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एसीचरिय
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१०४. जब दूसरे मनुष्य काष्ठ लेकर वहां आये तब उन्होंने उसे चिंतामग्न देखकर चिंता का कारण पूछा ।
१०५. उसने चिंता का हेतु बताया । उसको सुनकर एक व्यक्ति ने कहातुम सब स्नान करने के लिए जाओ । मैं भोजन तैयार करता हूँ ।
१०६-१०७. उसकी इस बात को सुनकर सभी स्नान करने चले गये । तत्पश्चात् उसने अरणि-काष्ठ को लेकर सर के काष्ठ के साथ घिसकर अग्नि पैदा की और भोजन बनाया ! जब वे स्नान करके आये तब उन्हें आश्चर्य हुआ ।
१०८. भोजन करके वे सभी मन में प्रसन्न हुए । तब उसने प्रथम व्यक्ति को कहा – तुम निश्चित ही मूढ हो ।
१०९. काष्ठ के बहुत टुकड़े करके तुम अग्नि चाहते हो | क्या इस प्रकार अग्नि उत्पन्न होती है ? अग्नि कैसे उत्पन्न होती है— उसने बताया ।
११०. इस दृष्टान्त को सुनाकर केशी स्वामी ने कहा- प्रदेशी ! तुम भी वैसे ही मूढ हो, इसमें संदेह नहीं है । क्योंकि तुम शरीर के टुकड़ों से जीव चाहते हो ।
१११-११२-११३. केशी स्वामी के युक्तिपूर्वक वचन को सुनकर राजा ने कहा— आप ज्ञानी हैं, शक्तिमान् हैं, क्या आप अभी मेरे हाथ में आंवले की तरह जीव को दिखाने के लिए समर्थ हैं ? यह सुनकर केशी स्वामी ने कहा- तुम्हारे सामने जो तृण कंपित (हिल) हो रहे हैं, उन्हें कौन कंपित कर रहा है ? क्या कोई देव, मनुष्य या असुर कंपित कर रहा है ? राजा ने कहा- दूसरा कोई नहीं, केवल वायु ही कंपित कर रहा है ।
११४. तब केशी स्वामी ने पूछा- क्या कोई भी मनुष्य पवन को देखने में समर्थ है ? राजा ने कहा- संसार में कोई भी पवन को देखने में समर्थ नहीं है ।
११५. केशी स्वामी ने कहा— तब मैं कैसे तुम्हें जीव को दिखाने में समर्थ हो सकता हूँ ? छद्मस्थ व्यक्ति दश वस्तुओं को देखने के लिए सक्षम नहीं हैं ।