________________ अर्थ- तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अनगार एक हजार साधु परिवार के साथ श्रीपुंडरीक पर्वत पर आते हैं। आकर वह पुंडरीक पर्वत पर धीरे-धीरे चढते हैं। चढकर मेघ के बादल जैसी देव सन्निपात पृथ्वी शिला पर आते हैं, और यावत् पादोपगम अनशन व्रत ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् वह शुक्र अनगार कोई एक समय एक हजार साधुवृन्द के साथ पुंडरीकगिरि पर आते हैं, यावत् सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त करते हैं।" इससे प्रतीत होता है कि शत्रुजय महिमा ने परम्परा से अपना माहात्म्य ऐसे ही अनुपम-अद्वितीय बना रखा है। इस तीर्थ की पवित्रता निःसंदेह है क्योंकि इस तीर्थस्थान पर नेमिनाथ के सिवाय अन्य 23 तीर्थकर भगवंतों के समवसरण की रचना इन्द्र देवों द्वारा की गई है। सिरिनमिनाह वज्जा, जत्थ जिणा रिसह पमुहवीरंता। तेवीस समोसरिआ, सो विमलगिरि जयउ तित्थं।। अर्थ- श्री नेमिनाथ भगवान के सिवा ऋषभदेव से महावीर प्रभु इन 23 तीर्थकरों जहां समवसृत हए जहाँ इन्द्रदेवों ने समवसरण की रचना की थी, वह विमलगिरि तीर्थ सदा जयवंत हो। पुंडरीक गणधर ने कहा है वैरिण्यपि च नो वैरं नो जिघांसा त्रसादिषु / द्यूतादिषु न चासक्तिनकुलेश्याविचिन्तनम्।। अर्थ- इस तीर्थ में वैरी प्रति वैरभावना न रखने, सादि प्राणियों के घात की इच्छा भी न करने, द्यूतादि पाप विषयासक्ति न रखने और कुलेश्या का चिंतन नहीं करने का उपदेश दिया गया है अनंता यत्रा संसिद्धा, भूमिसंस्पर्शयोगतः। भाविकालेऽपिसेत्स्यन्ति, तत्तीर्थ भावतः स्तुवे।। अर्थ- जिस गिरिराज की भूमि के स्पर्शमात्रा के योग से भूतकाल में अनंत आत्माओं ने निर्वाण पद-मोक्ष प्राप्त किया है, भविष्य में भी अनंत आत्माएं सिद्धपद-मोक्ष प्राप्त करेंगे। उस तीर्थाधिराज की मैं भावपूर्वक स्तुति करता हूँ। यह पवित्र तीर्थ मोक्षलक्ष्मी संगम स्वरूप में पृथ्वीतल पर सदा तिलकवंत, जयवंत स्वरूप अवस्थित है। प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री आदिनाथ प्रभु ने इसे शाश्वत तीर्थ माना है। यह तीर्थ त्रिकाल है और अनंत केवलज्ञान की तरह सर्वत्र उपकारक है। यह तीर्थ मुक्तिधाम रूप स्थिर, निर्मल और निराबाध है, जो पापसमूह का नाशकर्ता है। संसार समुद्र अनादि है। शत्रुजय तीर्थ सर्व तीर्थों से विलक्षण-भिन्न है, जहां निर्मल आत्मा सिर्फ उसके दर्शनमात्रा से ही दुर्गति को दूर कर सकते हैं, मोक्षपद प्राप्त कर सकते हैं भव्या एव हि पश्यन्ति, त्वभव्यैर्नहि दृश्यते। विलक्षणं परात्तीर्था-लक्षणं यस्य युज्यते।। अर्थ- (यथार्थ स्वरूप में) इस गिरिराज-तीर्थाधिराज को मुक्तिगमन के योग्य भव्यात्मा ही देख-जान सकती है। अभव्य-अभवी जीव तो उनके दर्शन भी प्राप्त नहीं कर सकते। अन्य सर्व तीर्थों से विलक्षण इस गिरिराज का यही तो प्रधान लक्षण है। पटदर्शन 15