________________ पूर्व श्रुकराजाने पाछलें भवें जितशत्रु राजा। च्यार आहारनो अभिग्रह लीधो। श्री सिद्धाचलजी भेटुं तिवारें अ(आ)आहार करूं एहवा अभिग्रह सहित, आचार्ज सहित, चतुर्विध संघ सहित, पगें हिंडतां श्री सिद्धाचलजीनी जात्राइं निकल्या। मार्गे आवतां आवतां कासमीर देसनी अटवी आवी। एहवें शरीरनो धर्म तो पुद्गलिक छ। राजानु सरीर अन-पांणि विना अटकुं। तिवारें सर्व संघे, लोकें मलिं राजानें कहें, "अभिग्रहः मुको, पारणुं करो।" जिनमत बे प्रकारे छे, 'एक उत्सर्ग अने बीजो अपवाद' एहवू संघना मुखथी सांभली राजानूं मन लगार मात्रा डग्युं नहीं। तिवारे सर्व संघ चंतातुर थयो। एहवें सुर्ज तो अस्त थयो। रात्रा पडि, सर्वे सूई रह्या। एहवें कवडजक्ष आवी आचार्यने सुप(न) दीर्छ, प्रधानने सुपन दीर्छ। च्यार अधिकारि पुरुषनें सुपनें दिधुं। दिन प्रहर एक चढ्यो। श्री सिद्धाचलजीनां दर्शन हुं सर्वने करावीस। प्रभातें सर्व जाग्यां। हर्ष पाम्यां। उछाह थयो। संघ तिहांथी उपड्यो। दिन प्रहर एक जेतलें थयो, तितले कवडजः कासमीर देसनी सेमनें विर्षे नवो श्री सिधाचल प्रगट किधा। सर्व संघ लोकेः राजा प्रमुखें जात्रा करी। अभिग्रह पूरो थयो। तिहांथी श्री श्री संघ वेराणो / हवें जितसत्रु राजा प्रभु दर्शन करें, पाछो बाहर निकलें / इम सात-आठ वार राजा गया-आव्या। तिवारें प्रधान कहे, "स्वामि! इहां रहो।" तिवारें राजा कहे, "तुमें कहो तो अमे इहां रहेसुं।" इम कहिने राजा तिहां रह्यां। विमलपुर नगर वसावू। तिहां राजा अने हंसि नामा स्त्रि अने बीजी सारसी नामा स्त्री अने हंसा नाम प्रधान ए त्राणे तिहां रह्यां। परमेश्वरजीनी पुजा करें। एहवें एक सुडो आव्यो। रुपे रुडो देखी राजाने प्रिय लागो। इंम करतां केतला एक दिवस थया तिवारें राजानें अंत अवस्ता आवी। तिवारें राजांइ श्रीसीधाचलजी उपरें अणसण करयूं। हंसिनें सारसी ए में स्त्रिओ राजानें नीसामें छे। देहरा मांहें वननें विर्षे सुडो छ। एहवें राजानुं धान सुडामां गयु। तिवारें राजाने तीर्जच आयुं बांधाणु। ते राजा मेरिने सुडो थयो अने हंसी अने सारसी बे स्त्रीओ वैराग्य पांमी चारित्रा लेइनें काल करीने सोधर्म देवलोके देवता थया। ते अवधि अणसण करीने देवता थया। ते अवधिज्ञानें जोयुं। पोताना भरतारने सुडानो अवतार जांणी सुडाने प्रतिबोध दिधो। सूडे पण देवंगनाना मुखथी पोतानूं स्वरूप जांणी अणसण करी सौधर्म देवलोकें देवता थयो। ति जितसत्रु राजानो जीव मृगध्वज राजानो पुत्र श्रुकराज नामें थयो। तें शुक राजं द्रव्यथी घणा सत्रुनें जिति पोतानूं राज्य लीधुं। ते दिवसथी ए तीर्थनूं नाम सेत्रुजय प्रगट थयुं। बलि भव वयरी जे रागद्वेष तेहने जीती निर्वाण पद वरया। ते माटे सेंचुंजय तिर्थ कहीइं। ए तीर्थने विषे चंद्रसेखर नामें राजा। ए तीर्थना दर्शन करीनें मुनि आगले पोताना प्रायश्चित आलोवण लेईने, संजम लेईनें अणसण करी राजा मुगतें गयो / श्री अभिनंदनप्रभा(भु)ने वज्रनाभ प्रमुख 116 सोल गणधर, साधु त्रिण लाख, अजितजी प्रमुख छ लाख छत्रिस हजा(र) साधवी, बे लाख अठ्ठावीस हजार श्रावक, पांच लाख सत्तावीस हजार श्राविका, एक हजार पुरुष साथे दिक्षा लीधी। साढा त्रिणसें धनूंष देहमान, पचास लाख पुर्व नूं आउ, कंचन वर्ण, कपिलंछन, हजार मुनीराज संघाते अणसण करी श्री समेतसिखरें सिध पदने वरया। एहवां श्री अभिनंदन स्वामिने नमस्कार करूं छु। नमोस्तु श्री सिद्धाचलाय नमोनमः।4। श्री श्रीः हिन्दी अनुवाद 4. अभिनंदन स्वामीजी अभिनंदन प्रभु सिद्धाचल पधारे। देवता ने समवसरण की रचना की। प्रभु ने धर्मदेशना में सिद्धाचल तीर्थ का माहात्म्य प्रदर्शित किया। तीनों काल अतीत, अनागत और वर्तमान में अनंत तीर्थंकर गणधर, आचार्य, साधु इत्यादि अनेक भव्य जीवों ने यहां से सिद्धपद प्राप्त किया है। ऋषभदेवजी के प्रथम गणधर पुंडरीकजी ने यहां से सिद्धपद प्राप्त किया है, जिससे यह तीर्थ पुंडरीकगिरि से प्रचलित है। अभिनंदन प्रभु के समय में इस तीर्थ का नाम शत्रुजय हुआ, इसकी कथा यहां निरुपित की गई है। जितशत्रुराजा ने शत्रुजय तीर्थ की महिमा सुनी। चतुर्विध संघ के साथ उन्होंने शत्रुजय तीर्थ की पदयात्रा शुरू की। उन्होंने अभिग्रह किया कि पटदर्शन