________________ द्राविड़ और वारिखिल्ल का मुक्तिगमन और हंसावतार तीर्थ दसकोडि साह सहिआ जत्थ, दविड वालिखिल्ल पमुह निवा। सिद्धा नगाहिराए जयउ तयं पुंडरी तित्थं।। अर्थ-जिस गिरिराज पर द्राविड और वारिखिल्ल इत्यादि ने दस करोड़ साधुओं सहित सिद्धिपद-मुक्ति प्राप्त किया, वह पुंडरीक तीर्थ जयवंत हो। ऋषभदेव स्वामी के पुत्र द्रविड राजा को द्राविड और वारिखिल्ल नामक दो कुमार थे। द्रविड राजा ने चारित्र ग्रहण किया तब उन्होंने दोनों भाइयों के बीच में राज-सिद्धि का उचित बंटवारा किया था। बड़ा द्राविड राजा अपने राजलोभ-लालसा से वारिखिल्ल के साथ लड़ाई करता था। द्राविड ने वारिखिल्ल के सैन्य को धन की लालच में फंसाकर अपनी ओर खींच लिया था। भयंकर युद्ध हुआ। बारिश की ऋतु आई। चारों ओर पानी का उपद्रव हो रहा था। युद्ध तो चल ही रहा था। दोनों के सैन्य में दस करोड़ सैनिक मर गये। द्राविड राजा के सुबुद्धि मंत्री ने वहां नदी किनारे तापस गुरु का आश्रम है, वहां जाने का सुझाव दिया। मंत्री के साथ राजा वहां गये। गुरु ने उन्हें धर्मोपदेश द्वारा प्रतिबोधित किया। अपने पूर्वज-ऋषभदेव-भरत चक्रवर्ती, बाहुबली इत्यादि के उदाहरणों से उसे प्रतिबोधित किया। वैराग्य से परिपूर्ण द्रविडराजा अपने छोटे भाई वारिखिल्ल से प्रायश्चित करने गया तो उसका वैराग्य प्रेम भाव में रूपांतरित हो गया। दोनों परस्पर गले मिले और दोनों ने चारित्रधर्म ग्रहण किया। दोनों मुनि ने शत्रुजय तीर्थ का माहात्म्य सुनकर अन्य मुनियों के साथ शत्रुजय तीर्थ की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में एक तालाब किनारे विश्राम करने जा रहे थे। उसी स्थान पर हंस का एक झुंड था। मनुष्य के पदचाप सुनते ही हंस उसी स्थान से उड़ गये मगर एक वृद्ध हंस जो अशक्त, निर्बल था, वह उड़ नहीं पाया तो वह वहां ही रह गया। मुनि उसके पास गये। हंस की अवस्था देखकर करुणा प्रगट की। उन्होंने उसे पानी पिलाया। लगा कि यह उसकी अंतिम अवस्था हो रही है। दया भाव से उन्होंने उसे अपने साथ ले लिया और सिद्धाचल की ओर चल पड़े। सिद्धाचल पहुंचते ही मुनियों ने हंस को अनशन व्रत करवाया। नवकारमंत्र धर्माराधना करवाई। वह हंस भी वहां से मृत्यु प्राप्त कर आठवें देवलोक में पहुंचा। हंसदेव को अवधिज्ञान से यह घटना मालूम हुई। वह बहुत प्रसन्न हुआ। मुनि और सिद्धाचलजी का उपकार स्वीकार किया। वहां हंसदेव ने भगवान के एक मन्दिर का निर्माण किया और जिनप्रतिमा की स्थापना की। उसी समय से यह तीर्थ हंसावतार नाम से प्रचलित हुआ है। द्राविड और वारिखिल्ल ने भी चारित्र ग्रहण किया। मासक्षमण व्रत की तपाराधना की। अनुक्रम से समस्त मोहनीय कर्म का क्षय करके, त्रियोग से समग्र प्राणियों को मिच्छामि दुक्कडम् करते हुए आठों कर्म का क्षय से निर्मल केवलज्ञान प्राप्त करके दस करोड़ मुनियों के साथ मोक्षपद प्राप्त किया। हंसदेव ने सभक्ति, समृद्धि के साथ निर्वाण महोत्सव किया। कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्होंने शत्रुजय तीर्थ से सिद्धगति प्राप्त की। चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन पुंडरीक गणधर मोक्ष पहुंचे थे। इससे ये दोनों तिथियां कार्तिक पूर्णिमा और चैत्री पूर्णिमा पर्व माने जाते हैं। जो अर्हत् भक्त संघ सहित इन दिनों सिद्धाचल की यात्रा करते हैं, वे अनंत मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं। कंदबगिरि क्रमशः भरत राजा कंदबगिरि पहुंचे। वहां एक अनुपम अति प्रभावक गिरि-पर्वत को देखते ही वे प्रसन्नचित्त हो उठे। उन्होंने शक्तिसिंह को इस पर्वत विषयक पृच्छा की। शक्तिसिंह ने सविस्तार इसका माहात्म्य प्रदर्शित करते हुए कहा, "यह सिद्धाचलजी की एक मनोहर ट्रंक है। उत्सर्पिणी काल में संप्रति नामक चौबीसवें तीर्थंकर थे। उनके गणधर का नाम कंदब था। 102 पटदर्शन