________________ नमि-विनमि और चर्चगिरि णमि विणमी खयरिंदा-सह मुणि कोडीहिं दो हिं संजाया। जहिं सिद्ध सेहरा सइ-जयउ तयं पुंडरी तित्थं।। अर्थ-दो करोड़ मुनियों के साथ नमि और विनमि नामक खेचरेन्द्र जहां सिद्धों में शिरोमणि रूप हुए, वह पुंडरीक तीर्थ जयवंत हो। चक्रवर्ती भरत शत्रुजय तीर्थ पर चतुर्विध संघ के साथ क्रमशः आगे बढ़ रहे थे। गिरनार की ओर जाते हुए नमि-विनमि ने नम्र स्वर से निवेदन किया 'भगवान ऋषभदेव ने हमें आदेश दिया है कि हमें इसी सिद्धाचल से ही मोक्षपद प्राप्त होगा, तो हम यहां ही रहना चाहते हैं।' भरत ने सविनय प्रत्युत्तर देते हुए कहा, "आप भव्यात्मा हैं। आपके आत्मा की सिद्धि हो ऐसा ही आप करें।" तभी ये दोनों मुनि अन्य दो करोड़ मुनियों के साथ वहीं तीर्थ की निश्रा में रहे। फाल्गुन मास की शुक्ल दशमी के दिन आयुष्य-कर्म क्षय करते नमि-विनमि राजर्षि ने अन्य मुनियों के साथ मोक्षपद-सिद्धपद प्राप्त किया। तभी से यह स्थल पवित्र माना जाता है। कहा जाता है कि फाल्गुन पूर्णिमा के दिन उसी स्थान से दिया गया अल्प दान भी अति फलदायी प्रतीत होता है। भरत चक्रवर्ती और देवता ने वहां निर्वाण महोत्सव किया और उनकी रत्नमय मूर्तियां स्थापित की। नमि-विनमि विद्याधर की कनका, चर्चा आदि 64 पुत्रियां भी उसी पवित्र तीर्थ पर चारित्रधर्म ग्रहण करके निवास करती थीं। अपने कर्मों का क्षय करते हए उन्होंने चैत्र मास की कृष्णा चतुर्दशी के दिन अर्धरात्रि के समय वहां स किया, जिससे यह स्थान चर्चगिरि शिखर नाम से प्रचलित हुआ है। इससे चैत्र मास की कृष्णा चतुर्दशी पर्व तिथि की तरह स्वीकृत की गई है। अन्य मतानुसार भरत राजा ने वहां जो देवांगनाएं हुईं, उनकी स्थापना वहां की है। ऐसी भी मान्यता प्रचलित है कि ये देवियां भक्त के मनोवांछित पूर्ण करते हैं और प्रत्यक्ष भी होती हैं। बाहुबली ढूंक क्रमशः आगे बढ़ते हुए वे तलाध्वज नामक पर्वत पर पहुँचे। शक्तिसिंह ने बताया कि इसी स्थान से बाहुबलीजी ने मोक्षपद-सिद्धपद प्राप्त किया है। इसे देखते ही भरत प्रसन्न हुए और वहाँ उन्होंने बाहुबलीजी का प्रासाद बनवाया। तभी से यह स्थान बाहुबली ट्रॅक नाम से प्रचलित है। चंद्रप्रभु मंदिर चक्रवर्ती भरत अपने संघ के साथ यात्रा कर रहे थे। रास्ते में उन्हें एक तापस दिखाई दिया। वह एकाकी अपनी ध्यानावस्था में स्थित था। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने तापस को सादर वंदन किया और इस तरह एक कोने में एकाकी बैठने का कारण पूछा। तापस ने भी ये भगवान ऋषभदेव के चक्रवर्ती पुत्र भरत है, ऐसा जान लिया। उसने प्रत्युत्तर में कहा, "भगवान श्रीऋषभदेवजी ने मुझे आदेश दिया है कि आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभुजिन के शासनकाल में तू इसी स्थान से मोक्षपद पाएगा, बस तभी से मैं यहीं व्रत अंगीकार करके बैठा हूं।" भरतजी प्रसन्न हुए। श्री चंद्रप्रभ स्वामी के समवसरण की रचना यहीं होने वाली है, ऐसा जानकर तापस की धर्मास्था स्थिर रखने के लिए, लोगों को श्रद्धान्वित करने हेतु उन्होंने वहां एक चंद्रप्रभुजिन के मंदिर का निर्माण करवाया और प्रभु की मणिमयमूर्ति की स्थापना भी करवाई। वहां तीर्थ का स्थापन किया, जिससे वहां अनेक तापस मुनिजन, साधुगण और चंद्रयश नृप ने भी चारित्रधर्म अंगीकार करके केवलज्ञान (तदनन्तर) मोक्ष सुख प्राप्त किया है। इस तरह इस स्थान का प्रभाव अति निर्मल-पवित्र है। 100 पटदर्शन