Book Title: Panchpratikramanadi Stotrani
Author(s): 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 194
________________ ( १८२ ) वा तव वीतराग !, नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ? ॥ २४ ॥ जो जोः प्रमादमवधूय नजध्वमेन - मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवादम् । एतन्निवेदयति देव ! जगत्त्रयाय, मन्ये नदन्ननिननः सुरडुन्डु निस्ते ॥ २५ ॥ ज्योतितेषु नवता भुवनेषु नाथ!, तारान्वितो विधुरयं विद्दताधिकारः । मुक्ताकलापक खितोच्न सितातपत्र - व्याजा त्रिधा धृततनुर्ध्रुवमच्युपेतः ॥ २६ ॥ स्वेन प्रपूरितजगत्रय पिण्डितेन, कान्तिप्रतापयश - सामिव सञ्चयेन । माणिक्यदेमरजतप्रविनिर्मितेन, सालत्रयेण नगवन्ननितो विनासि ॥ २७ ॥ दिव्यसृजो जिन ! नमन्त्रिदशाधिपाना - मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौविबन्धान् । पादौ श्रयन्ति जवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त एव ॥ २८ ॥ त्वं नाथ ! जन्मजलधेर्विपराङ्मु Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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