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मियापुत्तचरियं
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तृतीय सर्ग १. प्राचीन काल में इस भारतवर्ष में शतद्वार नामक समृद्ध, स्तिमित और ऋद्ध नगर था।
२. राजा धनवती वहां सुखपूर्वक राज्य करता था। वह अपनी शक्ति के अनुसार प्रजा का पालन करता था।
३. उस नगर के समीप में विजयवर्द्धनामक एक ऋद्ध और प्राकारों से युक्त खेटक था।
४. उसका विस्तार पांच सौ ग्राम पर्यन्त था। एकादि नामक व्यक्ति उस खेटक का प्रधान था।
५. वह राजा के द्वारा नियुक्त, साधुओं का द्वेषी और अधार्मिक था। वह प्रत्येक कार्य में अपनी मनमानी करता था।
६. वह असत्य को सत्य और सत्य को असत्य कहकर सदा कपटपूर्ण व्यवहार करता था।
७. इस प्रकार उसने अपने हाथों से पाप कर्मों का बंधन किया। इस संसार में कौन मनुष्य को बंधन-मुक्त और बंधन-बद्ध करने में समर्थ हैं।
८. इस संसार में मनुष्य स्वकृत कुकर्मों से बंधता है और सत्कर्मों से मुक्त होता है।
९. पाप कर्मों को करता हुआ वह अपना समय बिताने लगा। अंत में उसके शरीर में ये रोग उत्पन्न हुए हैं -
१०-११. श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिमूल, भगंदर, अजीर्ण, दृष्टिशूल, शिरःशूल, खुजली, अरुचि चक्षुवेदना, कर्णवेदना, जलोदर, कुष्ठरोग आदि । ये सभी दुःख देने वाले हैं।