________________
•
पएसीचरियं
९४
१३. राजा ने विस्मयपूर्वक चित्र को पूछा- ये जड़ कौन हैं ? यहाँ क्या करते हैं ? चित्र ने कहा- ये मुनि ज्ञानसंपन्न हैं ।
1
१४-१५. ये जीव को शरीर से भिन्न मानते हैं । ये स्वर्ग और नरक को भी मानते हैं । अपने सिद्धान्त के प्रतिकूल इस बात को सुनकर राजा ने चित्र को कहा--- उनके पास चलो । उनसे चर्चा करुंगा। जीव शरीर से भिन्न कहाँ, कैसे दिखाई देता है ? स्वर्ग और नरक भी नहीं हैं ।
T
१६. राजा को लेकर चित्र केशी स्वामी के पास आया । राजा ने केशी स्वामी से पूछा- क्या आप जीव को शरीर से भिन्न मानते हैं ?
१७. राजा का यह प्रश्न सुनकर केशी स्वामी ने कहा- तुम विनय किये बिना पूछते हो । अत: तुम्हारे में पूछने की योग्यता नहीं है ।
१८. हमें देखकर क्या तुम्हारे मन में यह चिंतन नहीं आया कि ये जड़, मूढ कौन हैं ? यहाँ क्या करते हैं, क्या खाते हैं ?
१९. इस प्रकार अपने गुप्त भावों को सुनकर राजा प्रदेशी ने कहा- आपने मेरे विचार कैसे जान लिये ?
२०. क्या आपके पास अभी कोई विशिष्ट ज्ञान है जिससे आपने मेरे सुगुप्त विचारों को जान लिया ?
२१ राजा की इस वाणी सुनकर विशिष्टज्ञानी केशी स्वामी ने कहा- मेरे पास चार ज्ञान हैं- मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यव ।
-
२२ यह सुनकर राजा ने केशी स्वामी को कहा- क्या आपका यह मत है कि शरीर आत्मा से भिन्न है ? यदि है तो मेरी बात सुने ।
२३ मेरा दादा अधार्मिक था । वह प्रजा को सदा दुःख देता था । आपके मतानुसार वह मर कर अभी नरक गया है।
२४-२५-२६ मैं सदा उसका प्रिय था । यदि वह यहां आकर इस प्रकार कहें- मैंने बहुत पाप किये थे अत: अभी नरक गया हूँ । पौत्र ! तुम पाप मत करना । तब मैं आपके मत को मान लूं । किंतु वह यहां नहीं आया, अत: मेरा विचार सुदृढ़ है कि आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है। जो भिन्न कहते हैं वे मूढ हैं। राजा के इस
"
विचार को सुनकर प्रतिबोध देने के लिए केशी स्वामी ने यह कहा