________________ हस्तिकल्प तीर्थ चक्रवर्ती भरत चतुर्विध संघ के साथ क्रमशः प्रयाण कर रहे थे। वहां सतुदि नामक एक पर्वत दिखाई दिया, जहां से भरत पूर्व में चक्रवर्ती पद प्राप्ति के लिए, षट्खंड पर विजय प्राप्त करने निकले थे। वहां से गुजरते हुए उन्होंने देखा कि यहां बहुत लोग मृत्यु प्राप्त कर रहे हैं। वे सोचने लगे कि यहां न तो युद्ध संग्राम है, फिर भी ऐसे ही लोगों का विनाश क्यों हो रहा है? उतने में ही एक चारण मुनि प्रत्यक्ष हुए। मुनि ने भी भरत को इस विषयक पृच्छा की। तभी भरत ने कहा, "हे मुनीश्वर! यहां क्या हो रहा है, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।" तब मुनि ने समाधान करते हुए कहा, "हे राजन्! कुछ मलेच्छ राजाओं ने यहां एक उपद्रव फैलाया है। जिससे बिना कारण मनुष्यों का क्षय हो रहा है।'' भरत राजा ने मुनि से उसके निवारण के लिए पूछा। मुनि ने बताया, "हे राजन्! इस नदी का प्रभाव अत्यंत निर्मल-विशुद्ध है। इसी नदी के पानी के स्पर्श मात्र से यह रोग गायब हो जायेगा और मानव हानि-संहार बच पायेगा।" भरत राजा ने मुनि को सादर वंदन किया। उन्होंने वहां के लोगों-सैन्य को इस नदी के प्रभाव विषय में समझाया। सबने उसी नदी में सान किया। समग्र सैन्य तथा प्रजा रोग मुक्त हुए। भरत राजा प्रसन्न हुए। मगर उनका एक प्रिय हस्ती वहां काल प्राप्त हो गया। राजा बहुत दुःखी हुए। अपने हस्ती की याद में उन्होंने वहां एक गांव की स्थापना की और उसे हस्तिनागपुर नाम दिया। वहां उन्होंने ऋषभदेवजी का एक अनुपम मंदिर का निर्माण किया और उसमें प्रभु की रत्नमणिमय मूर्ति की स्थापना की, जिससे वह तीर्थ समान पवित्र, प्रचलित हो गया। उसी का नाम हस्तिकल्प तीर्थ प्रचलित है, जहाँ आज भी श्रद्धालू भक्त सादर वंदन-पूजा करते हैं और अपनी मनोवांछित कार्य की सिद्धि सम्पन्न कर सकते हैं। नेमिनाथ के तीन कल्याणक यात्रा करते क्रमशः चक्रवर्ती ससंघ गिरनार पहुंचे। उसी समय पांचवे देवलोक के स्वामी ब्रह्मेन्द्र करोड़ों देवताओं के साथ वहां उपस्थित हुए। बह्मेन्द्रदेव ने भरत राजा से निवेदन करते हुए कहा, "हे भरतेश्वर नृप! तुम्हारी जय हो! आप इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवजी के प्रथम पुत्र और प्रथम चक्रवर्ती भरतेश्वर हो। आपने विश्वोपकारी शत्रुजयतीर्थ का इस काल में प्रगटीकरण किया है। पूर्व उत्सर्पिणी काल के सगर नामक तीर्थंकर के मुखारविन्द से सुना था कि इस अवसर्पिणी काल के 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिजी के तीन कल्याणक यहीं होने वाले हैं और उनके शासनकाल में उनके मुक्तिपद-मोक्ष प्राप्त करूंगा। इसी कारण से मैंने यहां नेमिनाथजिन की प्रतिमा का स्थापन किया है। 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के तीन कल्याणक यहां होने वाले हैं, इससे विदित होकर हम उनका प्रतिदिन नियमित पूजन-अर्चन करते हैं। आज आपके दर्शन से मंगल प्राप्त हुआ।" भरत भी यह सुनकर प्रसन्न हुए और उन्होंने नेमिनाथ का प्रासाद निर्माण करवाया और नेमिनाथजिन की मंगलमूर्ति स्थापित की। तभी से यह गिरनारतीर्थ प्रचलित हुआ है। बरडागिरि तीर्थ गिरनार तीर्थ की वायव्य दिशा में एक गिरि शोभायमान भासित होता है, उसे देखते ही भरतनृप ने शक्तिसिंह को इस विषयक पूछा कि यह कौन-सा पर्वत है? शक्तिसिंह ने निरूपण किया, "एक दुष्ट-दुराचारी बरड नामक राक्षस, राक्षसी विद्या प्राप्त करके इस पर्वत पर निवास करता है। वह वहां चोमेर विस्तार में बहुत उपद्रव-अत्याचार करता रहता है। वह किसी से अंकुशित नहीं है, वह मेरा भी कुछ सुनता नहीं है।" यह सुनकर भरत राजा ने उस दुष्ट को पराजित करने हेतु अपने सेनापति सुषेण को वहां भेजा। बरडासुर भी अपने मिथ्या गर्व से अनेक राक्षसों के साथ युद्ध करने निकल आया, मगर सुषेण ने पलक झपकते ही सबको पराजित करके बरडासुर को अपने विमान में डालकर भरत नृप के पास ले आया। बरडासुर ने सबसे माफी मांगी और अपने किये पर पश्चाताप किया। भरत राजा ने उसे सदुपदेश से प्रतिबोधित किया। उसे भी सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। वहां भरत राजा ने आदिनाथ और नेमिनाथ के प्रासाद बनवाए और बरडा को उसके अधिष्ठायकदेव पद पर नियुक्त किया। तभी से यह स्थान बरडातीर्थ नाम से प्रचलित हुआ है। जो भी यात्रिक शुभ भावना-विशुद्ध मन से जिसकी चाहना करते हैं, उसे इस तीर्थ द्वारा इच्छित की प्राप्ति होती है। पटदर्शन -101