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सातवाँ परिच्छेद कुमारी !, मैं चन्द्रातप नामक विद्याधर हूँ। तुम्हारी
और तुम्हारे भावी पतिकी सेवा करने के लिये ही मैंने यह रूप धारण किया था। हॉ, तुमसे मैं एक बात और बतला देना चाहता हूँ कि स्वयंवरके दिन तुम्हारे पतिदेव शायद दूसरे के दूत वनकर यहाँ आयगे । इसलिये तुम उन्हें पहचाननेमें भूल न करना।" ___ इतना कह, कनकवतीको आशीर्वाद दे, वह विद्याघर वहाँसे चला गया। उसके चले जाने पर कनकवती उस चित्रको वारंवार देखने लगी। वह अपने मनमें कहने लगी :- "जिसका चित्र इतना सुन्दर है तो वह पुरुष न जाने कितना सुन्दर होगा।" वह तनमनसे उस पर अनुरक्त हो उसे कभी कंठ, कभी शिर और कभी हृदयसे लगाने लगी। उसके नेत्र मानो उसके दर्शन से राप्त ही न होते थे। वह मन-ही-मन उसीको पतिरूपमें पानेके लिये ईश्वरसे प्रार्थना करने लगी।
उधर चन्द्रातप विद्याधरको यह धुन लगी थी, कि कनकवतीका विवाह वसुदेवके ही साथ होना चाहिये । इसलिये वह कनकवतीके हृदयमें वसुदेवका अनुराग उत्पन्न