Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 14
________________ सागरमल जैन संदर्भ एवं टिप्पणियाँ १. पं. सुखलालजी, (सम्पा. ), 'प्रमाणमीमांसा', प्रस्तावना, पृ. १६ २. वही, पृ. १७. ३. वही, पृ. १६-१७ ४. वही, भाषा-टिप्पणानि, पृ. १-१४३ ५. प्रमाण स्वपराभासि ज्ञान बाधविवर्जितम्, न्यायावतार, १. ६. प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमर्थक्रियास्थितिः, प्रमाणवार्तिक, २/१ ७. प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् अष्टशती/अष्टसहस्री. पृ. १७५. ८. (अ) अनधिगतार्थाधिगमलक्षत्त्वात्-वही.. (ब) स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्-परीक्षामुख, १/१ ९. पं. सुखलालजी, 'प्रमाणमीमांसा', भाषाटिप्पणनि, पृ. १६. १०. ज्ञातव्य है कि प्रो. एम. ए. ढाकी के अनुसार न्यायावतार सिद्धसेन की रचना नहीं है, जैसा कि पं. सुखलालजी ने मान लिया था, अपितु उनके अनुसार यह सिद्धर्षि की रचना है, देखें - M.A. Dhaky's artical "The Date and Author of Nyayavatara, 'Nirgrantha', Shardaben Chimanbha ___Educational Research Centre, Ahmedabad, Vol. 1,, ११. पं. सुखलालजी, 'प्रमाणमीमांसा', भाषाटिप्पणनि, पृ. ७ १२. वही, मूलग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीका, १/१/३, पृ. ४ १३. वही, भाषाटिपणनि, पृ. ११ १४. वही. पृ. १२-१३ १५. वही, मूलग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीका, १/१/४, पृ. ४-५ १६. वही, भाषाटिप्पणनि, पृ. १४

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