Book Title: Paia Pacchuso
Author(s): Vimalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 126
________________ पएसीचरियं १०६ ९१-९२. आत्मा सदा भारमुक्त होती है। भार सदा शरीर का होता है। जब वह (आत्मा) शरीर को छोड़कर चली जाती है तब भी शरीर के भार में कुछ भी अन्तर नहीं होता । अत: प्रदेशी ! मेरे इस सत्य कथन को मानो कि आत्मा शरीर से भिन्न है। शरीर और आत्मा एक नहीं है। ९३-९४. केशी स्वामी की इस वाणी को सुनकर राजा ने दूसरी बात कही। एक बार मैं राजसभा में था। तब मेरा नगररक्षक एक चोर को लेकर आया। मैंने उसको सूक्ष्मदृष्टि से देखा। किंतु मैंने उसमें जीव नहीं देखा। ९५. तब मैंने उसके अनेक टुकड़े किये पर जीव नहीं पाया। अत: मेरा विचार सुदृढ हो गया कि शरीर से आत्मा भिन्न नहीं है। ९६. राजा की इस वाणी को सुनकर केशी स्वामी ने कहा- तुम मूढ हो। 'मूढ' शब्द सुनकर राजा मन में विस्मित हुआ। ९७. राजा ने केशी स्वामी से पूछा- मैं मूढ कैसे हूँ ? राजा के प्रश्न को सुनकर केशी स्वामी ने यह कहा ९८. एक बार चार मनुष्य अग्निपात्र में अग्नि लेकर वन में काष्ठ काटने के लिए गये । दूर जाने पर उन्होंने एक को कहा ९९. हम काष्ठ लाने के लिए वन में दूर जा रहे हैं। तुम यहीं ठहर कर हमारे लिए भोजन तैयार करो। १००. जब अग्नि बुझ जाये तब अरणि-काष्ठ से अग्नि को निकाल कर तुम हमारे लिए भोजन बनाना। १०१. यह कहकर वे काष्ठ लाने के इच्छुक हो वन में दूर चले गये। तत्पश्चात् भोजन बनाने के लिए उसने अग्निपात्र को खोला। १०२. उसमें अग्नि को बुझी हुई देखकर वह अरणि-काष्ठ के पास आया। उसने उसे चारों ओर से अच्छी तरह देखा । किंतु उसे वहां अग्नि दिखाई नहीं दी। १०३. उसने अरणि-काष्ठ के अनेक टुकड़े किये। किंतु अग्नि नहीं देखी। तब वह चिंतातुर हो गया क्योंकि वह भोजन नहीं बना सका था।

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