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पाण्डव-पुराण। लाकर इन्द्र के हाथों में सोंप दिया । उस वक्त प्रभु ऐसे जान पड़े मानों पूर्व दिशामें उदयाचल पर उदयको प्राप्त हुए सूरज ही हैं।
इसके बाद श्रीमान् सुरेन्द्र देवता-गणके साथ-साथ वालक प्रभुको लेकर गाजे-बाजेके साथ खूब उत्सव करता हुआ सुमेरु पर्वतके शिखर पर जा पहुंचा। ' वहाँ पांडुरुवनकी पाण्डुक गिला पर-जो अनादि कालीन सिंहासन हैबहुतसे देवोंके साथ साथ इन्द्रने आदि प्रभुको विराजमान किया। इसके वाद देवता-गण जल लानेको क्षीरसागर गये, जिससे उसमें इल-चल मच गई । वहॉसे वे सोनेके एक हजार कलश भर कर लाये । उन कलशोंके द्वारा इन्द्रने भगवानको स्नान कराया और उन्हें दिव्य वस्त्रा-भूपण पिहिना कर उनकी भारी भक्ति-स्तुति की और प्रभुका ऋषभ नाम रक्खा । इस प्रकार जन्मकल्याणको पूरा कर सुरेन्द्र प्रभुको गजोत्तम ऐरावत हाथी पर सवार कर उनकी पूजा-भक्ति करता हुआ अयोध्या पुरीमें ले आया । यहाँ आकर उसने माया-निद्रासे रहित मल्देवीको-जो कि नाभिराजाके पास
ठी हुई थीं बड़ी भारी आदरकी दृष्टिसे देखा और नाभिराजाको नमस्कार कर बाल-सुरज श्री आदिनभुको माताकी गोदमें दे दिया । इसके बाद उसने सुमेरु परकी सारी कथा कह सुनाई और भगवानका जो नाम रक्खा था वह भी बताया। "सके वाद सैकड़ों नटी-नटोंसे भी उत्तम नृत्य करनेवाले इन्द्रने आनन्दमें 'आकर इंद्राणीके साथ साथ खूब ही नृत्य किया; और प्रभुकी सेवा सँभाल करनेको चतुर चतुर देवतोंको वहीं छोड़ कर, नाभिराजाकी आजा लेकर वह
वर्गको चला गया । भगवानके चरणकमलोकी देवता-गण हमेशा . भारी चिक्तिसे सेवा करते थे । प्रभु तीन ज्ञानके स्वामी थे । धीरे धीरे कुछ समय नीत जाने पर प्रभुने कुमार अवस्थामें पैर रक्खा; और क्रमसे जब वे [ पौवन अवस्थामें आये उस समय उनके तेजसे दशों दिशाएँ गकाश-मय होगई । ह भगवानका जीवन धर्म-मय था, अतः वे हमेशा भव्य जीवोंसे घिरे रहते थे ।
सके बाद प्रभुने इन्द्र और नाभिराजांकी प्रेरणासे यशस्वती और सुनंदाके साथ व्याह किया । प्रभुका समय बड़े सुखसे वीतने लगा । इसी समय प्रजा र भारी कष्ट आकर उपस्थित हुआ । धीरे धीरे सव कल्पवृक्ष नष्ट 'ये । यह देख लोगोंको बहुत अचंभा हुआ और वे जीविकाके विना __खी होकर नाभिराजाके पास आये तथा उनसे निवेदन करने लगे कि