________________ अकेला मेरा जीवनाधार है। लोगों की रक्षा के लिए तू गंगानदी के पास जा और ज्वलनप्रभदेवजी की सहायता और दंडरत्न से गंगानदी के मुख्य प्रवाह की दिशा बदल दे ताकि पृथ्वी को बचाया जा सके।" पितामह की आज्ञा शिरोधार्य कर भगीरथ अपने सैन्य के साथ चल पड़ा। अष्टापद पहुंचते ही पिता और चाचा की भस्म देखते ही शोकग्रस्त हो गया। पुनः स्वस्थ होकर ज्वलनप्रभ देव को आराधना से संतुष्ट किया। देव की सहायता से गंगा के उन्मार्गी दुःशक्य प्रवाह को दंडरत्न की सहायता से वैताढ्य पर्वत के नजदीक होकर गंगा नदी के मध्य में से मुख्य मार्ग की ओर प्रवाहित किया। सगर चक्रवर्ती संघ सहित सिद्धाचल पहुंचे। प्रसन्न होकर उन्होंने वहां आदिनाथ प्रभु का सात्र-पूजादिक महोत्सव किया। वहाँ इन्द्र भी उपस्थित हुए। उन्होंने सगरराज को अपने पूर्वजों की परम्परा-कर्त्तव्य का स्मरण करवाया चक्रवर्ती ने भी तीर्थोद्धार किया। उसी समय इन्द्र ने चक्रवर्ती को विनती युक्त स्वर में कहा, "हे चक्री! जिस तरह बिना सूर्य दिन, बिना पुत्र कुल, बिना जीव देह, बिना चक्षु मुख शोभित नहीं होता, ठीक उसी तरह बिना तीर्थ समग्र सृष्टि भूतल अर्थहीन है, निष्फल है। अष्टापद पर्वत का मार्ग अवरुद्ध हो गया है, तभी यह तीर्थ ही समग्र प्राणी जगत् के लिए तारक-उद्धारक है। मगर जो समुद्र के पानी से यह मार्ग अवरोधित होगा तो ऐसा अन्य कोई तीर्थ जगत् में नहीं है, जिससे जैनधर्म, तीर्थंकर देव सुरक्षित रह पाए। अगला काल तो अति विषम है, इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि आप समुद्र यहां ले आओ और उसे सुरक्षित करो।" भगीरथ भी गंगा को उचित स्वस्थान नियुक्त करके पितामह के पास आ पहुंचा। उन्होंने लवणदेव की आराधना की और वे प्रत्यक्ष हुए। उन्होंने स्वस्तिक देवता को आज्ञा दी कि समुद्र को सिद्धाचल द्वीप के पीछे की ओर ले आएं। स्वस्तिक देवता समुद्र लेकर उपस्थित हुए। इन्द्र ने समुद्र से अनुरोध किया कि समुद्र सिद्धाचल से बीस कोस की दूरी रखे। सगरचक्री ने भी समुद्र से बीस कोस दूर रहने की विनती की। लवणदेव ने उनकी इच्छा को स्वीकृति दी और तभी से समुद्र सिद्धाचल तीर्थ से बीस कोस अंतर पर स्थित बह रहा है। 4. अभिनन्दप्रभु शत्रुजय नामकरण उपर्युक्त कथानक तीर्थाधिराज शgजय के अर्थ की प्रतीति करवाता है। शत्रुजय अर्थात् शत्रु पर जय-विजय प्राप्त करना। यह कथा हमें भगवान अभिनंदन के समीप ले चलती है। अभिनंदन जिन के शासनकाल में मृगध्वज राजा के पुत्र शुकराजा जो पूर्वजन्म में जितशत्रु नामक नृप थे, उन्होंने आचार्य, चतुर्विध संघ के साथ शत्रुजय यात्रा-दर्शन के लिए प्रयाण किया। अभिग्रह किया कि शत्रुजय दर्शन के पश्चात् ही चारों प्रकार के आहार ग्रहण करूंगा। रास्ते में कश्मीर देश के घने जंगलों में पहुंचे। अन्न-पानी के अभाव से राजा के स्वास्थ्य पर विपरीत असर हुआ। संघ ने राजा को अभिग्रह भंग करके पारणाआहार ग्रहण करने का अनुरोध किया, फिर भी नृप तो अपने व्रत पर अडिग-दृढ़ रहे। सूर्यास्त का समय हो गया था। रात्रि के अंधकार में एक कवडयक्ष (कर्पदियक्ष) प्रगट हुआ। उसने राजा, प्रधान, आचार्य इत्यादि चार प्रधान पुरुषों को स्वप्न में सिद्धाचलजी के दर्शन के लिए अवगत करवाया। काश्मीर प्रदेश की बाहरी प्रदेश में यक्ष ने सिद्धाचलजी का निर्माण किया। जितशत्रु नृप ने अपने चतुर्विध संघ के साथ सिद्धाचलजी का दर्शन किया और अपना अभिग्रह पूर्ण हुआ। नृप ने संघ के साथ भगवान की पूजा-अर्चना यथोचित विधिपूर्वक सम्पन्न की। राजा सात-आठ बार मंदिर के अंदर-बाहर करते रहे। प्रधान ने नृप को उधर ही रुकने का सूचन किया। नृप ने सूचन का स्वीकार किया और वहां विमलपुर नामक गांव का निर्माण किया। नप को हंसी और सारसी नामक सात्विक पत्नियां थीं। सब प्रभु पूजा-भक्ति कर रहे थे। एक दिन एक सुन्दर शुक उधर आ पहुंचा। नृप को वह अति प्रिय हो गया। क्रमशः नृप वृद्ध हुए। उन्होंने सिद्धाचल पर अनशन व्रत आरम्भ किया। आंखों के पटदर्शन -105