Book Title: Nyayaratna Sar
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Ghasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore

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Page 5
________________ विचार का नाम दर्शन है, परन्तु बिचार-स्वर्ण की करता था। तीर्थकर के शिष्यों में वादी-प्रतिवादी परीक्षा तो तर्क की अग्नि में होती है। तर्क की शिष्य भी होते थे, जिनका संघ में आदर-सत्कार कसौटी में निखरा विचार विशुद्ध होता है । विचार एवं सम्मान होता था। ब्राह्मण परम्परा में, बौद्ध में दोष-आग्रह, मोह, पक्षपात, बुद्धि की मलिनता परम्परा में और जैन परम्परा में भी शास्त्रार्थी दृष्टि के संकोच के कारण आते हैं। तर्क उन विद्वानों का होना परम बरकम दोषों का निराकरण करके विचार को शुद्ध बनाता शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करना, धर्म की प्रभावना है. और बुद्धि को निर्मल करता है। अतः तर्क को का एक प्रधान अंग था। दर्शन का अनिवार्य एवं अविभाज्य अंग माना प्रमाण शास्त्र का विभाजन गया है। कहा गया हैमोहं रुणद्धि विमलीकुरुते च बुद्धि, प्रमाण के बिना प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सूते च संस्कृत पद व्यवहार-शक्तिम् ।। सकती । प्रमेय वी सिद्धि आवश्यक है, और वह शारत्रान्त रश्यसन योग्यतया युनक्ति : प्रमाण से ही होती है। प्रमाण शब्द का अर्थ भी तर्फ नमो न तनुते किमहोपकारम् ॥ यही है, जिससे प्रमेय का यथार्थ ज्ञान हो, वह तर्कशास्त्र में किया गया श्रम. शनि के प्रमाण है। प्रत्येक सम्प्रदाय को प्रमाण स्वीकार व्यक्तित्व-विकास का पथ प्रशस्त करता है। और करना ही पड़ता है। तर्क दर्शन का अंग है । अतव्यामोह को दूर करता है । बुद्धि को विमल बनाता एवं दर्शन के वर्गीकरण के आधार पर तर्क का भी है । परस्पर के व्यवहार की योग्यता को बढ़ाता वर्गीकरण विया जा सकता है। भारतीय धर्म की, है। प्रत्येक शास्त्र के अध्ययन की क्षमता प्रदान दर्शन की और संस्कृति की मूल में दो धाराएँ रही करता है। हैं-ब्राह्मण और श्रमण । वेदानुकल और वेद प्रति कुल । वेदसम्मत और दबिरोधी। पहले को तर्क का उपयोग आस्तिक और दूसरे को नास्तिक कहने की एक भारतीय दर्शन में, तर्कशारत्र को हेतु विद्या, परम्परा चल पड़ी है । पर, यह एक भ्रान्त धारणा हेतु-शास्त्र, प्रमाणशास्त्र और न्यायशास्त्र कहा है। जैन और बौद्ध, नास्तिक नहीं, आस्तिक हैं। गया है। तर्क का उपयोग मुख्यतया तीन प्रयोजनों क्योंकि वे लोक और परलोक में विश्वास करते हैं। के लिए किया जाता है जैसे कि कर्म और कर्मफल में विश्वास करते हैं । आत्मा (क) अपने सिद्धान्त की स्थापना के लिए और की सत्ता में विश्वास करते हैं। केवल बेद में अपने पक्ष की सिद्धि के लिए । विश्वास न करने भर से यदि नास्तिवाता थोपी (ख) अपने मत पर किये गये, आरोप, आक्षेप जाती है, तो वैदिक लोग भी मास्तिक क्यों नहीं ? या दोष के निवारण के लिए। क्योंकि वे भी जैन आगम में और बौद्ध पिटक में (1) विरोधी के मत एवं सिद्धान्त के खण्डन के विश्वास नहीं करते । अतः दर्शन, प्रमाण और तर्क लिए। का विभाजन इस पद्धति से करना उचित होगा___ वाद, जल्प, वितण्डा, कथा और सम्वाद भी ब्राह्मण तक, बौद्ध तर्क और जैन तर्क। दूसरा तर्कशास्त्र के ही अंगभूत हैं । प्रत्येक सम्प्रदाय ही प्रकार यह भो हो सकता है-ब्राह्मण तर्क और अपनी रक्षा के लिए तथा विरोधी पर आक्रमण श्रमण तर्क । संस्कृति और सम्प्रदाय के आधार करने के लिए तर्कशास्त्र का भरपूर उपयोग करता पर ही इस प्रकार का विभाजन करना न्याय-संगत था। वादविद्या और वादशास्त्र का अध्ययन कहा जा सकता है, और उचित भी यही है।

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