Book Title: Nyayaratna Sar Author(s): Ghasilal Maharaj Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore View full book textPage 6
________________ भारतीय दर्शन के सम्प्रदाय नष्ट हो जाता है, तब चैतन्य भी नष्ट हो जाता है दर्शन का उद्भव संशय अथवा जिज्ञासा से इस मत में चैतन्य विशिष्ट देह ही आत्मा है, जीव माना जाता है । तथ्य यह है कि जब मानव के हैं। लिए किसी कर्तव्य का विधान किया गया होगा.सुख चार्वाक अभिमत प्रमाण प्राप्ति और दुःखनिवृत्ति के उपाय बताए गए होंगे, अभिमत तत्वों का परिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से तय अपने स्वरूप और जगत् के विषय में जिज्ञासा . हो जाता है । प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् । प्रत्यक्ष के दो र पन्न हुई होगी। उसी से दर्शन का उद्भब हुआ भेद हैं--इन्द्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष । चार्वाक होगा। कम से कम भारतीय दर्शन के मूल में यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। जिज्ञासा के मूल में भी अनुमान को प्रमाण नहीं मानता । क्योंकि व्याप्ति " का अभाव है । कार्य-कारण का अभाव है । इस मत व्यक्ति का सुखप्राप्ति और दुःखविनाश का उद्देश्य __में शब्द भी प्रमाण नहीं है । क्योंकि विश्वासयोग्य ही निहित होता है। प्रत्येक आत्मा में दुःखनिवृत्ति __ व्यक्ति के द्वारा कथित शब्द ही प्रमाण है। जो की सनातन भावना रही है । जिस दिन मनुष्य ने या अपने अन्तर् के सुख-दुःख की और उसके कारणों में प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। वेदों को प्रमाण नहीं की खोज प्रारम्भ की होगी, उसी दिन सेशन का गाना मानकर" बिमोनिका गलत नहीं होता। अतः एकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। प्रत्यक्ष न प्रारम्भ हुआ होगा। होने के कारण स्वर्ग तथा नरक को भी अस्वीकार चार्वाक सम्प्रदाय कर दिया। परलोक को मानना बेबुनियाद की दभिन्न दर्शनों में पहले चार्वाक का नाम लिया बात को मानने जैसा है। क्योंकि वह प्रमाणसिद्ध जाता है। यह एक भौतिकवादी दर्शन है । इसके नहीं है। इस भौतिकवादी दर्शन के दो दिलक्षण आचार्य वहस्पति कहे जाते हैं । यह केवल प्रत्यक्ष सिद्धान्त हैं-जडवाद और दूसरा अनीश्वरवाद । प्रमाण को मानता है । आत्मा, परमात्मा और पर- संक्षेप में, यही चार्वाक दर्शन की प्रमाण और प्रमेय लोक को स्वीकार नहीं करता । भारत के समस्त व्यवस्था है। इस परम्परा में भी अनेक आचार्य दर्शनों ने इसका जोरदार खण्डन किया है। फिर समय-समय पर होते रहे हैं । भी आज वह जीवित है । सम्प्रदाय के रूप में नहीं, ग्रन्थों में उसकी सत्ता है। जनता में वह लोकप्रिय बौद्ध सम्प्रदायरहा है। आज उसका कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, बौद्ध धर्म की स्थापना गौतम बुद्ध ने ईसा पूर्व लेकिन ग्रन्थों में पूर्व पक्ष के रूप में उसकी सत्ता ५:५-४८५ में की थी। बुद्ध के बाद में उनकी आज भी है । वैदिक, जैन और बौद्ध सभी ने इसके शिक्षाओं की विभिन्न व्याख्याओं के आधार पर १५ सिद्धान्तों का खण्डन किया है। सम्प्रदायों में, बुद्ध का धर्म विभक्त हो गया । परन्तु आचार्य बृहस्पति प्रत्यक्षवादी विचारक था। मुख्य सम्प्रदाय दो हैं-हीनयान और महायान । उनके अनुसार सुष्टि के निर्माण के चार तत्त्व हैं- हीनयान को स्थविरवाद तथा सर्वास्तित्ववाद भी भूमि, जल, अग्नि और वायु । आकाश तत्त्व को कहा जाता है । वह स्वीकार नहीं करता। क्योंकि उसका किसी सर्वास्तित्ववाद की दो मुख्य शाखाएँ हैंभी इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता। तत्त्व चतुष्टय से वैभाषिक और सोमान्तिक । वैभाषिक का अर्थ है ही शरीर की उत्पत्ति होती है। उनके मिलन से -विशिष्ट भाष्य । विभाषा त्रिपिटक का टीका चैतन्य की भी उत्पत्ति हो जाती है। जब शरीर ग्रन्थ है । विभाषा के आधार पर विकसित होने केPage Navigation
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