________________ 1. पट अन्तर्गत उल्लिखित कथाएं 1. ऋषभदेव यहां ऋषभदेव तीर्थंकर अंतर्गत समाविष्ट कथाएं विस्तृत रूप से दी गई हैं। पुंडरीकतीर्थ ओसप्पिणीइ पढम, सिद्धो, इह पढम चक्की-पढम सुओ। पढम जिणस्स य पढमो, गणहारी जत्थ पुंडरीओ।। चित्तस्स पुण्णिमाए-समणाणं पंचकोडि परिवरिओ। णिम्मल जसपुंडरीअं-जयउ तं पुंडरीयतित्थं।। अर्थ- अवसर्पिणो काल के प्रथम चक्रवर्ती के प्रथम पुत्रप्रथम तीर्थंकर के प्रथम गणधर पुंडरीक ने जहां चैत्रमास की पूर्णिमा के दिन पांच करोड़ मुनियों के साथ मोक्षपद प्राप्त किया, वहीं निर्मलयश कमल समान पुंडरीकतीर्थ जयवंत रहो।। इस अवसर्पिणी के प्रारम्भ में प्रथम चक्रवर्ती भरत के प्रथम पुत्र पुंडरीक अर्थात् ऋषभसेन, प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के प्रथम गणधर ने श्रीशजयतीर्थ से मोक्ष गमन किया था। एक बार पुंडरीकजी ने भगवान से पूछा, ''मेरी मुक्ति कहां होगी?" प्रभु ने प्रत्युत्तर में सुराष्ट्र (सौराष्ट्र) स्थित शत्रुजय तीर्थ की महिमा दर्शाई। उन्होंने कहा कि वह तीर्थ अतीत में बहुत ही पावनपवित्र माना जाता था और भविष्य में इसका माहात्म्य इतना ही रहेगा। वर्तमान काल में यह तीर्थ आपके नाम से ही पुनः विशेष प्रचलित होगा। इसी तीर्थ में आपके आत्मा की सिद्धि होगी। प्रभु से ऐसा कथन सुनकर आपने साथी मुनियों से कहा, "यह गिरिवर क्षेत्र के प्रभाव से सिद्धि सुख का स्थान है और कषाय रूप शत्रुओं को अंकुशित करने वाला प्रमुख स्थान है। हमें यहाँ मुक्तिदायक संलेखना करनी होगी।' ऐसा कहकर आपने अपने पाँच करोड़ मुनियों के साथ आलोचना की और महाव्रतों को दृढ़ किया। आपने मुनियों के साथ निरागार और दुष्कर ऐसा अंतिम भव संबंधित अनशन व्रत ग्रहण किया। एक मास के अनशन-संलेखना करके चैत्री पूर्णिमा के दिन आप सर्व ने सिद्धपद-मोक्षपद प्राप्त किया। तब से यह तीर्थ पुंडरीक तीर्थ से प्रचलित हुआ है और चैत्री पूर्णिमा पवित्र पर्व की तरह मनाई जाती है। क्रमशः संघ आगे बढ़ता रहा। इन्द्र भी संघ में शामिल हुए थे। इन्द्र और भरत ने परस्पर प्रेमालिंगन किया। इन्द्र ने अपनी माला सहर्ष भरत को पहनाई। रायण वृक्ष जहां श्री ऋषभदेवजी ने अपनी देशना दी थी। जिस तरह पुष्करमेघ दूध की वर्षा करता है, इसी तरह रायण वृक्ष शीतलता-शांति-पवित्रता की वर्षा करता है। वहां उन्होंने रायण वृक्ष की प्रदक्षिणा की और ऋषभदेवजी की पादुका का स्थापन किया। इन्द्र ने भी आने वाला समय जानकर लोगों के भावों की विशुद्धता अर्थ प्रभु की मूर्ति स्थापना करने का महत्त्व समझाया। भरत ने वहां ऋषभदेवजी के एक भव्य, विशाल प्रासाद का निर्माण करवाया। वहां उन्होंने पुंडरीक गणधर की मूर्ति स्थापित की। रायण वृक्ष नीचे ऋषभदेवजी की पादुका का स्थापन किया। वहां तीन प्रदक्षिणा दी और अन्य सर्व पूजादि क्रिया सम्पन्न की। भरतकुंड सिद्धाचलजी का माहात्म्य सुनकर भरत ने चतुर्विध संघ के साथ तीर्थयात्रा करने प्रस्थान किया। रास्ते में उन्होंने कुंड और पादुका जीर्ण हुए देखे। भरत ने इन्द्र से इस विषयक वार्तालाप किया। इन्द्र ने कहा कि यह महाकुंड सर्वतीर्थवितार नाम से प्रख्यात है। पूर्व उत्सर्पिणी काल में इस गिरि पर केवलज्ञान नामक प्रथम तीर्थंकर के पास सौधर्मपति इन्द्र पधारे थे। उन्होंने तीर्थ की भक्ति-पूजा के लिए इस कुंड में गंगा, सिंधु, पद्महृद इत्यादि नदियों के जल निर्माण किये थे। इस कुंड के जल से प्रभुजी का स्रात्राभिषेक करने से पाप क्षय होते हैं और सिद्धपद प्राप्त होता है। बहुत प्राचीन होने से यह जीर्ण तो है, फिर भी उसका प्रभाव सविशेष बढ़ता ही रहता है। इन्द्र से ऐसा सुनकर भरत चक्रवर्ती ने उस कुंड और पादुका का जीर्णोद्धार करवाया। तभी से यह प्रभावशाली कुंड भरतकुंड नाम से प्रचलित है। पटदर्शन 99