Book Title: Pat Darshan
Author(s): Kalpana K Sheth, Nalini Balbir
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 123
________________ इस तीर्थ से निर्वाण प्राप्त करने वालों के लिए मुक्ति सहज-सरल है। जिसने शत्रुजयतीर्थ का स्पर्श किया, यात्रा की है, उन्हें रोग, संताप, दुःख, शोक, दुर्गति नहीं होती। उनके सब पापकर्मो का क्षय होता है। तीर्थयात्रा के फल पर प्रकाश डालते हुए आचार्यों ने कहा है कि आरम्भाणां निवृत्तिविणसफलता संघवात्सल्यमुच्चै, निर्माल्यं दर्शनस्य प्रणयिजनहितं जीर्ण चैत्यादिकृत्यम्। तीर्थोन्नत्यं सम्यक् जिनवचनकृति स्तीर्थसत्कर्मसत्त्वं, सिद्धेरासन्नभावः सुरनरपदवी तीर्थयात्रा फलानि। अर्थ- तीर्थयात्रा की फलश्रुति में आरम्भकार्य से निवृत्ति अर्थात् अनासक्त वैराग्य की प्राप्ति, द्रव्य की सफलता अर्थात् द्रव्यवृद्धि होती है। संघ का विशेष वात्सल्य हो सके (चतुर्विध संघ के साथ यात्रागमन), सम्यक्त्व भाव से निर्मलता-शुद्धता प्राप्त हो सके, प्रेमीजनों का हित-कल्याण कर सकें, जीर्णोद्धार आदि महाकार्य का का निर्माण हो सके, स्वयं से उन्नति-वृद्धि हो सके, जिन-वचन का समुचित स्वरूप में पालन हो सके, तीर्थ के सत्कार्य में प्रवृत्त होने का संयोग हो सके, मोक्ष के आसन्न भाव अर्थात् मोक्ष गति लायक भाव हो सके, देव और मनुष्य की पदवी प्राप्त हो अर्थात् तिर्यंचगति प्राप्त न हो। कहा जाता है कि तीर्थ का ध्यान मात्र करने से एक हजार पल्योपम का कर्म क्षय हो सके, अभिग्रह व्रत धारण करने से एक लाख पल्योपम का कर्म क्षय हो सके, और तीर्थमार्ग पर प्रयाण करने से एक सागरोपम से एकत्रित हुआ कर्म क्षय होता है। अर्थात् यह तीर्थ-तीर्थाधिराज प्रभावक तीर्थ है, जो पापकर्म क्षय कर्ता है। शत्रुजय माहात्म्य स्थापित करने के लिए विविध आचार्यों द्वारा जो प्रशस्ति की गई है, उसमें से अंशतः पाठकों की जानकारी हेतु उद्धृत की गई है। माना जाता है कि चंद्र और सूर्य साक्षात् प्रत्यक्ष रूप शत्रुजय तीर्थ के दर्शनार्थ आते हैं। वे आकाश से ही उनका दर्शन करते हैं और पुष्प अर्पण करते हैं। जिस गिरिराज में धर्माराधना करते भव्य प्राणी निज आत्मा में सम्यक्त्व रूपी बीज को अंकुरित करते हैं और पाप रूपी अंधकार को दूर करते हैं, वह तीर्थेश्वर परम श्रद्धेय, वंदनीय है। जिस लघुकर्मी आत्मा ने तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा भंग की हो, धर्म-विराधना की हो, वे विराधक आत्माएं भी इस तीर्थ के प्रभाव से विशुद्ध होकर निर्मल-विमल बुद्धि प्राप्त करते हैं, उस तीर्थेश्वर को भावपूर्वक वंदन। जिस गिरिराज की सेवा-पूजा के प्रभाव से प्राणी के कर्मों का क्षय होता है, आत्मा कर्मरहित होता है, उस अकर्मक तीर्थराज को भावपूर्वक वंदन। जिस गिरिराज का स्मरण करते, उसके स्मरण प्रभाव से भव्य जीवों के द्रव्य और भाव शत्रु का नाश होता है और जिससे वह शत्रुजय नाम से प्रचलित है, उसे भावपूर्वक वंदन। 116 -पटदर्शन

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