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पाण्डव-पुराण |
नाम कर्मको बाँधा था, जिसके प्रभाव से वे धर्म-तीर्थको चलानेवाले तीर्थकर भगवान _होंगे। और उसी तरह आप भी आज वीरमयुकी सभायें आगममें कही हुई सत्कमेथाओं को सुन रहे हैं, अत एव आप भी आगे उत्सर्पिणी कालमें महापद्म नाम प्रथम तीर्थकर होंगे। यह सब पुराणपुरुपों की कथा कहने या सुननेका ही प्रभाव है । कोराजन् ! अब देखो कि हम भी तुम्हारे निमित्तसे इस पवित्र पुराणको सुनते हैं और आशा है कि हमारे मनोरथकी भी सिद्धि होगी । सच है गुणी पुरुषोंकी संगतिसे गुण का लाभ होता ही है । राजन् ! आपमें अगणित गुण है और वे सभी के सभी गौरव युक्त हैं। जिनागममें आपका अटूट प्रेम है । आप धर्मात्मा और धर्मात्माओं के साथ गाय-बछड़े की भाँति प्रीति रखनेवाले हैं। आपके समान गुणी राजा न तो उदेखा और न इस समय देख ही पड़ता है । सच है गुणज्ञताको सभी पूजते ' यॅ और गुणीका सव जगह आदर होता है ।
इस प्रकार उन महर्षियोंने महाराजकी खूब ही प्रशंसा की । सच है नीरणियोंके समागम से सूतकी नॉई गुणोंके निमित्तसे छोटासा पुरुष भी बड़े बड़े वृहात्माओं द्वारा गण्यमान्य हो जाता है ।
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इसके बाद विद्वानों द्वारा पूजे जानेवाले और जगत् के गुरु वाचस्पति गौतम , गणधर अपनी गंभीर ध्वनिसे कहने लगे कि श्रेणिक महाराज ! तुमने बहुत अच्छी पूछी । हे शास्त्र - विशारद ! तुमने जो संसार - प्रसिद्ध वात पूछी है उसको अब वामि थोड़े में कहते है । तुम सावधान चित्त हो कर सुनो ।
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इस भरत क्षेत्र में पहले भोगभूमि थी और कल्पवृक्षों के निमित्तसे लोगोंका 'नचाहे आराम से काल गुजरता था । पर धीरे धीरे जब भोग भूमिका क्षय शाने लगा और तीसरे कालका पल्यका कुल आठवाँ भाग काल वाकी रह गया को चौदह कुलकर उत्पन्न हुए । वे दिगीश्वर थे अर्थात् यद्यपि तेरह कुलकरों अहक राजा प्रजाका कुछ भी सम्बन्ध न था, पर तो भी लोगों में वे मुख्य गिने हैते थे । वे बहुतसी कला - चतुराइयों को जानते थे । और उन्होंने अनेक कुलोंकी हितैवस्था की थी । उनके नाम थे— प्रतिश्रुत, सन्मेति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीकर, धर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनर्जिव तौर नाभिराज |
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संदे इन्होंने हा, मा, और धिक इन तीन दंडोंको नियत किया था और इन्हींके
लश लोगों पर हिंसक जन्तुओं आदिके निमित्तसे जो आपत्तियाँ आती थीं उन्हें ये