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पएसीचरियं
१२-१३. चरम हूँ या अचरम, आप अनुकंपा करके बतायें । सूर्याभ देव के ये प्रश्न सुनकर भगवान् ने उत्तर देते हुए कहा- तुम भवसिद्धिक हो, अभवसिद्धिक नहीं।
१४. तुम सम्यग्दृष्टि हो, मिथ्यादृष्टि नहीं । परित्तसंसारी हो, अपरित्तसंसारी नहीं।
१५. तुम सुलभबोधि हो, दुलर्भबोधि नहीं । आराधक हो, विराधक नहीं।
१६. तुम चरम हो, अचरम नहीं । यह प्रत्युत्तर सुनकर सूर्याभ देव प्रफुल्लित हुआ।
१७-१८. उसने भगवान् को वंदन कर भक्तिपूर्वक निवेदन किया-भगवन् ! मैं आपके श्रमणों के सम्मुख बत्तीस प्रकार का दिव्य नाटक दिखाना चाहता हूँ। यदि आप निर्देश दें तो मैं दिखाऊं।।
१९. सूर्याभ देव के इस वचन को सुनकर भगवान् महावीर कुछ नहीं बोले। तब उसने पुन: अपने मानसिक भावों को निवेदन किया।
२०. तब भी भगवान् कुछ नहीं बोले । तब ‘मौनं सम्मतिलक्षणं' ऐसा जानकर सूर्याभ देव ने नाटक दिखाना प्रारंभ कर दिया।
२१. सूर्याभ देव की इस देवर्द्धि को देखकर गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर को वंदन कर यह पूछा
२२-२३. भगवन् ! यह सूर्याभदेव पूर्वभव में कौन था ? किसके समीप इसने आर्य धर्म का श्रवण किया ? अथवा इसने क्या किया, क्या दिया, क्या खाया, क्या आचरण किया जिसके प्रभाव से इसने यह देवर्द्धि प्राप्त की है ?
२४. अपने प्रमुख शिष्य इंद्रभूति गौतम का यह प्रश्न सुनकर भगवान् महावीर ने सूर्याभ देव के पूर्व जीवन का वर्णन किया।
प्रथम सर्ग समाप्त