Book Title: Paia Pacchuso
Author(s): Vimalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 124
________________ पएसीचरियं १०४ ७८. यदि जीव शरीर से भिन्न होता तो वह कैसे समर्थ नहीं होता ? अत: मेरा मत ठीक है कि जीव शरीर से भिन्न नहीं है। ७९-८०. राजा की इस वाणी को सुनकर केशी स्वामी ने प्रतिबोध देते हुए कहा- एक शिल्पी नये छींकों से जितना भार ढोने के लिए समर्थ है उतना भार क्या वह जीर्ण छींको से ढोने के लिए समर्थ है ? राजा ने कहा- वह समर्थ नहीं है। तब केशी स्वामी ने इस प्रकार कहा ८१. आत्मा सदा एकरूप होती है। किंतु शरीर एकरूप नहीं होता। वह बालक, तरुण और वृद्ध होता है, पर आत्मा कभी नहीं होती। ८२. राजन् ! शरीर की शक्ति कभी बढ़ जाती है और कभी कम हो जाती है। अत: जो व्यक्ति पहले भार ढोने में समर्थ होता है वही पुन: अशक्त हो जाता है। ८३. अत: तुम विश्वास करो कि आत्मा शरीर से भिन्न है । केशी स्वामी की इस वाणी को सुनकर राजा ने पुन: इस प्रकार कहा ८४. एक बार मैं राजसभा में अनेक व्यक्तियों के साथ बैठा था। मेरा नगर रक्षक एक चोर को लेकर आया। ८५. मैंने उस जीवित चोर के वजन को तोलकर उसे मार दिया। तत्पश्चात् मैंने मरे हुए उसका वजन तोला। ८६. जीवित और मृत अवस्था के वजन में कोई अंतर नहीं आया। तब मेरे विचार सुदृढ हो गये कि आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है। ८७. यदि आत्मा शरीर से भिन्न होती तो वजन में अन्तर होता पर कुछ भी अन्तर नहीं हुआ। अत: मेरे विचार सुदृढ है। ८८.राजा की इस वाणी को सुनकर केशी स्वामी ने प्रतिबोध देते हुए कहाक्या तुमने वायु से पूरित चमड़े का मशक देखा है ? ८९-९०. केशी स्वामी का यह प्रश्न सुनकर राजा ने कहा- हाँ ! तब केशी स्वामी ने पुन: इस प्रकार पूछा- क्या वायुरहित और वायु से परिपूर्ण मशक के वजन में कोई अन्तर होता है ? राजा ने कहा- नहीं । तब केशी स्वामी ने उसको प्रतिबोध देते हुए इस प्रकार मधुरवाणी में कहा

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