________________ पहुंचे। पारणे का दिन था। मनोमन प्रतिज्ञा की, "इस मासखमण का पारणा अभी तो यहीं करते हैं, मगर अगले मासखमण का पारणा नेमिनाथ प्रभु के सान्निध्य में ही करेंगे।" पारणा के लिए आहार ग्रहण किया। वापिस लौटते समय रास्ते में नेमिजिन के मोक्षगमन के समाचार सुने। शोकमग्न हुए। ग्रहण किया हुआ आहार कुंभकार के वहाँ छोड़ दिया। सिद्धाचलजी पहुंचे। वहां अनशन व्रत ग्रहण किया। अनुक्रम में माता कुंती के साथ घाती कर्मों का क्षय करके पांच पांडव बीस करोड़ मुनियों के साथ सिद्धपद-मोक्ष पहुंचे। 24. महावीर स्वामी करकंडू नृप यह कथा दो मित्रदेव के प्रश्नोत्तर रूप निरूपित की गई है। यहां शत्रुजय स्थित पुंडरीक पर्वत का माहात्म्य स्थापित किया गया है। सिद्धाचल तीर्थ पर महावीर प्रभु का समवसरण देवताओं द्वारा निर्मित किया गया। स्वर्गलोक से दो देवमित्र वहां प्रभु दर्शनार्थ आये। वहां रास्ते में उन्होंने एक मुनिराज को सूर्य आतापना लेते हुए देखा। एक मुनि ने दूसरे मुनि को, तपस्वी मुनि संबंधित अगर कुछ जानकारी है, उस बारे में पूछा। उस देव मुनि ने प्रत्युत्तर रूप में करकंडू नृप की कथा प्रारम्भ की। उसने कहा, "आज से सात दिन पूर्व मैं सीमंधर स्वामी के दर्शनार्थ महाविदेह क्षेत्र में गया था। वहां मैंने सुना कि दुष्ट, सप्त व्यसनी, अधम कृत्यकर्ता, प्रजापीडक करकंडू नामक नृप अपनी राज्यसभा में बैठा था। इसी समय कल्पवृक्ष का एक पत्ता वहीं राजसभा में गिरा, जिसमें श्लोक लिखा था धर्मादधिगतैश्चर्यो, धर्ममेव निहंति यः। कथं शुभायतिर्भावी, स स्वामिद्रोहपातको।। अर्थ- धर्म द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त करने वाले मनुष्य अगर स्वयं ही धर्म का नाश करता है, तो धर्मरूपी स्वामी द्रोह करने वाले पापाचरण करने वाले का भविष्य शुभ कैसे होगा? अर्थात् निश्चित वह मनुष्य अधोगति ही प्राप्त करेगा।" _श्लोक पढ़ते ही नृप कांपने लगा। उसे लगा कि यह मेरे लिए ही लिखा-भेजा गया है। वह स्वयं को ही कोसने, निंदा करने लगा। स्वकृत दुष्कृत्य नजर समक्ष चलचित्र की तरह दृश्यमान होने लगे। सब दिशाएं धुंधली-सी महसूस होने लगी। आत्मघात के सिवाय और कोई चारा ही न था, तो उसने आत्मघात करने का निश्चय कर लिया। रात्रि के अंधकार में वह अकेला ही नगर से निकलकर अटवी में निरन्तर चलता रहा, मगर आगे क्या करना है, कुछ निर्णय नहीं कर पाया। थका हुआ आम के वृक्ष तले विश्राम करने बैठा, और आत्मघात करने का तरीका सोचता रहा। उतने में यकायक एक गाय अपने सींग उंडेलती राजा के समक्ष आकर उस पर प्रहार करने दौड़ी। अकस्मात् वार से राजा की मति भ्रांत हो गई। आदतानुसार उसने अपना खड़ग निकाला और गाय पर प्रहार किया तो गाय दो टुकड़ों में विभाजित हो गई। तब उसमें से एक शृंगारित नवयौवना राजा के प्रत्यक्ष दृश्यमान हुई। उसने नृप को ललकारा, "अरे दुष्ट! एक अबोलदुर्बल पशु गाय की हत्या करके तूने गौहत्या का पाप क्यों अपने सिर पर लिया? क्षत्रिय कभी दुर्बल-असहाय पर वार नहीं करते। अगर तू पराक्रमी क्षत्रिय है तो मेरे साथ युद्ध कर।" एक स्त्री के ऐसे ललकार युक्त वचन सुनते ही नृप का क्षत्रियत्व जागृत हो उठा। वह अपनी खड्ग निकालकर स्त्री पर वार करने दौड़ा। मगर स्त्री ने उसे पराजित कर दिया और तत्क्षण ही वह जमीन पर गिर पड़ा। स्त्री ने हंसी करते हुए कहा, "कहां गया तेरा क्षत्रियत्व? तुझमें क्या कोई शौर्य है?" एक अबला के ऐसा विजयी व्यंग्य से अभिमानी नृप तिलमिला उठा। उसने फिर से स्त्री पर वार करने का सोचा मगर उठ ही नहीं पाया। क्या हो -पटदर्शन 110 -