपने समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्धत्व प्राप्त किया है। तभी से यह शिखर 'कदंबगिरि' नाम से सुविख्यात है। आगे चलकर एक टोक पहुंचे। शक्तिसिंह ने उसी का नाम तलाध्वज गिरि दर्शाया। मुनि बाहुबलीजी ने इसी स्थान से मोक्ष पद प्राप्त किया था, जिससे आज वह 'बाहुबल टोक' नाम से प्रचलित है। वहां से उसी स्थान पहुंचे, जहां से चक्रवर्ती भरत उत्तरषट्खंड विजयी घोषित हुए थे। मलेच्छ नृप ने वहां रोग का उपद्रव फैलाया था, जिससे अनेक लोगों ने मृत्यु प्राप्त की थी। भरत राजा ने चारण मुनि से इस विषयक वार्ता की। चारण मुनि ने कहा कि, "यह रोग मलेच्छों ने फैलाया है। मगर इस नदी के पानी के स्पर्श मात्र से यह सभी रोग दूर हो जायेंगे।'' इससे समग्र सैन्य और प्रजा उसी पानी से निरोगी-स्वस्थ हो गये। भरत राजा के एक हाथी ने वहां से काल प्राप्त किया तो भरत राजा ने वहां हस्तिनागपुर नामक गांव प्रस्थापित किया और उसी में ऋषभदेवजी के मंदिर का निर्माण कार्य किया, जिससे हस्तिकल्प तीर्थ नामक तीर्थ की स्थापना हुई। अनुक्रम में गिरनार पर्वत पहुंचे। वहां नेमि जिन के तीन कल्याणक हैं। वहां नेमि जिन के प्रासाद का निर्माण कार्य करवाया। वहां चारों दिशाओं में चार पर्वत हैं। वहां भी चार मंदिर का निर्माण करवाया। वहां एक बरडा नामक पर्वत है। जो बरडा राक्षस का निवास स्थान है। वह राक्षस प्रजाजन, संघ को उपद्रव-अत्याचार से परेशान कर रहा था। किसी से अंकुशित नहीं हो रहा था। नृप भरत ने अपने सुषेण नामक सेनापति को भेजा। सुषेण ने बरडा को पराजित किया। भरत नृप ने उसे प्रतिबोधित करते हुए सम्यक्त्व प्राप्त करवाया। जिससे नृप भरत ने उसी स्थान को राक्षस की स्मृति में बरडागिरि नामकरण दे दिया। बरडा पटदर्शन