________________ तिहां श्री शांतिना(थ) परमेसर रह्या सिंह उद्यानने विषे, श्री सिधाचलजीनो महिमा सांभलि, अनेक भव्य जीव प्रतिबोध पांमी चारित्र लेई अणसण करी घणा जीव सिधी वऱ्या। श्री शांतिनाथ विहार करतां समतसिखरें नवस्यें मुनि सहितः मास भक्ति करी सिधपदने वरयाः। नमोस्तु वि(म)लगिरीः, पुडरीकगिरी ने नमस्कार होज्यो।16। हिन्दी अनुवाद 16. शांतिनाथजी आपने 1000 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आपके परिवार में 36 गणधर थे, 62,000 साधु, 62,600 साध्वियां, 2,90,000 श्रावक और 3,93,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान चालीस धनुष ऊंचा था। आपका वर्ण कंचन है। आपका लांछन मृग है। आपकी आयु पूरे एक लाख वर्ष की थी। विचरण करते हुए क्रमशः आप कुरुदेश के हस्तिनागपुरी के कुसुम नामक उद्यान में पधारें। चक्रायुध राजा को प्रभु के शुभागमन की बधाईयां दी गई। राजा ने उसको पंचांग द्रव्य से प्रतिलाभित किया। अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ प्रभु दर्शनार्थ आये। तीन प्रदक्षिणा-वंदन विधि करके यथोचित स्थान ग्रहण किया। प्रभु ने देशना में सिद्धाचलजी का माहात्म्य निरुपित किया। चक्रायुध नृप भी वहां दर्शनार्थ जाने हेतु उत्सुक हो गये। उन्होंने प्रभु से संघवी पदवी की अनुमति के लिए विनम्र विनती की। इन्द्र ने प्रभु समक्ष वासक्षेप, इंद्रमाला इत्यादि युक्त सुवर्णथाल प्रस्तुत किया। प्रभु ने राजा के मस्तक पर वासक्षेप से और गले में इन्द्रमाला पहनाकर संघवी पद पर नियुक्त किया। चक्रायुध अपने घर वापिस लौटे, हर्षोत्सव किया। विविध देशों में निमंत्रण पत्रिकाएं भेजकर समस्त संघ को आमंत्रित किया। इंद्र देरासर ले आए, जिसमें शांतिनाथ प्रभु की मणिमय प्रतिमा का स्थापन किया। आगे प्रभु की मंगलमय मूर्तियुक्त देरासर और पीछे चतुर्विध संघ सिद्धाचलजी पहुंचे। सुवर्ण-मोती से तीर्थ का पूजन किया। स्वामी-वात्सल्य किया। प्रभु की पूजा, अर्चना, भक्ति, स्नात्र-पूजा इत्यादि धार्मिक क्रिया से विविध अट्ठाई महोत्सव सम्पन्न किये। वहां रास्ते में परमेश्वरजी के जीर्ण प्रासाद देखकर भरत चक्रवर्ती की तरह नये प्रासाद का निर्माण किया, तीर्थोद्धार किया। घर वापिस लौटे और पुत्र को राज्यभार सौंपकर स्वयं चारित्र ग्रहण किया। विशुद्ध मन से चारित्र पालन किया। संयमाराधना-तपाराधना की। अनेक मुनियों के साथ एक मास का अनशन, संलेखना के साथ सिद्धपद प्राप्त किया। क्रमशः विचरण करते प्रभु वेलाइंसिंह नामक उद्यान में पहुंचे। वहां एक सिंह कषाय से प्रेरित प्रभुजी पर उछलने के लिए दौडा, कूदने लगा, फिर वह सफल नहीं हो पाया, जिससे वह और क्रोधित हो उठा। उसने दुगुना बल लगाकर प्रभु पर वार करने का प्रयत्न किया फिर भी वह निष्फल रहा। अब तो क्रोध की सीमा न रही थी। अपना समग्र बल इकट्ठा करके झपका, फिर भी वही निष्फलता। सोचने लगा, "यह कोई महापुरुष हैं। मैंने उनकी विराधना-अवज्ञा की है। यह मेरी बड़ी गलती है। अवश्य मुझे दुर्गति मिलेगी।" प्रभुजी ने उसे अपने पूर्वजन्म से अवगत करवाया। उसे पूर्वजन्म का स्मरण हुआ। प्रभु की देशना से प्रतिबोधित होकर अनशनव्रत अंगीकार किया और आठवें देवलोक में देवत्व प्राप्त किया। अवधिज्ञान से अपने पूर्वजन्म-सिंहजन्म को देखा। शांतिनाथ प्रभुजी के दर्शन किये और उनकी कृपा उपकार से ही यह देवलोक प्राप्त हुआ है, ऐसा जाना। वहां उसने शांतिनाथ जिन के मन्दिर का निर्माण किया और प्रभु की मणिमय मूर्ति की स्थापना की। वहां की विशेषता है कि जो भक्त सच्चे दिल से शांतिनाथ जिन की पूजा-अर्चना करते हैं, उनकी सर्व कामनाएं पूर्ण होती हैं। इसी समय से इस वन का नामकरण सिंहवन हुआ है। वहां शांतिनाथ जिन ने धर्मदेशना कही। उन्होंने सिद्धाचलजी की महिमा प्ररूपित की। अनेक भव्य जीव इससे प्रतिबोधित हए। उन्होंने चारित्र ग्रहण किया, व्रताराधना की। अंत समय में अनशन व्रत अंगीकार किया और मोक्षपद प्राप्त किया। पटदर्शन 6.5