Book Title: Pat Darshan
Author(s): Kalpana K Sheth, Nalini Balbir
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 114
________________ वह इस तरह चिन्तन में डूबा हुआ ही था कि प्रभु ने उसे अपना पूर्वजन्म स्मरण करवाकर प्रतिबोधित किया। पूर्वजन्म में वह मिथ्यात्वी ब्राह्मण था; जो यज्ञादि, हिंसादि क्रिया में प्रवृत्त रहता था। एक बार एक मुनि से उसकी भेंट हो गई। मुनि ने उसे ऐसे हिंसात्मक यज्ञादि कार्य न करने के लिए सदुपदेश दिया। वह सदुपदेशं सह न पाया और क्रोधित होकर मुनि को मारने दौड़ा मगर इतना क्रोधांध था कि यज्ञस्तम्भ से टकराया और मृत्यु को प्राप्त हुआ। अपने आर्त्तध्यान के कारण उस विप्र ने सिंहोद्यान में सिंह का जन्म प्राप्त किया। सिंह ने अपना पूर्वजन्म देखा। वह मुनि की शरण में आ गया। ____ मुनि ने उसे प्रतिबोधित करते हुए कहा, "सर्व प्राणी पर समभाव अवधारित करके यहीं रहो। इस क्षेत्र के प्रभाव से तुझे अवश्य स्वर्गगति प्राप्त होगी।" प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए सिंह समतासागर में डूब गया। प्रभु का ध्यान करते हुए दया भाव में स्थित हआ। श्री प्रभु से उसने अनशनादि व्रत ग्रहण किये और आठवें देवलोक को प्राप्त किया। सिंहदेव ने अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव जाना। उसने पवित्र तीर्थ और परमोपकारी शांतिनाथ प्रभु के उपकार को याद किया। प्रभु के निवास से पवित्र-निर्मल स्थान पर सिंहदेव ने शांतिनाथ जिन की प्रतिमा सह एक सुन्दर-अनुपम चैत्य का निर्माण करवाया। तभी से यह स्थल 'सिंहोद्यान तीर्थ' नाम से प्रचलित है। सिंहदेव अधिष्ठित यह सिंहोद्यान तीर्थ शांतिनाथ प्रभु के भक्तों की सर्वकामना पूर्ण करते हैं। 20. मुनिसुव्रतजिन रामचन्द्रजी द्वारा जीर्णोद्धार श्रीमुनिसुव्रत प्रभु के शासनकाल में रामचन्द्रजी ने शत्रुजय का तीर्थोद्धार किया है। उस विषयक जानकारी उपलब्ध होती है। कयजिणपडिमुद्धारा, पंडवा जत्थ वीसकोडिजुआ। मुत्ति निलयं पत्ता, तं सित्तुंजयमह तित्थं।। अर्थ- जिसने जिन प्रतिमा का उद्धार किया है, उन पांडवों ने जहां बीस करोड़ मुनियों के साथ मुक्तिरूप आवास-घर प्राप्त किया है, वह शत्रुजय महातीर्थ है। मुनिसुव्रत प्रभु सिद्धाचलजी पधारे। देवता ने समवसरण की रचना की। प्रभु ने धर्मोपदेश में शत्रुजय तीर्थ का माहात्म्य निरूपित किया। रामचन्द्रजी प्रभु की देशना से अत्यन्त प्रभावित हो गये। उन्होंने भी चतुर्विध संघ के साथ तीर्थयात्रा का आयोजन किया। संघ के साथ वे सिद्धाचलजी पहुंचे। वहां के तीर्थ, प्रतिमाजी की जीर्ण अवस्था देखी। अपने पूर्वज भरत चक्रवर्ती की परम्परा को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भी वहां तीर्थोद्धार किया। अनेक स्थानों पर प्रतिमाजी की स्थापना की। मन प्रसन्नता से भर गया। सूर्यकुंड महिमा यहां शत्रुजय तीर्थ पर स्थित सूर्यकुंड का माहात्म्य निरूपित किया गया है। बलिराज को अपनी विमाता वीरमती ने दुष्ट इरादे से अधम विद्या से, तंत्र-मंत्र, कूट-कपट से कुर्कुट में परिवर्तित कर दिया था। चंदराजा ने इसी अवस्था में 15 साल पूर्ण कर दिये थे। सोलहवां साल चल रहा था। चैत्र मास की अठाई का महोत्सव शत्रुजय तीर्थ पर चल रहा था। वहां चारों प्रकार की पर्षदा-मनुष्य, तिर्यंच, देव-नारकी महोत्सव में शामिल थे। सर्वत्र हर्ष-उल्लास का माहौल हो रहा था। विविध धार्मिक प्रवृत्ति में सब तल्लीन-मग्न थे। चंदराजा कुर्कुट की पत्नी प्रेमलालछी ने शिवमाला नट से कर्कट युक्त ताम्रचूड पिंजर लिया और वहां शत्रुजय तीर्थ पर महोत्सव में शामिल होने आई। वहां प्रेमलालछी पटदर्शन -107

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