Book Title: Neminath Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 402
________________ उनीसवाँ परिच्छेद चाहे उन्होंने दीक्षा ले ली हो, मेरे लिये वह सब समान है। किन्तु दुःखका विषय यह है, कि तुममैसे एकको भी मैं अपनी गोदमें बैठा कर तुम्हारा दुलार नहीं कर सकी। इस पर भगवानने कहा :- हे देवकी ! इस बातके लिये तुझे वृथा खेद न करना चाहिये। यह तेरे पूर्व-जन्मके कर्मका फल है, जो इस जन्ममें उदय हुआ है। पूर्व-जन्ममें तूने अपनी सपत्नी ( सौत )के सात रन ले लिये थे। इससे वह बहुत रोने लगी, तब तूने एक रत्न उसे वापस दे दिया था। यह तेरे उसी कर्मका ___ भगवानके मुखसे यह हाल सुनकर देवकी अपने पूव-पापकी निन्दा करती हुई अपने वासस्थानको लौट आयी। किन्तु उसी समयसे उसके हृदयमें एक नयी अभिलाषा उत्पन्न हो गयी। वह चाहने लगी कि उसके एक और पुत्र उत्पन्न हो, तो उसे खिलाकर वह अपनी साध पूरी कर ले। इसी विचारसे वह रातदिन चिन्तित रहने लगी। उसकी यह अवस्था देखकर एकदिन कृष्णने

Loading...

Page Navigation
1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433