________________ समक्ष अपना प्रिय शुक था, जिससे तिर्यंच आयुबंध उत्पन्न हुआ। हंसी और सारसी दोनों धार्मिक, सात्त्विक थी। दोनों ने चारित्र ग्रहण किया, अनशन व्रत ग्रहण करके सौधर्म देवलोक में देव बने। अवधिज्ञान से अपने पूर्वपति को शुक स्वरूप देखा। उनको प्रतिबोधित किया। शुक ने भी अपने पूर्वजन्म की स्मृति से अनशन व्रताराधना की और देवलोक प्राप्त किया। जितशत्रु नृप का जीव मृगध्वज राजा के वहां शुकराज कुमार रूप उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने शौर्य पराक्रम और द्रव्य से अनेक शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। शुक राजा ने अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर चारित्र धर्म अंगीकार किया। अपने आंतरिक शत्रु कषाय-क्रोध-मान-माया-लोभ इत्यादि पर विजय प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त किया। उसी दिन से उस तीर्थ का नाम शत्रुजय (शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाला) प्रचलित हुआ। 16. शांतिनाथजिन संघपति पद महिमा यह कथा तीर्थयात्रा में संघपति पदवी - संघपति की महिमा को निरुपित करती है। शांतिनाथ प्रभु विचरण करते हस्तिनापुर नगरी पधारे। सेवक ने आकर प्रभु के शुभागमन के शुभ समाचार दिए। नृप चक्रधर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सेवक को पंचांग द्रव्य से प्रतिलाभित किया। पंचांग द्रव्य अर्थात् प्रदेश, शस्त्र, नाणां, वस्त्र और आहार। नृप चक्रधर-शांतिनाथ पुत्र भी वहां अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ प्रभु दर्शनार्थ आए। प्रभु ने तीर्थ महिमा प्ररूपित किया। प्रभु ने चतुर्विध संघ के साथ यात्रा का सविशेष माहात्म्य दर्शाया और संघपति पदवी और उनके कार्य पर प्रकाश डालते हुए कहा, "जो भव्यात्मा अनेक संघ को एकत्रित करके ग्राम, नगर और तीर्थ स्थान पर अवस्थित जिनमंदिर, तीर्थंकर देव की पूजा-अर्चना करता है, वह संघपति कहलाते हैं। उन्हें सामान्यतः निम्न पांच कार्य सविशेष रूप से करने हैं 1. महासान, 2. महापूजा, 3. दंडयुक्त ध्वजपूजा, 4. संघपूजा और 5. स्वामी वात्सल्य।" चक्रधर नृप भी संघ लेकर तीर्थयात्रा के लिए उत्सुक हुए। उन्होंने चतुर्विध संघ के साथ तीर्थयात्रा प्रयाण का मनोमन निश्चय कर लिया। उन्होंने प्रभु से संघपति पदवी के लिए विनती की। प्रभु ने मूक सहमति दे दी। इन्द्र पूर्ण सामग्री लेकर उपस्थित हुए। प्रभु ने इन्द्र द्वारा प्रस्तुत किये गये सुवर्णथाल में से अक्षत युक्त वासक्षेप और इंद्रमाल से चक्रधर को संघपति पदवी पर नियुक्त किया। चक्रधर नृप ने भी बड़ा उत्सव मनाया। घर वापिस लौटते ही उन्होंने विविध देशों के संघ को निमंत्रण दिया। अनेक स्थलों पर निमंत्रण पत्रिकाएं भेजी गई। अनेक आचार्य यथोचित मान-सन्मान के साथ संघ में सम्मिलित किए गए। हर्षोत्सव और महोत्सव की बड़ी धूमधाम से तैयारियां होने लगी। इस तरह यहां संघपति पद, उसके कार्य और माहात्म्य निरूपित किया गया है। सिंहउद्यान नामकरण विचरण करते हए शांतिनाथ प्रभु सिद्धाचल शत्रुजय के समीपवर्ती सिंहोद्यान में पधारे। वे तो अपनी ध्यानावस्था में मग्न थे। उन्हें देखते ही एक सिंह प्रभु की ओर वार करने झपका, लंबी छलांग लगाई मगर वह वापस लौट पड़ा। सफल न रहा। सोचा "मैं जल्दी में, आवेश में आ गया हूं, इससे शायद पीछे लौट पड़ा।" उसने दूसरी बार दुगुनी शक्ति से वार किया, फिर भी वही, स्वयं असफल रहा और वापिस लौट पड़ा। अब उसे पूर्ण विश्वास था कि उसकी कोई गलती नहीं है। वह गुस्से से तिलमिला उठा। मन में अनेक कषाय उत्पन्न हो गये। अपनी सर्वशक्ति समेटकर क्रोध से आकुल होकर वह मुनि पर वार करने उछला, मगर फिर भी निष्फलता। वह असमंजस में पड़ गया। सोचने लगा, "मेरी शक्ति में कोई असर नहीं है। निश्चय ही यह कोई महापुरुष, भव्यात्मा है, जिसकी मैंने विराधना की है। अब मेरी कौन-सी गति होगी? मैंने पाप कर्म बंध किया है।" 106 -पटदर्शन