SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भुवनपति के देवता क्रोधायमान हो उठे। फिर भी नागदेव ने सगर चक्रवर्ती के पुत्र और अष्टापद पर्वत की रक्षा का विषय जानकर अपने आपको अनुशासित करते हुए नम्र स्वर में विनती स्वरूप खाई बनाने से इनकार कर दिया। सगर पुत्रों ने भी कार्य स्थगित कर दिया। बाद में सबने मिलकर सोचा कि चारों ओर खाई तो बन गई है, मगर फिर भी कभी भी किसी समय में यह खाई मिट सकती है, तो अच्छा है कि उसे पानी से पूर्ण कर दी जाये, जिससे अच्छी तरह से सुरक्षा हो पाये। जिन्हकुमार रत्नदंड द्वारा समुद्र से गंगा नदी का प्रवाह इस ओर खींच लाया और खाई को पानी से भरने लगा। पानी के प्रवाह से नागदेवता के घर में पानी आने लगा और कहीं दीवारें टूटने लगी, तो नागदेवता के देव ज्वलनप्रभ नाग घबरा उठे। वे क्रोध से तिलमिला उठे। ज्वलनप्रभ ने सोचा, "ये चक्रवर्ती के पुत्र मूर्ख और राज्यपद से उन्मत्त हुए हैं। उनसे विनती की, फिर भी वे समझे नहीं, ऐसे अहंकारी धिक्कार पात्र हैं।" वे पाताल से बाहर आये और अपनी विषैली फुफ्कार से उन सभी पूरे साठ हजार को भस्मीभूत कर दिया। अपने स्वामी का घात देखते ही सैनिकगण घबरा उठे। सोचने लगे, "चक्रवर्ती ने अपने पुत्रों की जिम्मेदारी हमें सौंपी थी और हमारी नजर के सामने ही सब भस्मीभूत हो उठे तो अब हम उनके सामने क्या मुंह लेकर उपस्थित हो सकेंगे? बेहतर यही होगा कि हम सब ही अपनी जान अग्निदेव को न्यौछावर कर दें।" सौधर्म इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से यह जाना। दयालु-करुणाशील इन्द्र वृद्ध ब्राह्मण का वेश बनाकर उधर उपस्थित हुए। सैन्य को स्वयं का बलिदान न देने तथा नाश न करने हेतु समझाया। इन्द्र ने अपना स्वरूप प्रकट किया और चक्रवर्ती से भय नहीं रखने की सूचना करके, उन्हें अभयदान दिया। सेनापति को अयोध्या पहुंचने का आदेश देकर स्वयं वहां उपस्थित रहेंगे, ऐसा विश्वास दिलाया। इन्द्र ने सगर चक्रवर्ती के महल के सामने वृद्ध ब्राह्मण का स्वरूप बनाया और अपने कंधे पर मृतपुत्र का पिंड रखकर विलाप करने लगे। सगर चक्रवर्ती ने उस विलाप का कारण पूछा तब उसने दर्शाया कि, "मेरा इकलौता बेटा सर्पदंश से मृत्यु की ओर जा रहा है। मैंने अनेक उपाय किए हैं, फिर एक भी उपाय सफल नहीं हो पाया है। आप तो प्रजापालक चक्रवर्ती हैं। आप ही मेरे बेटे को आयु-जीवन प्रदान करें। अब एक ही उपाय बचा है। अगर आप मुझे कुमारी भस्म अर्थात् जिसके घर में पूर्व किसी ने भी मृत्यु प्राप्त न की हो, उपलब्ध करवा दें तो वह अवश्य नव-जीवन प्राप्त कर सकेगा। आपसे बस एक ही उम्मीद है।" चक्रवर्ती उस ब्राह्मण के साथ कुमारी-भस्म ढूंढने निकल पड़ा। पूरे शहर में खोजा, मगर कहीं से भी ऐसी भस्म उपलब्ध न करा पाया। उसे विश्वास था कि मेरे घर में तो कुमारी भस्म मिल जायेगी, और मैं अपना फर्ज ठीक से निभा पाऊंगा। वह अपनी माता के पास पहुंचा और कुमारी भस्म की मांग की। माता ने भी बताया कि हमारे घर की भस्म भी कुमारी नहीं है। हमारे घर के पूर्वज भी मृत्यु प्राप्त हुए हैं। यह सुनते ही इन्द्र दुगुने वेग से विलाप करने लगा। चक्रवर्ती भी विप्र को अनित्य भावना, वैराग्य वचन से धीरज दे रहे थे, प्रतिबोधित कर रहे थे। इन्द्र रूपी ब्राह्मण ने कहा, "हे राजन्! यह सब बातें समझाने-बोलने को आसान है, सरल है मगर जब स्वयं को सहना पड़े, तब वह बहुत ही दुष्कर है, कठिन है।" चक्रवर्ती ने कहा, "दोनों सरल हैं।" ऐसे वार्तालाप चल रहा था कि द्वारपाल ने आकर साठ हजार पुत्रों की मृत्यु का समाचार दिया। चक्रवर्ती शोकमग्न हो गये। ब्राह्मण ने अपना असली स्वरूप प्रत्यक्ष किया और इन्द्र स्वयं चक्रवर्ती को आश्वासन देते हुए समझाने लगे। उतने में ही एक सेवक ने अजितनाथ तीर्थंकर के आगमन का शुभ समाचार दिया। इन्द्र स्वयं चक्रवर्ती के साथ प्रभु के समवसरण में गये। प्रभु ने अपनी देशना में चक्रवर्ती को संसार का असली स्वरूप बताया। उन्होंने सिद्धाचलजी तीर्थ का माहात्म्य बताया। तीर्थंकर की देशना श्रवण कर चक्रवर्ती प्रसन्न हुए। उन्होंने सिद्धाचलजी तीर्थयात्रा का निश्चय कर लिया। संघ यात्रा के लिए प्रयाण करने वाले थे, उतने में एक दूत उपस्थित हुआ। उसने निवेदन किया कि अष्टापद गिरि चौतरफ पानी से पूर्ण हो गया है और ऊपर से बहता हुआ पानी आस-पास के प्रदेश को नुकसान कर रहा है प्रलयकाल के समुद्र की तरह वृद्धिंगत होकर पृथ्वीतल को डूबो रहा है। सगर चक्रवर्ती ने जन्हु के पुत्र भगीरथ को बुलाया, अपने उत्संग मैं बिठाकर लाड से इस चुनौती युक्त कार्यभार हेतु नियुक्त करते हुए कहा, "हे पुत्र, कुल दीपक! अब तू ही 104 पटदर्शन
SR No.032780
Book TitlePat Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana K Sheth, Nalini Balbir
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy