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पएसीचरियं
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५५. अत: शरीर से जीव भिन्न है यह मेरा विचार मिथ्या नहीं है । केशी स्वामी की यह बात सुनकर राजा ने पुन: इस प्रकार कहा
५६. एक बार मैं राजसभा में अनेक लोगों के साथ बैठा था। तब मेरा नगररक्षक एक चोर को लेकर आया।
५७. उसके प्रचुर अपराध को देखकर मैंने जीवित ही उसको एक कुंड में गिरा कर उसके (कुंड के) मुंह को शीघ्र ढक दिया।
५८.लोहमय रस से उसके छेदों को बंद कर, अनेक लोगों को वहां स्थापित कर मैं अपने राजमहल में चला गया।
५९. अनेक दिन बीत गये । मैं पुन: वहां आया। मैंने कुंड को खोला । तब मैंने चोर को मृत पाया।
६०-६१. लेकिन कुंड के कोई भी छिद्र मेरे दृग्गोचर नहीं हुआ। यदि जीव शरीर से भिन्न होता तो जीव के बाहर जाने पर कुंड के छेद हो जाता। किंतु मैंने देखा- नहीं हुआ। तब मेरा यह मत सुदृढ हो गया कि जीव शरीर से भिन्न नहीं
६२. राजा का यह वचन सुनकर केशी श्रमण ने कहा- क्या तुमने कूटगृह देखा है। राजा ने कहा- हां।
६३-६४. तब केशी स्वामी ने प्रतिबोध देते हुए राजा से कहा- यदि कोई व्यक्ति सुगुप्त द्वार वाले और छिद्ररहित कूटगृह में स्थित होकर भेरी बजाये तो क्या उसका शब्द बाहर जाता है ? केशी स्वामी के इस वचन को सुनकर राजा ने कहा- हां, बाहर जाता है।